इतिहास

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन | भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में गाँधीजी की भूमिका | भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में गाँधीजी का वैचारिक योगदान | गाँधीजी के रचनात्मक कार्य | राष्ट्रीय आन्दोलन में गाँधी का योगदान | एक राष्ट्रीय नेता के रूप में गाँधीजी की भूमिका | स्वतन्त्रता संघर्ष में महात्मा गाँधी के योगदान का मूल्यांकन

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन | भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में गाँधीजी की भूमिका | भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में गाँधीजी का वैचारिक योगदान | गाँधीजी के रचनात्मक कार्य | राष्ट्रीय आन्दोलन में गाँधी का योगदान | एक राष्ट्रीय नेता के रूप में गाँधीजी की भूमिका | स्वतन्त्रता संघर्ष में महात्मा गाँधी के योगदान का मूल्यांकन

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन

प्रस्तावना-

प्रथम विश्व युद्ध के बाद भारतीय राजनीति का इतिहास ‘‘गाँधी युग” के नाम से प्रसिद्ध है। 1919 से भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन मुख्यतः उनके नेतृत्व में चला। कांग्रेस की बागडोर उनके हाथ में आ जाने से भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का स्वरूप तथा कार्य- प्रणाली आमूल रूप से परिवर्तित हो गई। 1918 तक कांग्रेस मध्यम शिक्षित वर्ग तक सीमित थी और वार्षिक अधिवेशन, प्रस्तावना पास करना, डेपूटेशन ले जाना आदि इसकी कार्य- प्रणाली के अंग थे। गाँधीजी के आने से कांग्रेस ने जन-आन्दोलन का रूप धारण कर लिया। मोटे रूप से राष्ट्रीय आन्दोलन में गाँधी जी की भूमिका को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है- (i) आन्दोलन के स्तर पर गाँधी का योगदान (ii) चिन्तनात्मक स्तर पर गाँधी का योगदान और (iii) रचनात्मक स्तर पर गाँधी का योगदान । यथा-

भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में गाँधीजी की भूमिका

(Role of Gandhi in the Indian National Movement)

भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में गाँधी की भूमिका का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है-

(1) 1919 से पूर्व गाँधीजी के कार्य- महात्मा गाँधी 1913 में दक्षिण अफ्रीका से लौटे। वहाँ उन्होंने भारतीयों के अधिकारों के लिये संघर्ष किया था। सत्याग्रह का जन्म दक्षिण अफ्रीका में ही हुआ था। भारत लौटकर 1917 में चम्पारन और खेड़ा के किसानों के हितों की रक्षा के लिये सत्याग्रहियों का नेतृत्व किया और सफलता पाई। 1918 में अहमदाबाद में मिल-मजदूरों की ओर से आन्दोलन किया और मिल-मालिकों से उनकी माँगे मनवाई। लेकिन गाँधी को अभी तक ब्रिटिश सरकार पर विश्वास था, जो 1918 के बाद की घटनाओं ने समाप्त कर दिया।

(2) असहयोग आन्दोलन में गाँधी की भूमिका- 1919 में भारत-सरकार ने रौलेट एक्ट पास किया, जिसका उद्देश्य नागरिक स्वतन्त्रता का दमन करना था। गाँधीजी के नेतृत्व में इस एक्ट का देशव्यापी विरोध हुआ। पंजाब में अमृतसर के जालियाँवाला बाग में सैकड़ों निर्दोष लोगों को गोली से भून दिया गया जिसकी तीव्र प्रतिक्रिया सारे देश में हुई। स्थान-स्थान पर सभाएँ और हड़तालें हुई और जुलूस निकाले गए।

इसी समय मुसलमानों में खिलाफत का अन्त किये जाने के कारण बहुत रोष उत्पन्न हो गया था। गाँधीजी ने मुसलमानों की माँगों का समर्थन किया। 1920 में गाँधीजी ने असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया जिसमें मुसलमानों ने भी भारी संख्या में भाग लिया। लाखों लोगों को जेलों में लूंस दिया गया। सरकारी स्कूलों और अदालतों का बहिष्कार किया और सैकड़ों व्यक्तियों ने अपनी उपाधियाँ वापिस कर दीं। विदेशी माल का बहिष्कार किया गया और स्थान-स्थान पर विदेशी कपड़े जलाए गए।

महात्मा गाँधी ने सत्याग्रहियों को अहिंसक रखने पर बल दिया और 1922 में गोरखपुर जिले में चौरी-चौरा नामक स्थान पर एक उग्र भीड़ ने पुलिस थाने में आग लगा दी जिससे कई पुलिस वाले मारे गए। गाँधीजी को इससे गहरा आघात लगा और उन्होंने असहयोग आन्दोलन स्थगित कर दिया।

(3) 1922 से 1930 तक के गांधीजी के कार्य- सरकार ने गाँधीजी पर मुकदमा चलाया और 6 वर्ष की सजा देकर जेल भेज दिया। 1924 में वे अस्वस्थता के कारण रिहा कर दिए गए। इस समय भारत में कई भीषण हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए थे। जिससे दुःखी होकर गाँधी जी ने 21 दिन का उपवास किया। जब राजनीति से दूर रह कर उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता, हरिजनों की स्थिति सुधारने, खादी का प्रचार करने आदि की ओर ध्यान देना शुरू किया। स्वराज्य दल के कौंसिल प्रवेशं पर वे तटस्थ रहे।

(4) 1930 का सविनय अवज्ञा आन्दोलन और गाँधीजी- 12 मार्च, 1930 के दिन महात्मा गाधी ने डाण्डी यात्रा पैदल की और 6 अप्रैल को नमक कानून तोड़ा। उसी दिन समस्त देश में आन्दोलन आरम्भ हो गया और 1920 के आन्दोलन जैसे कार्य किए गए। सरकार का दमन चक्र पूरे वेग से चला। निहत्थे अहिंसात्मक सत्याग्रहियों पर लाठी गोली की वर्षा की गई। महात्मा गाँधी और अन्य नेता गिरफ्तार कर लिए गए। 1932 के अन्त तक लगभग 1,20,000 लोगों को जेलों में बन्द किया गया।

1931 में गाँधीजी छोड़ दिए गए। महात्मा गाँधी और लार्ड इरविन के बीच एक समझौता हुआ और सत्याग्रह स्थगित कर दिया गया। गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने गाँधीजी लन्दन गए, लेकिन उन्हें निराशा ही लौटना पड़ा।

भारत लौटने पर वे फिर गिरफ्तार कर लिए गए। इन्हीं दिनों ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिक निर्णय घोषित किया जिससे मुसलमानों के अतिरिक्त हरिजनों को भी पृथक् निर्वाचन का अधिकार दिया गया। इसके विरोध में गाँधीजी ने अनशन किया और हरिजनों के लिए सुरक्षित स्थान रखते हुए पृथक् निर्वाचन समाप्त करने को सरकार को विवश किया।

(5) 1931 से 1939 तक गाँधी जी की भूमिका- 1931 से 1939 तक महात्मा गाँधी ने रचनात्मक कार्यों की ओर ही अधिक ध्यान दिया, जिसका विवेचन आगे किया गया है।

(6) 1939 से 1942 तक महातमा गाँधी के कार्य-1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया। भारत के वायसराय लार्ड लिनलिथगों ने भारत की भी मित्र राष्ट्रों की ओर से युद्ध में सम्मिलित होने की घोषणा करदी, जिसके विरोध में सात प्रान्तों में कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों ने त्याग-पत्र दे दिये। गाँधी और वायसराय कई बार मिले, लेकिन कोई समझौता नहीं हो सका। गाँधीजी ने कांग्रेस की बागडोर फिर सम्भाल ली। 17 अक्टूबर, 1940 को उन्होंने व्यक्तिगत सत्याग्रह आरम्भ किया। पहले और दूसरे सत्याग्रही क्रमशः विनोबा भावे और पण्डित नेहरू थे। लगभग बीस हजार सत्याग्रहियों को जेल में बन्द कर दिया गया।

इसी बीच हिटलर द्वारा रूस पर आक्रमण और जापान के युद्ध में प्रवेश करने पर ब्रिटेन की स्थिति विषम हो गई। जापान वर्मा को जीत कर भारत की सीमा पर आ पहुँचा। स्थिति की गम्भीरता अनुभव करते हुए चर्चिल सरकार ने मार्च, 1942 में सर स्टैफोर्ड क्रिप्स को भारतीय नेताओं से बातचीत करने के लिए भेजा। गाँधीजी ने इस बातचीत में प्रमुख भाग लिया, लेकिन कांग्रेस ने क्रिप्स प्रस्ताव अस्वीकार कर दिए क्योंकि इनमें युद्ध-काल के लिये भारतीयों को वास्तविक सत्ता से वंचित रखा जाना था और युद्ध के बाद के बारे में कोई बात स्पष्ट नहीं कही गई थी।

(7) भारत छोड़ो आन्दोलन (1942)- क्रिप्स-वार्ता भंग हो जाने और ब्रिटिश सरकार को भारतीयों को सत्ता सौंपने की अनिच्छा से भारतीयों में रोष की लहर फैल गई। महात्मा गाँधी का कहना था कि जापान का भारत पर आक्रमण करने का संकल्प अंग्रेजों के भारत में मौजूद रहने के कारण ही है, इसलिए अंग्रेजों के भारत से चले जाने से भारत युद्ध की विभीषिका से बच जायेगा। 18 अगस्त, 1942 को कांग्रेस महासचिव ने गाँधीजी की पहल पर एक ऐतिहासिक प्रस्ताव पास किया जिसमें अंग्रेजों से तुरन्त भारत छोड़ने के लिये कहा गया। महात्मा गाँधी ने अपने भाषण में ‘करो या मरो’ का नारा दिया।

9 अगस्त को प्रातः काल गाँधीजी और कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया। देश के अनेक नेताओं व हजारों व्यक्तियों को जेल में ठूस दिया गया। सरकार का दमन चक्र फिर पूरे वेग से चलने लगा। नेताओं की अनुपस्थिति में आन्दोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया। स्थान-स्थान पर हिंसक घटनायें हुईं और सैकड़ों व्यक्ति मारे गए। रेलों की पटरियों को उखाड़ने और सार्वजनिक भवनों को जलाने की कई घटनाएँ हुई। सरकार के कठोर दमन चक्र ने तीन-चार महीनों में आन्दोलन को कुचल दिया।

(8) गाँधीजी का अनशन- महात्मा गाँधी को पूना में आगा खां के महल में बन्दी बनाकर रखा गया था। वहाँ उन्होंने सरकार के इस आरोप पर कि वे ही 1942 की हिंसात्मक कार्यवाहियों के लिये उत्तरदायी थे, 21 दिन का अनशन किया। मई, 1944 में वे रिहा कर दिए गए।

जर्मनी पर विजय पाने के बाद जून, 1945 में अन्य नेता भी छोड़ दिए गए।

नये वायसराय लार्ड बेवेल ने शिमला में एक सम्मेलन आयोजित कर भारतीय नेताओं से बातचीत की, लेकिन कोई समझौता नहीं हो सका। इसके पहले 1944 में महात्मा गाँधी ने मि०जिन्ना से बम्बई में बातचीत की थी और हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रयत्न किया था, लेकिन  मि०जिन्ना की हठधर्मी के कारण सफलता नहीं मिली।

(9) राष्ट्रीय आन्दोलन को जन-आन्दोलन का रूप देना- गाँधी जी ने राष्ट्रीय आन्दोलन को जन-आन्दोलन का रूप दिया। गाँधी जी के नेतृत्व में सभी वर्गों के लोग संगठित हो गए तथा राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने लगे। कूपलैण्ड का कथन है कि “गाँधी जी ने राष्ट्रीय आन्दोलन को क्रान्तिकारी आन्दोलन के रूप में परिवर्तित कर दिया। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन को क्रान्तिकारी ही नहीं, जनप्रिय भी बनाया।”

(10) रचनात्मक कार्यक्रम पर बल देना- गाँधी जी ने रचनात्मक कार्यक्रम को भी प्रोत्साहन दिया। उन्होंने खादी कार्यक्रम, स्वदेशी आन्दोलन, नशाबन्दी, हरिजनोद्धार, हिन्दू मुस्लिम एकता, बेसिक शिक्षा आदि रचनात्मक कार्य शुरू किये।

(11) साम्प्रदायिकता तथा अस्पृश्यता का विरोध- गाँधी जी साम्प्रदायिकता के घोर विरोधी थे। उन्होंने साम्प्रदायिक दंगों की कटु आलोचना की और साम्प्रदायिक दंगों के विरुद्ध आमरण अनशन किया। साम्प्रदायिकता का विरोध करने के कारण 30 जनवरी, 1948 को उन्हें अपने प्राणों का बलिदान करना पड़ा। गाँधी जी ने अस्पृश्यता के निवारण पर भी बल दिया। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन हरिजनोद्धार में लगा दिया।

(12) अन्तिम काल- 1945 के बाद महात्मा गाँधी ने अधिकांश कार्य पं० नेहरू आदि पर छोड़ दिया, लेकिन उनकी सहमति और सलाह के बिनाये नेता कुछ नहीं करते थे। कैबिनेट मिशन से भी गाँधीजी की सलाहानुसार बातचीत हुई। लार्ड माउन्टबेटन की सत्ता हस्तान्तरण और भारत-विभाजन की योजना पर अपनी इच्छा के विरुद्ध उन्होने सहमति दे दी थी।

15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतन्त्र हो गया, जिसका श्रेय महात्मा गाँधी के सफल नेतृत्व को है। उस समय वे पूर्वी बंगाल में गाँव-गाँव घूम कर पीड़ित हिन्दुओं को सान्त्वना दे रहे थे। 30 जनवरी, 1948 को नाथूराम गोडसे ने उनकी हत्या कर दी।

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में गाँधीजी का वैचारिक योगदान

(Ideological Contribution of Gandhi in the Indian National Movement)

महात्मा गाँधी ने राजनीति में किन्हीं ठोस और निश्चित सिद्धान्तों के आधार पर भाग लिया था। मूलतः वे एक धार्मिक व्यक्ति थे, जिन्होंने अपने दर्शन का प्रयोग राजनीति में किया। संक्षेप में गाँधीजी की विचारधारा के तत्त्व निम्नलिखित हैं-

(1) अहिंसा- गाँधी दर्शन व सर्वोदय विचारधारा का साधन प्रमुख रूप से अहिंसा है। गाँधीजी ने अहिंसा को न केवल अपने निजी जीवन में अपनाया बल्कि उसका प्रयोग सार्वजनिक जीवन के सभी क्षेत्रों में किया।

अहिंसा का भी व्यापक अर्थ है। सामान्य अर्थ में किसी दूसरे जीव को न मारना ही अहिंसा का मतलब समझा जाता है, परन्तु प्राण न लेने से ही अहिंसा पूरी नहीं होती, यह तो मन की एक वृत्ति है, जिसमें सिवाय प्रेम के और कुछ व्याप्त न हो । अहिंसा का ही दूसरा शुद्ध नाम प्रेम है।

(2) सत्याग्रह- सत्याग्रह महात्मा गाँधी के विचार दर्शन का एक महत्वपूर्ण अंग है। सत्याग्रह अन्याय और असत्य के विरुद्ध संघर्ष है। इसका शाब्दिक अर्थ है सत्य के लिये आग्रह करना । इसका आधार है, प्रेम तथा आत्मबल। यह शारीरिक बल अथवा शस्त्रों की भौतिक शक्ति से सर्वथा भिन्न है। सत्याग्रही अपने विरोधी को कोई हानि नहीं पहुंचाता है, अपितु आत्मत्याग द्वारा उसके हृदय को प्रभावित करता है। गाँधीजी के अनुसार, “अपने विरोधियों को दुःखी बनाने के बदले स्वयं अपने पर दुःख डालकर सत्य की विजय के लिये प्रयल करना सत्याग्रह है।”

महात्मा गाँधी का यह विश्वास था कि कोई व्यक्ति कितना ही निष्ठर, क्रूर और वज्र हृदय क्यों न हो, उसमें मनुष्यता, करुणा और प्रेम का सर्वथा अभाव नहीं होता है। सत्याग्रही द्वारा प्रेमपूर्वक कष्ट झेलने से अत्याचारी मनुष्य में भी मानवीयता की प्रसुप्त भावना जागृत हो उठती है। लोकमत की प्रताड़ना और निन्दा का भय भी इसे जागृत करने में सहायक होता है। अन्ततः अत्याचारी अपने कर्मों का प्रायश्चित करने के लिये तत्पर हो जाता है। उस समय वह सत्याग्रही के साथ समझौता कर लेता है और सत्याग्रही की विजय होती है। महात्मा गाधी के अनुसार सत्याग्रह के कई रूप हो सकते हैं, जैसे असहयोग, सविनय अवज्ञा, उपवास, हड़ताल तथा हिजरत। महात्मा गाँधी ने भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में सत्याग्रह के इन रूपों का सफल प्रयोग किया था।

(3) आर्थिक व्यवस्था- गाँधीजी का विचार है कि यदि शोषक वर्ग शोषित वर्ग के प्रति सद्भावना और प्रेम का रुख रखे व शोषण बन्द कर दे तो इसकी प्रतिक्रिया अच्छी होगी। कुछ समय बाद समाज शोषण से मुक्त हो जाएगा।

गाँधीजी के रचनात्मक कार्य

(Constxuctive Works of Gandhiji)

गाँधीजी के रचनात्मक कार्यों को संक्षेप में निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत समाहित करने का प्रयास किया गया है-

(1) देश की स्वतन्त्रता के लिये चर्खा तथा विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार- गाँधीजी भारत को स्वतन्त्र देखना चाहते थे क्योंकि एक स्वतन्त्र भारत में ही अन्य राष्ट्रों की सेवा एवं सहायता करने की सामर्थ्य हो सकती है। 1919 के अधिनियम के द्वारा ब्रिटिश शासन की डोर भारतीयों पर कुछ कठोर ही कर दी गई। तब गाँधीजी ने असहयोग आन्दोलन चलाने का निर्णय लिया जिसका आधार अहिंसा तथा सत्याग्रह ही था। इसी असहयोग आन्दोलन का एक अंग था, विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार। विदेशी वस्त्रों को एकत्रित करके उनकी होली जलाई गई। स्वदेशी वस्त्रों के उपयोग पर जोर दिया गया। चर्खा स्वदेशी वस्त्र निर्माण का एक साधन था। चर्खे से खादी का उत्पादन किया जाए लगा और अन्ततः खादी और कांग्रेस दोनों पर्यायवाची हो गए। चर्खे से जहाँ स्वदेशी वस्त्रों का निर्माण हुआ, वहीं इससे ग्रामीण उद्योग तथा स्वावलम्बन को भी बढ़ावा मिला। चर्खा लघु उद्योग एवं स्वावलम्बन का एक प्रतीक बन गया। चर्खा एक ऐसा साधन बन गया जो कि कांग्रेसजनों को एकसूत्र में बाँध सका। शान्तिपूर्ण तरीके से आर्थिक परिवर्तन लाने के लिए चर्खा ही प्रथम साधन बना।

(2) ग्रामोद्योग- गांधीजी बड़े-बड़े उद्योगों के स्थान पर लघु एवं घरेलू उद्योगों के विकास पर अधिक बल देते थे। इससे एक तो भारतीय घरेलू उद्योग जो कि भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार थे, को प्रोत्साहन मिलेगा, उनका विकास होगा दूसरे इससे अधिक संख्या में व्यक्तियों को रोजगार मिलेगा तथा इस प्रकार के उद्योग में लगे लोगों का स्वावलम्बन से आत्मविश्वास बढेगा। गाँधीजी का भारत तो ग्रामों में ही बसता था। अतः वे ग्रामीण क्षेत्र के उद्योग के विकास पर बल देते थे। इससे ग्रामीण लोगों को रोजगार मिलने के साथ-साथ ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एक मजबूत आधार तैयार होगा। ग्रामों की अर्थव्यवस्था सुधरने पर ही स्वतन्त्र भारत का निर्माण हो सकेगा। ग्रामों का आर्थिक विकास हुए बिना भारत की स्वतन्त्रता अपंग ही रहेगी। ग्रामोद्योग ग्रामों को आत्म-निर्भर बना सकेंगे। गाँधीजी ने ग्रामोद्योग के महत्त्व को समझ लिया था। वे कहते थे कि केवल ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास में नहीं, बल्कि राष्ट्र के आर्थिक विकास में भी यह महान् भूमिका निभाता है। खादी, हथकरघा धानी तेल आदि लघु उद्योगों को गाँधीजी ग्रामों में ही स्थापित करना चाहते थे, क्योंकि वहाँ विकास की अधिक आवश्यकता थी और आज भी है। ग्रामों में इस उद्योग के लिये बहुत कम पूँजी की आवश्यकता होती थी तथा आसानी से उसको प्रारम्भ किया जा सकता था।

(3) ग्राम स्वराज्य- गाँधीजी स्वराज्य का अर्थ स्वयं के शासन से लेते थे, परन्तु इसमें आत्म-संयम भी आवश्यक समझते थे। स्वराज्य में वह अधिक से अधिक व्यक्तियों की सहमति को सम्मिलित करते थे। गाँधीजी के स्वराज में निःस्वार्थ तथा देशभक्तिपूर्ण लोगों का बहुमत होगा और राष्ट्र की भलाई ही उनका मुख्य विचार बिन्दु होगा। गाँधीजी के स्वराज में गरीबों की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति होगी। गाँधीजी ग्रामीण क्षेत्रों की गरीबी तथा अशिक्षा से भलीभाँति परिचित थे। ग्राम ही भारतीय सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक जीवन की धुरी है। इसलिए गाँधीजी ने ग्रामों की पुनर्रचना पर बल दिया। गाँधीजी ग्रामों को राजनीतिक प्रशासन की दृष्टि से भी स्वावलम्बी बनाना चाहते ते। गाँधीजी चाहते थे कि गाँव का प्रशासन पाँच व्यक्तियों की एक पंचायत द्वारा चलाया जावे। ये पाँच व्यक्ति बिना किसी भेदभाव के ग्राम के प्रौढ़ व्यक्तियों द्वारा प्रतिवर्ष चुने जाएँ। स्त्री-पुरुष और जाति-पाँति का कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। इन पाँच व्यक्तियों को सभी प्रकार के अधिकार होने चाहिए। यह पंचायत विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका की दृष्टि से सर्वशक्तिमान होनी चाहिए। यह व्यक्ति की पूर्ण स्वतन्त्रता पर आधारित लोकतन्त्र होगा। गाँधीजी देश के प्रशासन की इकाई ग्राम को ही मानते थे। यदि गाँव में सज्जा स्वराज स्थापित हो जाएगा तो सम्पूर्ण भारत में स्वराज की स्थापना हो जावेगी। इस प्रकार गाँधीजी ग्राम स्वराज को भारत की स्वाधीनता का आधार मानते थे।

(4) उदार सामाजिक व्यवस्था- गाँधी जी समाज को पारिवारिक भावना एवं जाति, बिरादरी से ऊँचा उठाना चाहते थे। भारत में अस्पृश्यता निवारण के लिये जितना प्रयास उन्होंने किया, उतना किसी भी व्यक्ति ने नहीं किया। उनका आदर्श था ‘सर्वोदय’ अर्थात् समाज के सभी व्यक्तियों व सभी वर्गों का सर्वांगीण विकास। गाँधीजी ने खियों की दशा सुधारने पर बल दिया। उन्होने स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार दिये जाने पर जोर दिया। उन्होंने बाल- विवाह, दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा आदि का विरोध किया और विधवा विवाह का समर्थन किया। उन्होंने ऊँच-नीच तथा छुआछूत का विरोध किया और सामाजिक समानता पर बल दिया।

(5) हरिजनों का उद्धार- गाँधीजी ने अछूतों का उद्धार किया। वे सदा ही हिन्दू समाज में फैली हुई ऊँच-नीच व जाति-पाँति के भेद-भाव से घृणा करते थे। उन्होंने अछूतों को अपने हृदय से लगाया तथा उन्हें हरिजन कहना शुरू किया। गाँधीजी ने हरिजनों के उद्धार के लिये ‘हरिजन’ नामक पत्रिका का सम्पादन भी किया। हरिजनों के उत्थान के लिए उन्होंने उन्हें मन्दिर में प्रवेश दिलाया, स्कूल खुलवाये तथा समाज में उन्हें उच्च स्थान दिलवाया।

(6) बुनियादी शिक्षा- गाँधीजी तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था से सन्तुष्ट नहीं थे क्योंकि उस समय शिक्षा प्रणाली खर्चीली थी। उन्होंने बुनियादी शिक्षा को महत्व दिया। उनका उद्देश्य था, शिक्षा के साथ-साथ रोजी कमाना। इसका यह उद्देश्य भी था कि गरीब बच्चों का भी उत्थान हो । गाँधीजी की इसी शिक्षा प्रणाली को वर्धा शिक्षा योजना’ कहा जाता है।

निष्कर्ष-

इस प्रकार गाँधीजी ने भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में अनेक नदीन तत्वों का समावेश किया। वास्तव में, गाँधीजी भारत की राजनीतिक स्वतन्त्रता को बिना आर्थिक और सामाजिक सुधारों के अधूरा मानते थे। उनका रचनात्मक कार्यक्रम देश की सर्वागीण उन्नति के लिये था। यह दूसरी बात है कि स्वतन्य भारत के शासकों ने गाँधीजी के कार्यक्रम को नहीं अपनाया, यद्यपि दिखावे के लिये उन्होंने अभी भी गाँधीवाद का चोला ओढ़ रखा है। कुछ इतिहासकारों का तो यह भी मत है कि महात्मा गाँधी को राजनीतिक तथा राष्ट्रीय संग्राम में गैर- राजनीतिक तत्त्वों का समावेश नहीं करना चाहिए था, क्योंकि इससे साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिला । कुछ अन्य इतिहासकारों के मतानुसार, गाँधीजी ने जनगणना में तो महान् योग दिया।

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Pankaja Singh

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