इतिहास

छठी शताब्दी के सोलह महाजनपद | जनपद काल से क्या समझते हैं | महाजनपदों का उदय | छठी शताब्दी के सोलह महाजनपदों का उल्लेख

छठी शताब्दी के सोलह महाजनपद | जनपद काल से क्या समझते हैं | महाजनपदों का उदय | छठी शताब्दी के सोलह महाजनपदों का उल्लेख

छठी शताब्दी के सोलह महाजनपद

जनपदकाल-

वैदिक काल में समस्त भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था किन्तु इस काल तक राजतंत्र अधिक प्रभावी हो गये थे। अब राज्यों में अपनी सीमाओं के विस्तार तथा अपनी शक्ति में अभिवृद्धि के लिए परस्पर संघर्ष होना स्वाभाविक था। इस प्रक्रिया में सार्वभौम सम्राट का आदर्श मगध शासकों ने स्थापित किया, जैसा कि रायचौधरी ने लिखा है : इस प्रकार कूटनीतिक और ताकत के बल पर बिम्बिसार ने अंग राज्य तथा काशी के एक भाग को मगध में मिला लिया था। फिर तो मगध निरन्तर विस्तार की ओर बढ़ता गया, और तब तक बढ़ता गया जब तक कि महान अशोक ने कलिंग के बाद अपनी तलवार रख नहीं दी। मगध साम्राज्य के विषय में चर्चा करने से पूर्व भारत की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति की समीक्षा करना आवश्यक है, क्योंकि इसके अभाव में भारत का राजनैतिक चित्र अस्पष्ट ही रह जाता है। जैन एवं बौद्ध साहित्य में 16 महाजनपदों का विवेचन मिलता है जिनमें मगध महाजनपद भी एक था। इसके अतिरिक्त वज्जि एवं मल्ल गणराज्यों को भी महाजनपदों में सम्मिलित किया गया है। इन गणराज्यों में गणतंत्रात्मक शासन पद्धति का प्रचलन था।

महाजनपद-

इस काल से पूर्व नौ प्रमुख राज्यों का विवरण वैदिक साहित्य में मिलता है- गंधार, केकय, मद्र, वश-उशीनर, मत्स्य, कुरु, पञ्चाल, काशी एवं कोशल। इनके पूर्व में मगध एवं अंग तथा दक्षिण में आन्ध्र, पुलिन्द, मूतिब आदि का उल्लेख आया है जिनकी चर्चा हमने पूर्व में की है। किन्तु इस युग में गन्धार से लेकर बंगाल की सीमा तक सम्पूर्ण उत्तरी भारत के सोलह महाजनपदों में विभक्त होने की जानकारी भगवती सूत्र एवं अंगुत्तर निकाय आदि से मिलती है। अंगुत्तर निकाय में सोलह महाजनपदों का उल्लेख इस प्रकार आया है- अंग, काशी, कोशल, वत्स, अवन्ति, वेदि, कुरु, पंचाल, मत्स्य, शूरसेन, धार, काम्बोज, अश्मक, वज्जि एवं मल्ल (गणराज्य) और मगध ।

अंग-

यह जनपद मगध से पूर्व में स्थित था और आधुनिक भागलपुर के समीप चम्पा (चांदन) इसकी राजधानी थी। मगध एवं अंग के मध्य चम्पा नदी बहती थी उसी के किनारे चम्पा नगर स्थित था। बौद्ध कालीन छ: बड़े नगरों में चम्पा नगर की गणना की जाती है। प्रारम्भ में अंग एक शक्तिशाली जनपद था। विधुर पण्डित जातक के अनुसार राजगृह प्रारम्भ में अंग राज्य का ही एक नगर था। कालान्तर में इसका पड़ोसी राज्य मगध के साथ संघर्ष होने पर इसकी स्थिति कमजोर हो गई। बुद्ध के समय अंग एवं मगध में संघर्ष की स्थिति बनी रहती थी, यहाँ के राजा ब्रह्मदत्त ने एक बार युद्ध में मगध को परास्त कर दिया था। किन्तु बाद में उसे मगध से पराजित होना पड़ा एवं ब्रह्मदत्त मारा गया और बुद्ध के समय में ही अंग को मगध में विलीन कर लिया गया।

काशी-

वर्तमान उत्तर प्रदेश के दक्षिण पूर्व में स्थित काशी की राजधानी वाराणसी (बनारस) थी जो वरुणा एवं असी नदियों का संगम स्थल है। इस काल में यह नगर व्यापार, शिल्प एवं शिक्षा के लिए विख्यात था। गुत्तिल जातक में विवरण मिलता है कि इस नगर का क्षेत्रफल 12 योजन 36 मील था एवं भारत के प्रमुख नगरों में से एक था। महावग्ग में काशी राज्य की शक्ति और समृद्धि का विवेचन मिलता है। जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ के पिता अश्वसेन काशी के राजा कहे गये हैं। काशी के प्रतापी राजा ब्रह्मदत्त के काल में यह एक प्रमुख राज्य बन गया था। महावग्ग से ज्ञात होता है कि ब्रह्मदत्त आदि राजाओं ने कोशल को अपने अधीन कर लिया था। कोशल के साथ संघर्ष में काशी द्वारा बड़ी सेना के साथ आक्रमण किये जाने का उल्लेख ब्रह्मचत जातक में मिलता है। परन्तु अन्त में काशी की पराजय हुई।

कोशल-

बुद्ध के समय कोशल उत्तरी भारत में महत्वपूर्ण राज्य था। इसकी उत्तरी सीमा पर नेपाल, दक्षिण में गंगा नदी, पूर्व में इलाहाबाद और शाक्य राज्य को इसके पूर्व में बताया गया। राय चौधरी ने कोशल का सीमांकन इस प्रकार किया है : कोशल राज्य के पश्चिम में गोमती, दक्षिण में सर्पिका (सई नदी) पूर्व में विदेह से कोशल को अलग करने वाली सदानीरा तथा उत्तर में नेपाल पहाड़ियाँ थीं।

मज्झिम निकाय में कोशल नरेश का कथन मिलता है कि वह भी कोशल का है तथा भगवान बुद्ध भी कोशल के हैं। रामायण तथा पुराणों से विदित होता है कि कोशल के पूर्ववर्ती राजा इक्ष्वाकु (इच्छ्वाकु) वंशीय थे। इक्ष्वाकु के ही वंशज कुशीनारा, मिथिला तथा वैशाली में राज्य करते थे। रामायण काल में कोशल की राजधानी अयोध्या थी। विनय में दिगहु का एक कथानक मिलता है-काशी नरेश ब्रह्मदत्त ने कोशल पर आक्रमण किया उस समय ‘दिग्ति’ श्रावस्ती का राजा था। ब्रह्मदत्त ने सम्पूर्ण राज्य जीतकर अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया था परन्तु दिप्ति के पुत्र ने पुनः अपने राज्य को जीत लिया था। कोशल राजा वंक, दब्बसेन तथा कंस द्वारा काशी पर आक्रमण किये जाने की जानकारी मिलती है। राजोवदान जातक में एक रोचक आख्यान आया है जिसमें पहले दो राजाओं के संघर्ष को बताया गया तथा अनेक कथानकों के साथ वाराणसी के राजा की विशेषताओं का उल्लेख किया गया। इस काल में काशी के अतिरिक्त किसी अन्य राज्य अथवा जाति से कोशल के संघर्ष का उल्लेख नहीं मिलता। संभवतः इसके उत्तर में स्थित जातियों (छोटे-छोटे राज्यों) का विलीनीकरण क्रमिक रूप से हआ। परन्त इसके सम्बन्ध काशी से अच्छे नहीं थे अतः दोनों  जनपदों में संघर्ष प्रारम्भ हो गया। इस संघर्ष का परिणाम कोशल के पक्ष में गया और अन्त में कंस ने काशी पर अधिकार कर लिया। प्रसेनजित के पिता महाकोशल के समय काशी कोशल जनपद के अधीनस्थ राज्य कहा गया। काशी एवं कोशल का संघर्ष बुद्ध जन्म के बाद की घटना थी। रीजडेविड्स की मान्यता थी कि इस संघर्ष में चार राजा क्रमशः युद्धरत रहे एवं यह संघर्ष सौ वर्ष तक चला। बौद्ध ग्रंथ धम्मपद की अट्ठकथा के अनुसार प्रसेनदि (प्रसेनजित) कोशल का राजा था जिसकी शिक्षा तक्षशिला में हुई थी। इसे ‘महालि’ का सहपाठी कहा गया जो दान के लिए बहुत प्रसिद्ध था।

प्रसेनजित बुद्ध का समकालीन था तथा इक्ष्वाकु वंश की अन्य शाखा से सम्बद्ध था। इस तथ्य की पुष्टि स्वयं प्रसेनजित के अभिकथन से होती है कि भगवान बुद्ध भी अस्सी के हैं तथा मैं भी अस्सी वर्ष का हूँ। मध्य प्रदेश में स्थित भरहुत स्तूप में एक बुद्ध मूर्ति पर उत्कीर्ण लेख से भी प्रसेनजित एवं बुद्ध की समकालीनता प्रमाणित होती है। सेतव्या (साकेत) उत्कठ (श्रावस्ती या सालवती) कोशल राजा ने ब्राह्मणों को दान में प्रदान की थी। महाकोशल ने मगध के सम्राट बिम्बिसार को विवाह में अपनी पुत्री कोशलदेवी को देते समय काशी का गाँव उसके श्रृंगार प्रसाधन के व्यय हेतु दिया था।

संयुक्त निकाय में दो युद्धों का विवेचन मिलता है : प्रथम के अनुसार मगध शासक अजातशत्रु ने काशी राज्य में प्रसेनदि पर आक्रमण किया एवं उसे श्रावस्ती (श्रावत्थि) में शरण लेने को बाध्य किया। दूसरे युद्ध में प्रसेनदि ने अजातशत्रु को परास्त कर बन्दी बना लिया तथा कुछ समय बाद मुक्त कर दिया और अपनी पुत्री वाजिरा का विवाह उसके साथ (अजातशत्रु) किया।

मेदलुम्प नामक स्थान पर बुद्ध एवं राजा के मध्य विचार विमर्श का उल्लेख मिलता है। कोशल नरेश की बहिन ‘सुमन’ ने बौद्ध होने की इच्छा व्यक्त की थी किन्तु वह ऐसा नहीं कर सकी, संयुक्त निकाय से ऐसी जानकारी मिलती है।

प्रसेनजित बहुपत्नीक था, एक बार उसने एक मालाकार के मुखिया की पुत्री मल्लिका को देखा एवं उसके सौन्दर्य पर मुग्धं हो गया। यद्यपि वह वृद्ध हो चुका था तथापि उसने 16 वर्ष की कन्या के साथ विवाह कर लिया। उसके विवाह के सम्बन्ध में एक दूसरी घटना का भी उल्लेख मिलता है। वह कपिलवस्तु के शाक्यों के साथ विवाह सम्बन्ध स्थापित करना चाहता था परन्तु शाक्य इससे सहमत नहीं थे किन्तु भय के कारण अस्वीकार न कर सके। अतः धोखे से एक दासी वासवखत्तिया के साथ प्रसेनजित का विवाह करवा दिया। इसी से प्रसेनजित को विडूड्भ (विरुद्धक) नामक प्राप्त हुआ। तिब्बती जनश्रुति के अनुसार विरुद्धक की माता का नाम मल्लिका था जो शाक्यों की दासी थी।

प्रसेनजित को सलाह देने के लिए राज्य में एक मन्त्रिपरिषद थी। इसमें 500 सदस्य थे। मज्झिम निकाय में एक मंत्री का नाम श्रीवड्ठ (श्री वृद्ध) आया है। उवसगदसाओ ने एक अन्य मंत्री मृगधर का नामोल्लेख किया है, अन्यत्र दीर्घकारायण का नाम भी मिलता है।

विरुद्धक ने एक बार मन्त्रिपरिषद के सदस्यों को प्रलोभनं एवं छल से अपनी ओर मिलाकर प्रसेनजित को पदच्युत कर दिया एवं स्वयं राजा बन गया। निराश्रित प्रसेनजित ने अपने दामाद अजातशत्रु के राज्य में शरण लेने के लिए प्रस्थान किया परन्तु गृह सीमा पर उसकी मृत्यु हो गई। अब विरुद्धक ने शाक्यों से बदला लेने का निश्चय किया, उसके प्रधानमंत्री अम्बरीश ने कूटनीति से काम लेते हुए उसने शाक्यों को अपनी द्वेषहीनता का विश्वास दिलाया और दुर्ग-द्वारों को खुलवा दिया। द्वारों के खुलने पर विरुद्धक की सेनाओं ने आक्रमण कर दिया। उसकी विजय हुई और लगभग 7700 शाक्य मारे गये, इस प्रकार शाक्यों की स्वायत्त सत्ता समाप्त हो गई किन्तु वह स्वयं जब वापस लौट रहा था, अचरावति नदी को पार करते हुए बाढ़ में सेना सहित बह गया।

वत्स-

वच्छ की राजधानी इलाहाबाद के समीप यमुना के तट पर कौशाम्बी (आधुनिक कोसाम) थी। कौशाम्बी को उज्जैन से 400 मील दूर तथा बनारस से 230 मील बताया है। सुत्तनिपात में उज्जैन से विदिशा होते हुए कौशाम्बी तक एक मार्ग जाने का उल्लेख मिलता है। वत्स को गंगा के दक्षिण स्थित कहा गया है।

बुद्ध के समय यहाँ उदयन राज्य करता था जिसे पौरव वंशी माना है। उसके पिता का नाम परन्तप (शतानीक) था उसके एक पुत्र का नाम बोधी कुमार मिलता है। संभवतः गद्दी पर आसीन होने से पूर्व ही इसकी मृत्यु हो गई थी। उदयन अवन्ति शासक प्रद्योत मगध नरेश बिम्बिसार तथा अजातशत्रु के समकालीन थे। भास रचित स्वप्नवासवदत्ता से विदित होता है कि उदयन और प्रद्योत्त के बीच वैमनस्यता थी, परन्तु वासवदत्ता के साथ विवाह हो जाने के पश्चात् मित्रता हो गई। इस विवाह सम्बन्ध के पश्चात् उदयन के कुशल मंत्री यौगन्धरायण ने अपने स्वामी का विवाह मगधराज दर्शक की पुत्री पद्मावती के साथ भी करवा दिया। अट्ठकथा में उदयन के तीन रानियों का उल्लेख मिलता है।

उसके काल में पाली में उदेनवत्थु एवं संस्कृत में मकन्दिका अवदान लिखे गये हैं। अवन्ति के राजा प्रद्योत के साथ उसकी शत्रुता के विषय में अनेक मनोरंजक कथानक मिलते हैं। किन्तु वासवदत्ता एवं उदयन के प्रणय प्रसंग की चर्चा विशेष उल्लेखनीय है।

ओल्डेनवर्ग ने ऐतरेय ब्राह्मण में वर्णित ‘वंशस’ को वंश या वत्स बताया है। परन्तु यह समीकरण सन्दिग्ध प्रतीत होता है। पुराणों में वत्स राज्य का वर्णन मिलता है। महाभारत के किसी चेदी राजा द्वारा कौशाम्बी नगर की स्थापना का उल्लेख आया है। गंगा की भयानक बाढ़ से जब हस्तिनापुर नष्ट हो गया तो जन्मेजय के प्रपौत्र निचक्षु ने कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाया। कौशाम्बी नगर व्यापारिक मार्गों के संगम पर बसा हुआ था।

प्रियदर्शिका और कथा सरित्सागर में उदयन की दिग्विजय का विवरण मिलता है। पूर्व में उसने वंग और कलिंग को दक्षिण में चोल-राज्य और कोल राज्य तक के प्रदेश को जीता। पश्चिमी भारत में मलेच्छों, तुरुष्कों, पारसीकों और हूणों को पराजित किया परन्तु इस वर्णन को ऐतिहासिक तथ्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता। सुंसमारगिरी भग्ग जनपद (मिर्जापुर) उदयन के अधीन होने की जानकारी भी मिलती है।

एक बार उसने शराब के नशे में बौद्ध भिक्षु पिण्डोल भारद्वाज के एक टोकरी भर कर पीली चींटियां उसके शरीर से बंधवा दी गयी थीं। किन्तु लम्बे समय बाद पिण्डोल भारद्वाज से ही उसने बौद्ध धर्म की शिक्षा ग्रहण की।

अवन्ति-

पश्चिमी भारत में अवन्ति जनपद का महत्वपूर्ण स्थान था। वर्तमान मालवा प्रदेश को अवन्ति राज्य की संज्ञा दी जाती थी। प्रधानतः इसके दो भाग थे उत्तरी एवं दक्षिणी अवन्ति जिसकी क्रमशः उज्जैनी एवं महिष्मति राजधानी थी। दोनों 50 योजन (400 मील) दूरी पर स्थित कही गई हैं। महिष्मति नर्मदा (मान्धता द्वीप) तट पर स्थित थी। दोनों नगर प्राचीन भारत में धर्म एवं संस्कृति के केन्द्र थे। प्राचीन काल में हैहय तथा इससे पूर्व इक्ष्वाकु वंश राज्य करता था। महाभारत में अवन्ति एवं महिष्मति को दो राज्य कहा है। महात्मा बुद्ध के समय यहाँ प्रद्योत नामक (पजोत) राजा राज्य करता था। महावण में उसे चण्ड के नाम से सम्बोधित किया है जबकि भास ने महासेन के नाम से अवन्ति एवं वत्स दोनों में वैमनस्य था। वत्सराज उदयन ने अवन्ति नरेश प्रद्योत की कन्या वासवदत्ता का अपहरण कर विवाह किया था किन्तु दोनों की शत्रुता धीरे-धीरे समाप्त हो गई।

मझिम निकाय से विदित होता है कि प्रद्योत के आक्रमण के भय से अजातशत्रु ने राजगृह को दुर्गीकृत करवाया। मथुरा के शूरसेन राज्य के राजा को बुद्ध के समय अवन्ति पुत्तो कहा है। संभवतः यहाँ का शासक अवन्ति का राजकुमार रहा होगा। ललित विस्तार में बुद्ध के समकालीन शासक को सुबाहु कहा है। अवन्ति उस समय बौद्ध धर्म का प्रमुख केन्द्र था। यहाँ के कुछ उत्साही धर्म प्रचारकों का नाम मिलता है : अभयकुमार, ईसीदासी, असीदत्त, धम्मपाल एवं सोना कुट्टिन आदि। सोना कुट्टिन को भाषण कला में प्रवीण माना गया है। धर्म प्रचारक श्रावस्ती, तक्षशिला, अवन्ति आदि में संचरण करते थे। बौद्ध तथा जैन साहित्य में अवन्ति राज्य के कुररघर, मक्करकर, सुदर्शनपुर आदि अन्य नगरों का उल्लेख मिलता है।

पुराणों से विदित होता है कि अवन्ति तथा विदर्भ की स्थापना यदुवंशियों ने की। ऐतरेय ब्राह्मण में भी सात्वतों तथा भोजों को दक्षिण में फैली हुई यदुवंश की शाखा कहा गया। हैहयवंश की पांच प्रमुख शाखायें थीं : वीतिहोत्र, भोज, अवन्ति, कुण्डीकेर तथा तालजंघ । चतुर्थ शताब्दी ईसापूर्व में अवन्ति मगध साम्राज्य का अंग हो गया था।

अवन्ति शासक चण्ड प्रद्योत ने बुद्ध के शिष्य महाकच्छायन के प्रभाव में बौद्ध धर्म को स्वीकार किया था। प्रद्योत ने बुद्ध को अवन्ति आमन्त्रित किया परन्तु बुद्ध नहीं आ सके तथा महाकच्छायन सहित सात प्रमुख शिष्यों को भेजा।

प्रद्योत के बाद मगध सम्राट शिशुनाग ने अवन्ति को परास्त कर अपने राज्य में मिला लिया था। अवन्ति राज्य का पर्याप्त आर्थिक महत्व था क्योंकि अनेक व्यापारिक मार्ग इस प्रदेश से गुजरते थे।

चेदि-

यमुना नदी के किनारे आधुनिक बुन्देलखण्ड तता उसके निकटस्थ प्रदेश में फैला हुआ था। इसकी राजधानी शक्तिमति थी। जातकों में सोत्यवती नगरी का उल्लेख मिलता है, जिसका समीकरण शक्तिमति के साथ किया जाता है। ऋग्वेद में चेदि राज्य का उल्लेख हुआ है। महाभारत में शिशुपाल को चेदि राजा कहा गया। इसके शासन काल में यह राज्य उत्कर्ष पर था किन्तु उसकी मृत्यु के बाद उसका पतन प्रारम्भ हो गया। इस वंश की एक शाखा कलिंग में भी राज्य करती थीं। उड़ीसा (कलिंग) में चेदि वंश का शासक खारवेल था। संभवतः चेदि वंश के किसी राजकुमार ने यहाँ इस वंश को प्रस्थापित किया होगा।

कुरु-

वर्तमान दिल्ली तथा मेरठ के समीपवर्ती प्रदेश कुरु राज्य में सम्मिलित थे। इसकी राजधानी यमुना के तट पर इन्द्रप्रस्थ थी। उत्तरवैदिक साहित्य में यह ख्याति प्राप्त राज्य था। ब्राह्मण ग्रंथों में कुरु-पांचालों की मित्रता का विस्तृत विवेचन मिलता है। वत्स प्रदेश में जिस राजतंत्र की स्थापना हुई थी वह संभवतः कुरु की ही एक शाखा थी। पौराणिक ग्रंथों से जानकारी मिलती है कि हस्तिनापुर के बाढ़ से नष्ट हो जाने पर राजवंश के कुछ लोग वत्स राज्य में विस्थापित हुए। हस्तिनापुर के उत्खननों से बाढ़ की पुष्टि होती है। महमूत सोमजातक के अनुसार इस राज्य में तीन सौ संघ थे। पाली ग्रंथों से ज्ञात होता है कि यहाँ के शासक युधिष्ठला गोत्र के थे। जैन ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र में कुरु नरेश को इक्ष्वाकु वंशीय कहा है। जातक कथाओं में सुत, सोम, कौख, धनंजय आदि कुरुदेश के राजा माने गये। प्रारम्भ में कुरु प्रदेश शक्तिशाली राजतंत्र था किन्तु बाद में यहाँ गणतंत्र की स्थापना हुई। अर्थशास्त्र में कुरु राज्य को गणराज्यों में सम्मिलित किया है।

पांचाल-

उत्तर वैदिक काल से पांचाल राज्य दो भागों में विभक्त था-उत्तर पांचाल जिसकी राजधानी अहिच्छत्र थी, तथा काम्पिल्य दक्षिण पांचाल की राजधानी कही गई है समस्त रुहेलखण्ड एवं गंगा-यमुना के पूर्वी भाग अर्थात् आधुनिक पश्चिमी उत्तर प्रदेश इसी जनपद के अन्तर्गत थे। हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में चंबल नदीह, पूर्व में कोशल एवं पश्चिम में कुरु जनपद इसकी सीमायें निर्धारित करते थे। महाभारत में इसका उल्लेख मिलता है, द्रौपदी पांचाल नरेश द्रुपद की पुत्री थी, उसे पांचाली भी कहा जाता था। प्रसिद्ध कन्नौज नगर इसी जनपद में स्थित था। पांचाल एक राजतंत्र था किन्तु संभवतः कौटिल्य के समय तक यहाँ भी गणराज्य की स्थापना हो गई थी। ब्रह्मदत्त इस राज्य का प्रतापी शासक था। महाउमग्ग जातक, उत्तराध्ययन सूत्र, स्वप्नवासवदत्ता में इसका उल्लेख मिलता है। उसे उत्तराध्ययन सूत्र में पृथ्वी का महान राजा कहा गया, इसी ग्रंथ में काम्पिल्य के राजा संजय द्वारा राज्य त्याग कर जैन धर्म स्वीकार किये जाने का विवेचन आया है।

मत्स्य-

इस जनपद में आधुनिक जयपुर, भरतपुर तथा अलवर क्षेत्र सम्मिलित थे। कनिंघम ने इसकी राजधानी विराट् (आधुनिक वैराठ) होने का उल्लेख किया है। संभवतः विराट् नामक संस्थापक राजा के नाम से इसकी राजधानी विराट नगर के नाम से प्रसिद्ध हुई। साहित्यिक ग्रंथों में अपर मत्स्य, वीर मत्स्य आदि के विवरण मिलते हैं, संभवतः ये मूल राज्य की प्रशाखायें रही होंगी महाभारत में राजा ‘सहज’ का वर्णन आया है जिसे चेदि तथा मत्स्य का शासक कहा गया । बौद्ध साहित्य में इस राज्य का उल्लेख नहीं मिलता, ऐसा प्रतीत होता है कि मत्स्य इस काल में चेदि का अधीनस्थ राज्य हो गया था। बाद में इसे मगध साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।

शूरसेन-

कुरु जनपद के दक्षिण एवं चेदि के पश्चिमोत्तर क्षेत्र में स्थित था। इसकी राजधानी मथुरा थी, यहाँ पूर्व में यदुवंशी (यादव), अन्धक वृष्णियों का गणराज्य था। महाभारत काल में मथुरा एक महत्वपूर्ण नगर था, श्रीकृष्ण का जन्म यादव वंश में हुआ। शूरसेन नरेश ‘अवन्ति’ महात्मा बुद्ध का अनुयायी था, उसने अपने राज्य में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करवाया। इसे बुद्ध का समकालीन बताया जाता है। अवन्ति पुत्र के नाम से प्रतीत होता है कि मथुरा एवं अवन्ति के मध्य वैवाहिक सम्बन्ध थे। पाणिनि ने अन्धक तथा वृष्णिजन का निवास स्थान मथुरा कहा है।

गान्धार-

भारत के पश्चिमोत्तर भाग (जिसे उत्तरापथ भी कहा जाता है) में गांधार जनपद स्थित था। यह आधुनिक अफगानिस्तान के पूर्व, पश्चिम पंजाब का अधिकांश क्षेत्र, आधुनिक पेशावर तथा रावलपिंडी तक विस्तृत था। एक जातक में कश्मीर भी इसमें सम्मिलित किया गया।

बौद्ध साहित्य में इसकी राजधानी तक्षशिला कही गई। यह नगर उस काल में विद्या एवं व्यापार का प्रसिद्ध केन्द्र था। दूर-दूर से विद्यार्थी यहाँ विद्याध्ययन करने आते थे। जातकों से विदित होता है कि देश के विभिन्न स्थानों से छात्र वहाँ जाकर आचार्यों के सान्निध्य में रहकर शिल्प का ज्ञान प्राप्त करते थे। पाटलिपुत्र निवासी जीवक ने तक्षशिला में जाकर अध्ययन किया जो कालान्तर में आयुर्वेद का महान विद्वान बना। वह महात्मा बुद्ध का समकालीन था। कोशल नरेश प्रसेनजित, मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त महान राजनीतिज्ञ कौटिल्य ख्यातिलब्ध वैध जीवक, वैयाकरण पाणिनि और पंतजलि यहां से शिक्षा ग्रहण करके अपने-अपने क्षेत्र में विख्यात हुए थे।

ईसा पूर्व छठी शताब्दी में गंधार में पुष्कर सारिन राज्य करता था। इसका अवन्ति शासक चण्ड प्रद्योत से संघर्ष हुआ एवं उसे युद्ध में परास्त किया। मगध के साथ उसके अच्छे सम्बन्ध थे, मगध में उसने अपना राजदूत भी भेजा था।

काम्बोज-

उत्तरापथ में ही स्थित, आधुइक राजोरी एवं हजारा जिलों में प्राचीन काम्बोज राज्य सीमित था। कुछ विद्वानों के अनुसार यह जनपद गंधार के उत्तर पश्चिम क्षेत्र तक विस्तृत था एवं गन्धार के समीपवर्ती पामीर एवं बादखशां इसमें सम्मिलित थे। इसकी राजधानी हाटक अथवा राजापुर कही गई है। बौद्ध ग्रन्थों में गांधार-काम्बोज का नामोल्लेख साथ-साथ हुआ है। कौटिल्य से पूर्व यहाँ राजतंत्र था परन्तु मौर्यकाल तक यहाँ संघ राज्य की स्थापना हो गई थी।

अश्मक-

गोदावरी नदी के तट पर स्थित ‘पोतन’ या ‘पोटली’ अश्मक की राजधानी कही गई है। पुराणों से ज्ञात होता है कि इस राज्य के शासक इक्षवाकु वंश के थे। अश्मक एवं मूलक प्रदेशों को पड़ोसी राज्य माना गया है। किसी समय यह काशी जनपद के अधीन थी। अश्मक नरेश प्रवर अरुण एवं उसके मंत्री नन्दिसेन का उल्लेख चुल्लकलिंग जातक में मिलता है, जिसने कलिंग पर विजय प्राप्त कर अपने अधीन कर लिया था। दीघनिकाय के महागोविंदसुत्त में विवरण मिलता है कि रेणु नामक सम्राट के ब्राह्मण पुरोहित महागोविन्द ने अपने साम्राज्य को सात अलग-अलग भागों में विभक्त किया जिसमें अश्मक भी एक था। प्राग् बौद्ध काल में इसका अवन्ति के साथ संघर्ष हुआ और इसे अवन्ति राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।

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Pankaja Singh

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