शिक्षाशास्त्र

छात्र आक्रोश की समस्या | छात्र आक्रोश की समस्या के कारण | छात्र आक्रोश की समस्या के समाधान हेतु सुझाव

छात्र आक्रोश की समस्या | छात्र आक्रोश की समस्या के कारण | छात्र आक्रोश की समस्या के समाधान हेतु सुझाव

छात्र आक्रोश की समस्या

(Problem of Student Unrest)

प्रायः लोग छात्र अनुशासनहीनता और छात्र और आक्रोश को एक ही अर्थ में लेते हैं, परन्तु इन दोनों में बड़ा अन्तर है। संसार का इतिहास बताता है कि किसी भी समय किसी भी देश में जो भी सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तन हुए हैं वे युवा शक्ति के द्वारा हुए हैं । जब युवक अपनी वर्तमान सामाजिक अथवा राजनैतिक व्यवस्थाओं से सन्तुष्ट नहीं होते तो उनके मन में उसके विरुद्ध बेचैनी उत्पन्न होती है, आक्रोश पैदा होता है और जब यह आक्रोश बढ़ता है तो सामाजिक और राजनैतिक क्रान्तियाँ होती हैं, सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तन होते हैं और यह क्रम निरन्तर चलता आ रहा है। उच्च शिक्षा के छात्र युवावस्था के होते हैं, उनके मन में सामाजिक और राजनैतिक अव्यवस्थाओं के प्रति कहीं न कहीं आक्रोश छिपा रहता है और यदि वे शिक्षा संस्थाओं में भी अव्यवस्था देखते हैं तो उनके मन में उनके प्रति आक्रोश पैदा हो जाता है और यह आक्रोश तो अनुशासित छात्रों में भी उत्पन्न होता है। तब स्पष्ट है कि शिक्षा संस्थाओं के नियमों का पालन न करना छात्र अनुशासनहीनता है और शिक्षा संस्थाओं की कमियों के प्रति सचेत होना छात्र आक्रोश है। छात्र आक्रोश लाभकारी परिवर्तन चाहता है और छात्र अनुशासनहीनता अराजकता फैलाती है, अलाभकारी स्थिति पैदा करती है।

पर जब छात्र आक्रोश अनुशासनहीनता में बदल जाता है तो हानिकारक होता है। आज हम देख रहे हैं कि युवा छात्र वर्तमान उच्च शिक्षा व्यवस्था से सन्तुष्ट नहीं हैं, उनमें उसके प्रति आक्रोश है। राजनैतिक छात्र नेता इसका लाभ उठाते हैं, उन्हें आन्दोलनों और तोड़-फोड की ओर मोड़ देते हैं, समूह मनोविज्ञान काम करता है और अनुशासित छात्र भी उसमें शामिल हो जाते हैं। यही कारण है कि सामान्य व्यक्ति छात्र अनुशासनहीनता और छात्र आक्रोश को एक ही अर्थ में लेते हैं।

छात्र आक्रोश की समस्या के कारण

(Causes of Problem of Student Unrest)

हमारे देश में जितने भी शिक्षा आयोगों और उच्च शिक्षा समितियों का गठन हुआ और जितने भी कुलपतियों के सम्मेलन हुए प्रायः सभी ने छात्र आक्रोश और छात्र अनुशासनहीनता को एक ही रूप में लिया है और उसका मुख्य कारण यही है कि छात्र आक्रोश प्रायः छात्र अनुशासनहीनता में बदल जाता है और जो छात्र आक्रोश के कारण होते हैं उन्हें हम छात्र अनुशासनहीनता के कारण मानने लगते हैं, पर थोड़ा दृष्टि भेद का अंतर है-

(1) प्रशासनिक कारण- आज सभी उच्च शिक्षा संस्थाओं में शिक्षण शुल्क 10 गुना तक बढ़ा दिया गया है। परिणाम यह है कि इनमें या तो धनी युवक प्रवेश ले पाते हैं या आरक्षित युवक । सामान्य आर्थिक स्थिति के जो छात्र प्रवेश लेते हैं उनमें इस व्यवस्था के प्रति आक्रोश होना स्वाभाविक है। दूसरी तरफ प्रवेश में जाति और धर्म के नाम पर आरक्षण है। अधिकतर छात्रवृत्तियाँ भी जाति और धर्म के नाम पर दी जाती हैं। इससे अलाभान्वित छात्रों में असन्तोष पैदा होता है, आक्रोश पैदा होता है। हमारे देश में 90 के दशक में इसके विरोध में छात्रों ने आत्मदाह तक किया था। और एक अन्य बात यह है कि आरक्षित छात्र और अधिक आरक्षण और छात्रवृत्तियाँ चाहते हैं इसलिए उनके मन में भी असन्तोष है, आक्रोश है।

(2) सामाजिक कारण- वैसे तो हम सामाजिक समानता की बात करते हैं, परन्तु इस बीच सामाजिक भेद-भाव और अधिक बढ़ा है। क्या हुआ यदि हमने शूद्रों को अनुसूचित जाति की संज्ञा दे दी। समाज एक बड़े वर्ग को पिछड़ा कहकर उसके आत्मविश्वास को समाप्त करना, पता नहीं किस साजिश के तहत किया जा रहा है। युवाओं में यह वर्ग भेद बड़ी बेचैनी उत्पन्न कर रहा है और बड़ा आक्रोश पैदा कर रहा है, विशेषक पिछड़ी और अनुसूचित जाति के युवक छात्र-छात्राओं में।

(3) शैक्षिक कारण- उच्च शिक्षा छात्रों के असन्तोष एवं आक्रोश के मुख्य कारण शैक्षिक ही हैं, यथा-शिक्षा संस्थाओं में संसाधनों की कमी, योग्य, ईमानदार और कर्त्तव्यनिष्ठ शिक्षकों की कमी, पढ़ने-पढ़ाने के माहौल की कमी और प्रायोगिक परीक्षाओं में भारी पक्षपात आदि । इस सबसे छात्रों में असन्तोष एवं आक्रोश होना स्वाभाविक है।

(4) राजनैतिक जागरूकता-इस बीच देश में राजनैतिक जागरूकता का विकास हुआ है, प्रत्येक युवक अपने अधिकारों को अवश्य जानने लगा है, भले ही अपने कर्तव्यों को न पहचानता हो। वह भारी फीस देकर उत्तम शिक्षा व्यवस्था चाहने लगा है और जब उसे यह सुलभ नहीं होती तो आक्रोश की उत्पत्ति होती है।

छात्र आक्रोश की समस्या के समाधान हेतु सुझाव

(Suggestions for solving the Problem of Student Unrest)

इसे रोकने के वही उपाय बताए गए हैं जो छात्र अनुशासनहीनता के सन्दर्भ में स्पष्ट किए गए हैं। हमारी दृष्टि से उन उपायों को भी थोड़े दृष्टि भेद के अन्तर से प्रयोग करना होगा-

(1) सरकार में बैठे लोगों को वोट की राजनीति छोड़कर राष्ट्रहित की राजनीति करनी चाहिए। शिक्षा के क्षेत्र में किसी भी प्रकार का आरक्षण अथवा आर्थिक सहायता, क्षेत्र जाति अथवा धर्म के नाम पर न देकर निर्धनता, बुद्धिलब्धि, योग्यता और कार्य क्षमता के आधार पर देनी चाहिए। इससे कई लाभ होंगे। पहला यह कि समान व्यवहार से सभी सन्तुष्ट होंगे। दूसरा यह कि उस स्थिति में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के योग्य छात्र ही लाभान्वित होंगे और तीसरा यह अनुसूचित जाति और जनजातियों के छात्रों में हीनता की भावना का विकास नहीं होगा।

(2) शिक्षा संस्थाओं में क्षेत्र, जाति और धर्म के नाम पर किए जाने वाले वर्ग भेद को तुरन्त समाप्त किया जाए। जब यह शिक्षा संस्थाओं में समाप्त होगा तो धीरे-धीरे समाज से अपने आप समाप्त हो जाएगा। उस स्थिति में युवक उच्च शिक्षा संस्थाओं में पूर्व कुण्ठाओं के साथ प्रवेश नहीं लेंगे, उनमें सामाजिक व्यवस्था के प्रति किसी प्रकार के आक्रोश की उत्पत्ति नहीं होगी।

(3) युवक छात्रों को भविष्य की गारण्टी होनी चाहिए। यह तभी सम्भव है जब उच्च शिक्षा नियन्त्रित हो और देश की माँग के अनुसार हो। इसके लिए सरकार बात तो हमेशा करती आ रही है पर अमल अभी तक नहीं कर पाई है। आवश्यकता है इसको अमल में लाने की।

(4) शिक्षा संस्थाओं को साधन सम्पन्न किया जाए, उनमें योग्य, ईमानदार और कर्त्तव्यनिष्ठ प्राचार्य एवं शिक्षक नियुक्त किए जाएँ, उनमें पढ़ने-पढ़ाने का माहौल सुनिश्चित किया जाए और इसके लिए प्राचार्य एवं शिक्षकों की जवाबदेही निश्चित की जाए, प्राइवेट ट्यूशनों पर रोक लगाई जाए, परीक्षाओं में होने वाले पक्षपात पर कड़ी नजर रखी जाए और सभी छात्रों के साथ बिना किसी भेद-भाव के समान एवं सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार किया जाए। साथ ही शिक्षा संस्थाओं में छात्र कल्याण योजनाएं चलाई जाएँ।

(5) देश में अधिकारों की माँग के साथ-साथ कर्त्तव्य भावना का विकास किया जाए। यह भावना केवल उपदेशों से विकसित नहीं की जा सकती. इसके लिए आवश्यक है कि सर्वप्रथम शासन में बैठे सत्ताधारी लोग इसका पालन करें। उस स्थिति में प्रशासन में बैठे लोग बलात् उसका पालन करेंगे और नीचे के व्यक्ति तो उस स्थिति में कर्त्तव्यविमुख होने का साहस ही नहीं कर सकेंगे।

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Pankaja Singh

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