
बुनियादी शिक्षण प्रतिमान | Basic Teaching Model in Hindi
बुनियादी शिक्षण प्रतिमान (Basic Teaching Model) :
मुख्यतः आधारभूत शिक्षण प्रतिमान, प्राथमिक शिक्षण प्रतिमान, मनोवैज्ञानिक प्रतिमान, कक्षा सभा प्रतिमान, मौलिक शिक्षण प्रतिमान आदि नामों से पुकारा जाता है। इसके प्रतिपादक राबर्ट ग्लेसर हैं इन्होंने 1962 में इसका प्रतिपादन किया। ग्लेसर ने इसे प्रमुख रूप से वास्तविक कत्सा (Reality Therapy) के आधार पर वर्णित किया है। ज्वायस एवं वील ने इसी शिक्षण प्रतिमान को कक्षीय गोष्ठी प्रतिमान (Class room meeting teaching model) कहा है। इसमें व्यक्तिगत गुणों के विकास पर विशेष जोर दिया जाता है।
ग्लेसर महोदय ने इस प्रतिमान में मनोवैज्ञानिक नियमों और सिद्धान्तों का शिक्षण प्रक्रिया में प्रयोग किया है। इसमें सबसे अधिक बल पृष्ठ पोषण पर दिया जाता है। इस प्रतिमान में यह मानकर चलना होता है कि “शिक्षण वह विशेष क्रिया है जो अधिगम की उपलब्धि पर केन्द्रित होती है और इस प्रकार उन क्रियाओं का अभ्यास किया जाता है जिससे छात्रों का बौद्धिक एकीकरण और उनके स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता पहचानी जाती है।” यह कहना है डॉ. कुलश्रेष्ठ का उन्होंने अपनी पुस्तक शैक्षिक तकनीकी के मूल तत्व में उल्लेख किया है।
ग्लेसर महोदय का कहना है कि सप्ताह में कम से कम एक बार कक्षा सभा का आयोजन एक कालांश अर्थात् 30 से 40 मिनट की अवधि तक किया जाना चाहिये। छात्रों की निष्पत्ति के स्तर को उच्च स्तर तक लाने के लिए प्रमुखतः पुरस्कार एवं दण्ड की व्यवस्था आवश्यक है अर्थात् प्यार एवं अनुशासन के अभाव में छात्रों का निष्पत्ति स्तर निम्न होता चला जाता है।
इस शिक्षण प्रतिमान में शिक्षण प्रक्रिया को निम्नलिखित चार भागों में विभाजित किया जाता है-(1) अनुदेशनात्मक लक्ष्य (Instructional Objectives)- अनुदेशनात्मक लक्ष्य से तात्पर्य उन क्रियाओं से है जो शिक्षक एवं शिक्षार्थी को शिक्षण से पूर्व निर्धारित की जाती हैं। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है शिक्षण व विद्यार्थियों के उद्देश्यों को अनुदेशात्मक उद्देश्य कहते हैं। इसके अन्तर्गत हमें यह पता चलता है कि अनुदेशनात्मक उद्देश्यों को व्यावहारिक कथनों में परिवर्तित कर किस प्रकार लिखा जा सकता है। इस प्रक्रिया को कार्य विवरण भी कहते हैं। इसके द्वारा स्कूल, शिक्षक तथा शिक्षार्थी के निर्धारित उद्देश्य में अन्तर किया जा सकता है अर्थात् उद्देश्यों में विमेदीकरण किया जाता है। ये उद्देश्य सीखने की सीमा का बोध कराते हैं और शिक्षक इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शिक्षण कार्य करता है तथा साथ ही यह शिक्षण को एक निश्चित दिशा प्रदान करते हैं।
(ii) पूर्व व्यवहार (Entering Behaviour)- शिक्षण कार्य शुरू करने से पूर्व बालक के विषय वस्तु से सम्बन्धित पूर्वज्ञान, बुद्धि का स्तर एवं सीखने की योग्यताओं का पता किया जाता है और सम्पूर्ण शिक्षण प्रक्रिया इसी पर आधारित होती है। इसी को ध्यान में रखकर शिक्षण कार्य करता है। अनुदेशनात्मक उद्देश्यों का पूर्व व्यवहार से घनिष्ठतम सम्बन्ध होता है। पूर्व ज्ञान पाठ्यवस्तु की बोध गम्यता हेतु आवश्यक है।
(iii) अनुदेशनात्मक प्रक्रिया (Instructional Process) – इस स्तर पर शिक्षण पाठ्यवस्तु (प्रकरण), शिक्षण उद्देश्य एवं शिक्षक-शिक्षार्थी की क्रियाओं का निर्धारण करता है एवं उचित अधिगम स्थितियाँ पैदा करने हेतु उचित विधि-प्रविधि, उदाहरण, दृष्टान्त, शिक्षण सहायक सामग्री आदि का भी निर्धारिण इसके अन्तर्गत किया जाता है एवं इनके प्रयोग की योजना बनाता है।
अर्थात् पाठ्यवस्तु के प्रभावी प्रस्तुतीकरण के लिए अनुदेशात्मक प्रक्रिया प्रयुक्त की जाती है। इसी के अन्तर्गत अधिगम अनुभव प्रदान किये जाते हैं। यह शिक्षण की अन्तः क्रिया अवस्था होती है।
(4) निष्पत्ति का मूल्यांकन (Performance Assessment)- निष्पत्ति अथवा निष्पादन मूल्यांकन का प्रमुख उद्देश्य होता है अनुदेशात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति की सीमा का पता लगाना। इसमें यह निर्धारण किया जाता है कि मूल्यांकन किस प्रकार किया जाये तथा शिक्षण की प्रभावशीलता का पता कैसे लगाया जाये।
इस हेतु मूल्यांकन की विभिन्न प्रविधियों का प्रयोग किया जाता है। जो छात्र व शिक्षकों को दृष्टिपोषण प्रदान करता है। निष्पत्ति मूल्यांकन विश्वसनीय, वैध, वस्तुनिष्ठ एवं प्रभावशाली होना चाहिये। यदि किसी कारणवश छात्रों में अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन नहीं होते हैं तो शिक्षक अपने शिक्षण के तरीकों में परिवर्तन करता है अथवा सुधार करता है।
इस प्रकार इन चारों पक्षों में घनिष्ठतम् सम्बन्ध है। शिक्षण के उद्देश्यों के अनुसार ही इनके सम्बन्धों में भी तब्दीली होती रहती है। ग्लेशर ने शिक्षण प्रक्रिया के चारों भागों को पृष्ठपोषण लूप से जोड़कर दिखाया है।
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