नगरीय परिवारों के बदलते हुए स्वरूप | नगरीय परिवारों के बदलते हुए स्वरूप उनकी समस्याओं पर विचार | नगरीय परिवार की समस्याएँ

नगरीय परिवारों के बदलते हुए स्वरूप | नगरीय परिवारों के बदलते हुए स्वरूप उनकी समस्याओं पर विचार | नगरीय परिवार की समस्याएँ | Changing nature of urban families in Hindi | Thoughts on the changing nature of urban families and their problems in Hindi |Urban family problems in Hindi

नगरीय परिवारों के बदलते हुए स्वरूप

परिवारों में विशेष रूप से नगरीय परिवारों में परिवर्तन की गति बढ़ती जा रही है। उनके कार्यों व संरचना में भी परिवर्तन हो रहे हैं।

इस प्रकार उन कारकों के सम्बन्ध में अध्ययन करना होगा, जो इस परिवर्तन के लिए उत्तरदायी हैं। नगरीकरण, औद्योगीकरण, जनसंख्या वृद्धि, महिला आन्दोलन, यातायात व संचार साधनों की व्यापकता, सामाजिक असुरक्षा की भावना, राज्य के कार्यों में वृद्धि, भ्रष्टाचार, औषधियों में नवीन आविष्कार, संतति-निग्रह, धर्म के प्रति अनादर, स्त्रियों को प्रत्येक क्षेत्र में प्रदान की जाने वाली स्वतन्त्रता इत्यादि अनेकों ऐसे कारक हैं, जिन्होंने नगरीय परिवारों में परिवर्तन को प्रोत्साहन दिया है। परिवार में हो रहे परिवर्तन को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-

(1) परिवार की संरचना (Structure) में परिवर्तन।

(2) परिवार के प्रकार्यो (Functions) में परिवर्तन ।

(1) परिवार की संरचना में परिवर्तन- परिवार एक संगठित इकाई के रूप में होते हैं। पहले परिवार एक समूह के रूप में होते थे, इसके पश्चात् संयुक्त परिवार अस्तित्व में आये। आज परिवारों के रूप परिवर्तित होने लगे हैं। आर्थिक अस्थिरता, व्यक्तिगत विचारधारा, पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव, बेहतर रहन-सहन की लालसा, आजीविका के बेहतर आयाम व्यक्ति को संयुक्त परिवार से अलग होने के लिए प्रेरित करते हैं। परिवार नियोजन के प्रति आकर्षण ने भी परिवारों को सीमित करने में योगदान प्रदान किया है।

(2) पति-पत्नी के सम्बन्धों में परिवर्तन- भारतीय सभ्यता में पति को परमेश्वर माना जाता था। पति यदि पत्नी के प्रति निष्ठुर हो जाये व उसके साथ क्रूर व्यवहार करे तो भी पत्नी अपने पति की हर इच्छा का सम्मान करते हुए आज्ञापालक रहती थी। पति के समक्ष कभी अपनी जुबान नहीं खोलती थी। नगरीयता से प्रभावित स्त्रियाँ अब शिक्षा प्राप्त कर समाज के प्रत्येक क्षेत्र में अग्रसर हो रही है। अब नारी स्वयं को दासी मानने को तैयार नहीं, अब तो वह पुरूषों के समान अपने अधिकारों की माँग करने लगी हैं। पति से तनिक भी अनबन होने पर पत्नी सम्बन्ध विच्छेद करने को प्रेरित हो जाती है। तलाक हो जाते हैं। पत्नी का घर अलग बन जाता है।

(3) पिता के आधिपत्य का ह्रास – अब पिता की सन्तानें पिता के प्रत्येक आदेश व नियम को पालन करने में अधिनायकवादी प्रवृत्ति की संज्ञा देते हैं। अब संतान चाहती है कि परिवार में पिता का निरंकुश शासन नहीं होना चाहिए। परिवार में भी प्रजातंत्र का पुट आ गया है। विशेष रूप से नगरीय परिवार के सभी छोटे-बड़े सदस्यों की इच्छा होती है कि हम सबसे राय लेकर निर्णय लिये जायें। परिवार के समस्त कार्य सहमति से हों। सामंजस्य बिगड़ने पर परिवार खंडित होने लगते हैं। बंटवारे होने लगते हैं।

(4) परिवार के मौलिक कार्यों में हस्तांतरण- परिवार के मौलिक कार्य यौन सम्बन्धी इच्छाओं की पूर्ति, सन्तानोत्पत्ति, बच्चों का पालन-पोषण, परिवार की आर्थिक व्यवस्था का निर्माण इत्यादि माने जाते थे अब इनमें भी परिवर्तन होने लगता है। यौन सम्बन्धी इच्छाओं की पूर्ति के लिए पहले मानव अपने परिवार तक ही सीमित था। मर्यादा का पालन होता था। अब व्यक्ति मर्यादाओं का उल्लंघन करने लगे हैं। पाश्चात्य सभ्यता एवं फैशन के प्रचलन के कारण मानव को यौन इच्छाओं की पूर्ति के लिए होटलों की कॉल गर्ल, कई प्रकार के मनोरंजन क्लब, वेश्यालय इत्यादि की ओर प्रेरित होता देखा जा रहा है। बच्चों को भी मातृत्व गृह (Maternity home) तथा आवासीय विद्यालयों के छात्रावास में प्रविष्ट कराकर माता-पिता केवल धन व्यय करना ही संतान के प्रति अपना उत्तरदायित्व मानकर स्वयं को मुक्त अनुभव करने लगे हैं। परिवार में कई मौलिक कार्य भी परिवार से अन्य संस्थाओं में स्थानांतरित होने लगे हैं।

(5) स्त्रियों की स्वतन्त्रता में वृद्धि- स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् से ही देश में स्त्रियों के अधिकारों में वृद्धि का दौर आरम्भ हो गया। सर्वप्रीम पं० नेहरूजी के प्रधानमंत्रित्व-काल में सरकार ने संसद में हिन्दू कोड बिल व शारदा एक्ट के द्वारा महिलाओं को सम्पत्ति सम्बन्धी व उनके वैवाहिक जीवन सम्बन्धी अधिकार दे डाले। उसके पश्चात् भी देश में आने वाली सरकारें समय-समय पर महिलाओं को स्वतन्त्र अधिकार प्रदान करती रहीं। देश में सरकारी नौकरियों में महिलाओं को आरक्षण देने की प्रक्रिया विद्यमान है। शासन में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए जिला स्तर तक स्थानीय संस्थाओं, जैसे- ग्राम पंचायत, नगर पंचायत, नगर परिषद, महापालिकाएँ, जिला पंचायत, परिषदों व सरकारी संस्थाओं में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित कर दी गई हैं। अब इन संस्थाओं में तीस प्रतिशत पदों पर महिलाओं का आधिपत्य है। निजी क्षेत्र में भी महिलाएँ नौकरी कर रही हैं। शिक्षा में महिलाएं पुरुषों से भी आगे निकल गई हैं। शिक्षा बोर्डों के परीक्षा परिणाम हों या विश्वविद्यालयों के, महिलाओं का सफलता प्रतिशत पुरूषों से ऊपर होता है, व्यवसाय में चाहे व्यापार हो या तकनीकी, ड्रॉक्टरी हो या शैक्षिकी, महिलाओं पुरूषों से पीछे नहीं हैं। परिवार में स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन आया है। अब परिवार पुरूष की इच्छा व आदेश से नहीं चलता। या तो स्त्री-पुरूष दोनों की संयुक्त इच्छा से अथवा स्त्रियों की इच्छा से पारिवारिक कार्य सम्पन्न होते है। परिवार में पति-पत्नी की इच्छाओं में टकराव की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है। महिलाएँ आँख मूंदकर पति के आदेश का पालन कर ले, यह अब सम्भव नहीं रहा।

(6) सत्ता का ह्रास- परिवार में एक मुखिया होता था। परिवार का वरिष्ठतम आयु का सदस्य परिवार के कार्यों का संचालन करता था। प्रत्येक कार्य उसकी राय से होता था। परिवार के सब सदस्य उसका आदेश पालन करते थे। कोई भी सदस्य मर्यादा उल्लंघन का साहस नहीं कर पाता था। परन्तु आज मुखिया के हाथ में परिवार की सत्ता नहीं है। वह सत्ता जो परिवार में मुखिया के हाथ में होती थी, आज वह खिसककर परिवार में अन्य लोगों के हाथ में चली गयी है।क्षएक प्रकार से सत्ता बिखर गई है। जहाँ मुखिया का आदेश परिवार के समस्त सदस्य मानते थे, अब मुखिया को उनरके आदेश के आगे नतमस्तक होना पड़ता है।

(7) स्थायित्व का अभाव- परिवार एक पूर्णरूपेण स्थायी संस्था थी। परिवार के सभी छोटे-बड़े सदस्य एकसूत्र में बंधे हुए थे। अब परिवार स्थायी नहीं रहे। कुछ दिन पूर्व तक का वह संयुक्त परिवार आज बिखरता नजर आ रहा है। परिवार के छोटे-छोटे टुकड़े होने लगे हैं। कुछ तो औद्योगीकरण के कारण रोजगार के लिए परिवार के सदस्यों को परिवार छोड़कर जाना पड़ता है। शिक्षा का प्रसार भी हुआ है। अतः अच्छी शिक्षा प्राप्त करने के बाद नौकरियों के लिए भी घर छोड़ने पड़ते हैं, जहाँ नौकरियां मिलें, वहीं घर बस जाते हैं। एक घर के कई घर हो जाते हैं। एक कारण और भी है- अनुशासनहीनता व असहिष्णुता भी परिवार के विघटन के कारण है। प्रायः नगरों में तो संयुक्त परिवार के विघटन के कारणों में यह कारण प्रमुख है। परिवार के आधार को पवित्र माना जाता था। अब वह पवित्रता समाप्त होती जा रही है।

(8) नैतिकता का अभाव नैतिक मूल्यों में कमी नगरों में ग्रामों की अपेक्षा अधिक आई है। परिवर्तन के नाम पर नैतिकता समाप्त होती जा रही है। फैशन व पाश्चात्य सभ्यता ने नैतिक मूल्यों में गिरावट उत्पन्न कर दी। विवाह एक पवित्र बन्धन माना जाता था, परन्तु अब ऐसा नहीं रहा। विवाह को अब एक समझौता माना जा रहा है, जो यौन सम्बन्धों की अनुमति प्रदान करता है, बढ़ते हुए तलाक व पुनर्विवाह पत्नीव्रत पतिव्रत धर्म की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं। बलात्कार, जिसे हम घोर अनर्थ मानते थे, आज एक सामाजिक या व्यक्तिगत गलती करार दिया जाता है।

(9) राज्य का नियन्त्रण राज्य के हस्तक्षेप भी परिवार को अस्थिर कर रहे हैं। तलाक तथा पुनर्विवाह पर राज्य का संरक्षण संतानोत्पति पर राज्य का नियन्त्रण, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा पर, नौकरियों पर राज्य की आरक्षण नीति का प्रभाव, यह सब परिवारों में अस्थिरता उत्पन्न कर रहे हैं।

(10) नातेदारी के महत्व का घटना- परिवारों में रिश्तेदारी व नातेदारी का बहुत महत्व होता था। रिश्तेदारों को बहुत सम्मान दिया जाता था। वैवाहिक आदि कई पारिवारिक अवसरों पर नातेदारों से सलाह-मशविरा व सहयोग प्राप्त करके कार्य सम्पन्न किये जाते थे। किसी प्रकार के संकट की घड़ी में नातेदारों के मध्य सहयोग का आदान-प्रदान होता था। आज ऐसा नहीं हो रहा है। रिश्तेदारों से सलाह लेने के बजाय कोई भी कार्य करने से पूर्व उनसे गोपनीय रखा जाता है। बजाय सहयोग देने के आँख बचाकर निकल जाते हैं। नातेदारी के सम्बन्ध भी प्रायः नाममात्र को ही रह गये हैं।

(11) परिवार की अर्थव्यवस्था में परिवर्तन- पहले परिवार आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ होते थे। परिवार संयुक्त थे। परिवार के सभी सदस्य पुरूष हों या महिला, मिल-जुलकर कृषि, पशु-पालन या अन्य जो भी व्यावसायिक कार्य उस परिवार में होता हो, करते थे। समस्त लोगों की अर्जित आय का एक ही हाथ में एकत्रित होती थी और वहीं से व्यय की जाती थी, पर अब ऐसा नहीं रहा। सभी सदस्य जो अर्जित करते हैं, अपनी-अपनी जेब में रखते हैं तथा अपनी व्यक्तिगत आवश्यकता एवं रूचि के अनुसार व्यय करते हैं। इस प्रकार व्यय अधिक होने लगे। जितने चूल्हे होंगे, उतना ही व्यय गुणात्मक रूप से बढ़ता जायेगा। परिवार की अर्थव्यवस्था इस प्रकार असंतुलित हो जायेगी।

(12) धार्मिक भावना में कमी- प्रत्येक परिवार में नित्य प्रति नियमानुसार पूजा, हवन इत्यादि होते थे। एक इष्ट होता था, सम्पूर्ण परिवार उस इष्ट देवी या देवता की पूजा करते थे। अब परिवारों में प्रायः धार्मिक भावना अध्यात्मिक रूप से समाप्त होती जा रही है, केवल दिखावा मात्र रह गया है। उस पर भी मत इतने अधिक हो गये व परिवार में अनुशासन व एकता की कमी के कारण एक ही परिवार के सदस्यों की धार्मिक आस्था अलग-अलग हो गई। पहले प्रायः सनातनधर्मी अथवा आर्यसमाजी ही होते थे। यही भी परिवार में एक मत का आधार था कि या तो सनातन धर्म को मानेंगे या आर्य समाज को, अतः सम्पूर्ण परिवार एक ही मत को मानता था।

अब ऐसा नहीं रहा। एक ही परिवार में कोई राधास्वामी हो गया, कोई आशाराम बापू का शिष्य तो कोई साईं बाबा का अनुयायी, कोई वैष्णो देवी का भक्त तो कोई सतपाल महाराज जी का अनुयायी। प्रत्येक घर में अब अलग-अलग  धार्मिक मत माने जाने लगे। सब मिलकर एक पूजा या हवन में नहीं बैठ सकते। इस प्रकार आज परिवार की धार्मिक एकता विच्छिन्न हो गई। धर्म की बजाय तर्क को अधिक मान्यता दी जाने लगी।

(13) सामाजिक व सांस्कृतिक कार्यों में परिवर्तन- त्योहार एवं उत्सव-पर्व समस्त परिवार मिल-जुलकर मनाता था। जो सांस्कृतिक कार्यक्रम परिवार में होते थे। सभी सदस्य मिल-जुलकर मनाते थे। अब सबकी रूचि भिन्न-भिन्न हो गई। परिवार में एक-दूसरे पर कोई नियंत्रण भी नहीं रहा। परिवार बिखरा हुआ हो गया। तीज-त्योहार पर सब लोग एकत्रित भी नहीं हो पाते। सबकी अपनी अपनी विवशताएँ हैं। व्यावसायिक अवकाश नहीं मिलता। पारिवारिक-बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान आता है। इसलिए परिवार में सब लोग सम्मिलित रूप से उत्सव-त्योहार नहीं मना पाते। परिवार में बिखराव के कारण सामाजिक दायित्व निभाने में भी कठिनाई आने लगी। परिवार संयुक्त होता था तो सामाजिक कार्यों में सहयोग देने के लिए परिवार में कुछ लोग या कोई-न-कोई अपना समय निकाल लेता था। अब सब अलग-अलग हो गये। अकेला व्यक्ति अपने घर को देखे या समाज को। इसलिए सामाजिक उत्तरदायित्व निभाने में भी परिवार का योगदान शिथिल हो गया।

(14) परिवार के मनोरंजन कार्यक्रमों में परिवर्तन- परिवार के सब सदस्य मिल-जुलकर बैठते थे, वह आपस में गप-शप, हास-परिहास कर समय काट लिया करते थे। अब परिवार भी छोटे रह गये। भौतिकवाद की दौड़ में व्यक्ति भी इतने व्यस्त हो गये कि गाप-शप के लिए समय ही नहीं रहा। बच्चों को दुलार प्यार करते थे, किस्से कहानियाँ सुनाते थे, पौराणिक ग्रन्थों की कथाएँ व दृष्टान्त आदि सुनाया करते थे। अब सब कुछ बदल गया- न कोई सुनाता है, न कोई सुनना ही चाहता है। मनोरंजन के लिए क्लब, होटल, सिनेमा, पिकनिक पर्यटन स्थलों आदि में जाना पसंद करेंगे। यदि घर में ही बैठना पड़े तो टी०वी० या वी०सी०आर० व सी०डी० देखकर समय व्यतीत करेंगे।

व्यक्ति नगरों में इतना अधिक व्यस्त हो गया है कि उसकी पूर्व की दिनचर्या बिल्कुल बदल गई। कुछ लोग तो रात्रि में केवल घर में सोने के इरादे से ही आते हैं, जैसे कोई रैन बसेरा हो और प्रातः उठते ही फिर आजीविका के लिए घर से निकल पड़ते हैं।

नगरीय परिवार की समस्याएँ

नगरीय परिवार की प्रमुख समस्याएँ इस प्रकार हैं-

(1) सीमित आकार के फलस्वरूप उत्पन समस्याएँ, (2) परिवार की अस्थिरता (3) विवाह संस्था में परिवर्तन (4) स्त्रियों द्वारा नौकरी करना, (5) बालकों का पालन-पोषण (6) परिवार के कार्यों में परिवर्तन (7) पति-पत्नी के सम्बन्ध में परिवर्तन (8) विवाह-विच्छेद की दर में वृद्धि (9) रक्त सम्बन्धों की उपेक्षा।

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