
भारतीय नगरों में कच्ची बस्तियों का विकास | Development of slums in Indian cities in Hindi
भारतीय नगरों में कच्ची बस्तियों का विकास
वर्तमान में भारतीय नगरों में विश्व की सर्वाधिक विकृत कच्ची बस्तियाँ देखी जा सकती हैं इन कच्ची बस्तियों का जन्म एवं विस्तार सर्वप्रथम उन नगरों में प्रारम्भ हुआ जहाँ औद्योगिक विस्तार एवं प्रसार की प्रक्रिया सर्वप्रथम आरंभ हुई। इन नगरों की जनसंख्या में भी तीव्र गति से वृद्धि हुई। ये प्राचीन महानगर जैसे मुम्बई, कोलकाता, दिल्ली तथा मद्रास (चेन्नई) थे जहाँ उद्योग सर्वप्रथम स्थापित हुए तथा यहाँ की जनसंख्या में गतिशीलता उत्पन्न हुई। निम्न वर्ग, श्रमिक वर्ग का विस्तार हुआ तथा बड़े पैमाने पर इन नगरों की ओर जनसंख्या के आगमन के फलस्वरूप कच्ची बस्तियों का उदय एवं विस्तार हुआ।
भारत-सेवक समाज ने 1958 में दिल्ली की कच्ची बस्तियों का सर्वप्रथम सामाजिक- आर्थिक सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण के अनुसार दिल्ली की कच्ची बस्तियों की जनसंख्या कुल 2 लाख थी।
मुम्बई नगर पालिका द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार नगर की प्राचीन इमारतों के सर्वेक्षण के आधार पर, 1956-57 में वहाँ कुल 8951 प्राचीन इमारतों में 144 कच्ची बस्तियाँ थीं। देसाई तथा पिल्लै ने 1970 में मुम्बई नगर की कच्ची बस्तियों का अध्ययन किया।
इसके अतिरिक्त एम0एस0 गौरे (1970), रामचंद्रन (1972) तथा लेनन (1974) के नाम इस संदर्भ में विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
मद्रास (चेन्नई) नगर का 1971 में एक सर्वेक्षण किया गया जिसके अनुसार नगर की कुल जनसंख्या का एक तिहाई भाग कच्ची बस्ती में निवास करता था। तपन कुमार मजुमदार (1978) ने दिल्ली नगर की कच्ची वस्तियों की विविध सामाजिक तथा आर्थिक समस्याओं का अध्ययन किया।
पालवीज (1975) ने भारतीय कच्ची बस्तियों का अध्ययन प्रस्तुत किया है। इसके अतिरिक्त उडरफ ने 1960 में, वैंकटप्पा (1972) तथा 1976 में इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल एंड इकोनोमिक चेंज द्वारा बैंगलोर नगर की कच्ची बस्तियों का अध्ययन किया गया।
डी सूजा (1975) ने भारतीय कच्ची बस्तियों का अध्ययन किया। इसी प्रकार नायडू ने हैदराबाद तथा सिकन्दराबाद की कच्ची बस्तियों का अध्ययन किया। के० रंगाराव तथा राजू ने विशाखापट्टनम की कच्ची बस्तियों का अध्ययन किया।
लापियर ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘सिटी ऑफ जॉय’ में कोलकाता की कच्ची बस्तियों का रोचक वर्णन प्रस्तुत किया है तथा इन लोगों में विशेष रूप से जो ग्रामीण प्रवासी कच्ची वस्ती में रहते हैं वे किस प्रकार अपना रक्त बेचकर जीवन यापन करते हैं, इस बात का दुखद वर्णन प्रस्तुत किया है।
राधाकमल मुखर्जी के अनुसार कच्ची बस्तियों में अपराधी, बाल-अपराधी, रूग्ण तथा अनेक अन्य विकृत एवं कुप्रवृत्ति युक्त लोग रहते हैं। उनकी रचना ‘सोशल लाइफ आफ ए मैट्रोपॉलिस’ में इस बात का रोचक वर्णन प्रस्तुत किया गया है।
एल्फ्रेड डी सूजा के अनुसार कच्ची बस्तियों में आमतौर पर निम्न जाति के लोग निवास करते हैं। यह तथ्य उन्होंने दिल्ली की कच्ची बस्तियों के अध्ययन से स्पष्ट किया है। अब्दुल अजीज ने नगरीय गरीबी का अध्ययन कर उनमें व्याप्त गरीबी एवं बेरोजगारी के उन्मूलन संबंधीक्षप्रयासों का उल्लेख किया। एलन गिलबर्ट तथा जोसफ जगलर ने अपनी रचना ‘सिटीज, प्रोपर्टी एण्ड डवलपमेंट’ (1981) में गरीबी के आयामों, आवास की समस्या एवं गरीबी की उपसंस्कृति का उल्लेख किया। चूंकि गाँवों तथा कस्बों में महानगरों की ओर आने वाले अधिकांश प्रवासी पुरूष होते हैं जिसके फलस्वयप इन नगरों में लिंग-अनुपात असमान हो जाता है। उदाहरण के तौर पर 1975 के एक सर्वेक्षण के अनुसार दिल्ली नगर में प्रति एक हजार पुरूषों पर स्त्रियों की संख्या 768 थी।
शिवराम कृष्णन के अनुसार कोलकाता तथा कोलकाता मैट्रोपोलिटन डिस्ट्रिक्ट में 1977 में प्रति एक हजार पुरूषों पर स्त्रियों का अनुपात क्रमशः 636 तथा 721 था। असमान लिंग अनुपात ही कच्ची बस्ती निवासियों में अनेक कुरीतियों (अपकृत्यों) जैसे मद्यपान, नशाखोरी, विवाहेत्तर यौन सम्बन्धों आदि का कारण है।
इसके अतिरिक्त प्रवासियों में संवेगात्मक तनाव एवं कुण्ठा व्याप्त हो जाती है। डीसूजा के अनुसार कच्ची बस्ती के निवासी नगर के सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में सीमान्तक भूमिका निभाते हैं। यद्यपि कच्ची बस्तियों में गैर सीमान्तक व्यक्ति भी निवास करते हैं, परन्तु गरीब कच्ची बस्ती वाले जो सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से सीमान्त छोर पर होते हैं, नगरीय जीवन में एकीकरण की कठिन समस्या से जूझते हैं। परिणामस्वरूप कच्ची बस्ती निवासी बाकी समाज से अलग- थलग पड़ जाते हैं। रत्ना नायडू के अनुसार कच्ची बस्तियाँ नगर में रेलवे लाइन, अस्पताल एवं सब्जी मण्डी आदि के इर्द-गिर्द पनपती हैं।
ठाकुर तथा घाड़वे के अनुसार यद्यपि भारतीय नगरों में कच्ची बस्तियाँ पर्याप्त मात्रा में पाई जाती हैं, कच्ची बस्तियों के अध्ययन के बारे में सैद्धान्तिक निर्माण के कार्य में बहुत कम प्रयास हुआ है। पाश्चात्य देशों के विकसित सिद्धान्त भारतीय संदर्भ में अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न करते हैं। अर्थात् पाश्चात्य सिद्धान्त भारतीय कच्ची बस्तियों के अध्ययन, विश्लेषण में अधिक उपयोगी सिद्ध नहीं हुए हैं। पालवीब ने चेन्नई में चैन्ना नगर कच्ची बस्ती के अध्ययन में गरीबी संस्कृति की अवधारणा (जिसका विकास आस्कर लेविस ने किया था), का खण्डन किया। इसके विपरीत देसाई तथा पिल्लई ने कच्ची बस्ती के अपने अध्ययनों में आस्कर लेविस के सिद्धान्त का समर्थन किया।
सतीश सिन्हा के अनुसार नगरीकरण की प्रक्रिया तथा अभावग्रस्त क्षेत्रों में प्रवास करने वाले लोगों की समस्याओं के मध्य कार्यकारण संबंध दृष्टिगत होता है जिसकी अभिव्यक्ति नगरीय कच्ची बस्तियों में भीड़भाड़, निम्न स्तरीय आवास, पतनोन्मुख आर्थिक एवं सामाजिक संगठन एवं अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों के रूप में होती है। सिन्हा के अनुसार भारतीय नगरों में कच्ची बस्तियों का विकास अस्त-व्यस्त एवं अनियमित तरीके से हुआ है। इन बस्तियों में देश की नगरीय जनसंख्या का 1/5 भाग निवास करता है।
संजय श्रीवास्तव ने बरेली की कच्ची बस्तियों के अपने अध्ययन में जनसंख्या का उच्च घनत्व, निम्न साक्षरता, व्यवसाय, श्रम कार्य में स्त्रियों की अधिक संख्या तथा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जन जातियों के लोगों की संख्या के आधिक्य तथा सामुदायिक सेवाओं एवं नागरिक सुविधाओं की कमी का उल्लेख किया है।
पांडे ने कच्ची बस्तियों में बच्चों की स्वास्थ्य सम्बन्धी दशाओं, शैक्षणिक परिस्थितियों तथा उनमें समय से पूर्व काम के बोझ का उल्लेख किया। जिन परिस्थितियों में बच्चे पलते एवं बड़े होते हैं, उसमें तुरन्त सुधार की आवश्यकता है। साथ ही पांडे ने अपने अध्ययन में इस बात का उल्लेख किया है कि कच्ची बस्ती निवासी (ग्रामीण प्रवासी) अपने मूल स्थान (गाँवों) से निकट रूप से जुड़े हुए होते हैं तथा ग्रामीण संस्कृति कच्ची बस्ती निवासियों के सामाजिक व्यवहार को प्रभावित करती है।
साहनी के शब्दों में कच्ची बस्ती के निवासियों का भविष्य अन्धकारमय प्रतीत होता है। कच्ची बस्ती निवासी अपना दुर्भाग्य समझकर यह सब सहन करते हैं। परिणामस्वरूप इन विषम परिस्थितियों में भी ये लोग विकट परिस्थितियों को स्वाभाविक मानते हुए रहने का प्रयास करते हैं।
एच0एस0 बाहरी ने कच्ची बस्तियों के निवासियों की आवास संबंधी समस्याओं का उल्लेख करते हुए कहा है कि उनकी प्राथमिकता कार्य-स्थल के निकट निवास बनाकर रहने की है। इसी प्रकार सिन्हा तथा घोष ने कच्ची बस्ती निवासियों की असंतोषजनक रहन-सहन की स्थितियों का उल्लेख किया है। यद्यपि वे लोग इतने गरीब नहीं हैं, लेकिन कुल मिलाकर रहन- सहन इस प्रकार का है कि गरीबी ही गरीबी झलकती है तथा पर्यावरण संबंधी परिस्थितियाँ अत्यन्त दयनीय हैं। भार्गव ने कच्ची बस्ती की समस्या को एक फैलने वाली छूत की बीमारी की संज्ञा दी है तथा इसके फैलाव का उपचार तब तक संभव नहीं है जब तक कि उसकी उचित जाँच न की जाये। सही उपचार न हो पाने की स्थिति में नये-नये क्षेत्रों में इसका विस्तार हो जायेगा। साबीर अली के अनुसार कच्ची बस्तियाँ जबरन उन स्थानों पर पनपती हैं, जो स्थान बसावट के समय जन-सुविधाओं के रूप में छोड़े जाते हैं, जैसे बस्ती का पार्क (बगीचा), खेल का मैदान आदि। एक बस्ती के निर्माण के समय ही ये सुविधाएँ स्थापित नहीं हो जाती। उनके लिये समुचित स्थान छोड़ दिये जाते हैं, लेकिन इन स्थलों में अथवा इनके इर्द-गिर्द अनेक बार जबरन कच्ची बस्तियों को निर्माण हो जाता है।
ए0आर0 देसाई ने एक सम्मेलन में अपने उद्घाटन भाषण में इस बात का उल्लेख किया है कि महानगरों में कच्ची बस्तियों की समस्या भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रतिमान तथा अपनाये जा रहे पूँजीवादी मार्ग के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई है। ग्रामीण क्षेत्रों से बड़े पैमाने पर गरीब कृषक वर्ग के लोग नगरों की ओर पलायन करते हैं तथा नगरों में आकर वे लोग नगर में धनी वर्ग के लिये अनेक प्रकार के कार्य कर अपनी सेवाएं प्रदान करते हैं तथापि उनकी आवास की समस्या का समाधान नहीं होता। परिणामस्वरूप वे लोग झुग्गी-झोंपड़ी अथवा कच्चे घर बनाकर नगरों में रहतें हैं। ये लोग अपने निजी आवास क अधिकार से वंचित रहते हैं।
अब्दुल अजीज ने अनौपचारिक क्षेत्र में गरीबी की समस्याओं का उल्लेख किया तथा उनमें व्याप्त बेरोज़गारी को समाप्त करने की ओर संकेत दिया। कलदाते तथा जोशी ने हैदराबाद की कच्ची बस्तियों के अपने अध्ययन में शिक्षा के महत्व की ओर संकेत किया। उन्होंने कच्ची बस्तियों में प्रौढ़ शिक्षा के प्रचार तथा पुस्तकालयों की स्थापना का सुझाव दिया। एलन गिलबर्ट तथा जोसफ जगलर ने गरीबी के आवासों की समस्या तथा गरीबी की उपसंस्कृति का उल्लेख किया। सिंह तथा पोथन के अनुसार कच्ची बस्तियों के बच्चों का जन्म से ही शारीरिक, मानसिक एवं संवेगात्मक विकास अवरूद्ध हो जाता है तथा उनमें से अनेक बच्चे अपने माता-पिता के भी दया के पात्र नहीं बन पाते क्योंकि माता-पिता भी बच्चों को अल्पायु में ही कार्य के लिए प्रेरित करते हैं। कम उम्र में ही बच्चों पर काम का बोझ पड़ जाता है तथा बच्चे परिवार की आमदनी में अपना योगदान देने लग जाते हैं।
कच्ची बस्ती निवासी प्रमुख रूप से भारतीय समाज के निम्न स्तरों से सम्बद्ध होते हैं। इस तथ्य पर अनेक भारतीय समाज वैज्ञानिकों ने प्रकाश डाला है। उदाहरण के तौर पर एम0एस0ए0 राव ने ग्वालियर नगर के कच्ची बस्ती के अपने अध्ययन में यह पाया कि कच्ची बस्तियों में 70 प्रतिशत लोग अनुसूचित जातियों से सम्बद्ध होते हैं। इन्दौर तथा दिल्ली की कच्ची बस्तियों के अध्ययनों से इस बात की पुष्टि होती है। तीव्र नगरीकरण तथा बड़े पैमाने पर गाँवों से नगरों की ओर प्रवास के फलस्वरूप निम्न स्तरीय बस्तियाँ अस्तित्व में आई हैं। इस प्रकार बड़े पैमाने पर होने वाले प्रवास ने नगर की नागरिक सेवाओं को दुर्बल बना दिया है। मानव-इतिहास में नगरीकरण की प्रक्रिया अतीत में इतनी तीव्र कभी नहीं रही। प्रति वर्ष लाखों की संख्या में लोग गाँवों से नगरों की ओर प्रवास करते हैं, बगैर इस अनुमान के कि नगर उन्हें जीवनयापन के लिये समुचित साधन उपलब्ध करा पायेगा अथवा नहीं। जीवन निर्वाह के स्तर पर आने वाले प्रवासी, नगर में कच्ची बस्तियों को अपना निवास स्थान बनाते हैं। इस प्रकार नगरीय कच्ची बस्तियाँ गरीबी के केन्द्रस्थल बन जाती हैं। सर्वप्रथम यह प्रक्रिया महानगरों से आरंभ होती है तथा धीरे- धीरे नगरों में कच्ची बस्तियों का प्रसार होता है। इस प्रकार कच्ची बस्तियों का विस्तार नगर के पतन का कारण बनता है तथा इस प्रकार कच्ची बस्तियाँ नगर के अनियंत्रित विकास में अपनी अहम भूमिका निभाती हैं।
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