भारत में सार्वजनिक व्यय के सिद्धान्त | Principles of Public Expenditure in India in Hindi
भारत में सार्वजनिक व्यय के अपनाये गये सिद्धान्त-
भारत एक विकासशील देश है, इसलिए आर्थिक विकास सम्बन्धी अनेक समस्यायें उत्पन्न होना स्वाभाविक है। अब देखना है कि भारत सरकार ने सार्वजानिक व्यय में कौन निर्धारित सिद्धान्तों का पालन किया है?
यह सत्य है कि विगत तीन दशकों से भारतीय अर्थव्यवस्था ने आधारभूत उद्योगों करे स्थापित करके विकास के मार्ग को प्रशस्त किया है, फिर भी बेकारी की समस्या का निदान नहीं हो पाया है। देश मुद्रा प्रसार के दौर से गुजर रहा है और घाटे का बजट घोषित होना सरकार की मजबूरी है। इधर ग्रामीण विकास एवं कृषि उत्पादन पर विशेष बल देने के कारण सार्वजनिक व्यय का अधिकतम भाग इस मद पर व्यय हो रहा है, जिससे अनुत्पादक व्ययों में वृद्धि हुई है। इस भारतीय आर्थिक परिवेश में भारत सरकार सार्वजनिक व्यय के कौन कौन से सिद्धान्त अपना रही है, वे निम्नलिखित हैं-
(1) लाभ का सिद्धान्त-
भारतवर्ष आर्थिक नियोजन के माध्यम से आर्थिक विकास को गति दे रहा है, अतः ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ के सिद्धान्त का पूर्ण पालन किया जा रहा है। इस दृष्टि से सम्पूर्ण समाज के हित में सार्वजनिक व्यय हो रहे हैं न कि व्यक्ति, वर्ग विशेष के लाभ के लिये व्यय किये जा रहे हैं।
(2) मितव्ययिता का सिद्धान्त-
भारत सरकार सार्वजनिक व्यय में मितव्ययिता के सिद्धान्त को आंशिक ही अपना पायी है। क्योंकि मंत्रालयों, दूतावासों, जाँच समितियों व जन प्रतिनिधियों के यात्रा-भत्तों पर भारी व्यय के प्रमाण हैं। इसी प्रकार सरकार ने विकास योजनाओं पर जितना व्यय होना चाहिए उससे अधिक व्यय किया है। परिणामस्वरूप आर्थिक ढांचा में अपेक्षित सुधार भी नहीं हो सका है। लेकिन विगत वर्ष प्रधानमंत्री ने मितव्ययिता के सिद्धान्त पर विशेष बल दिया है, उन्होंने आर्थिक संकट से गुजर रहे भारत में सलाह दी है कि वे अपने आवश्यक खर्चों में कटौती करें। इस प्रकार विश्वास किया जा सकता है कि धीरे-धीरे सरकार मितव्ययिता के सिद्धान्त का पालन अवश्य करेगी।
(3) आधिक्य का सिद्धान्त-
भारत के सार्वजनिक व्यय में आधिक्य का सिद्धान्त अप्रयोज्य है, क्योंकि घाटे के बजट बनाना राष्ट्र की मजबूरी है। आर्थिक प्रगति में घाटे के बजट सहायक सिद्ध हुए हैं। अतः शिराज का सुझाव- आधिक्य का बजट घोषित हो, नितान्त काल्पनिक है। क्योंकि देश की जनता अधिक कर भुगतान करने में अक्षम है। इसलिए नये कर असम्भव है।
(4) स्वीकृति का सिद्धान्त-
सैद्धान्तिक तौर पर भारत के सार्वजनिक व्यय में स्वीकृति का सिद्धान्त अपनाया जाता है क्योंकि केन्द्र सरकार के मंत्रालयों से स्वीकृति प्राप्त किये बगैर कोई भी व्यय नहीं किये जाते हैं। इसी प्रकार राज्य सरकारें केन्द्र सरकार से स्वीकृत लें, यह अपेक्षा की जाती है। किन्तु व्यावहारिक रूप में राज्य सरकारें केन्द्र से बिना स्वीकृति के ऊँचे व्यय करती रखी जा सकती हैं। इसके अलावा भारत में आडिट का कोई विशेष महत्त्व नहीं है, क्योंकि आपत्तियाँ उत्पन्न करने वाली आडिट को सेवा द्वारा प्रसन्न किया जाता है।
(5) उत्पादकता का सिद्धान्त-
भारत में उत्पादकता का सिद्धान्त सार्वजनिक व्यय की आधारशिला है। क्योंकि सरकार के व्यय उत्पादकता को प्रमुखता देते हैं। लेकिन विकासशील भारत की आर्थिक समस्याओं को कम करने की दृष्टि से राजनैतिक स्थायित्व, सुरक्षा एवं कलयाण आदि पर अप्रत्यक्ष उत्पादकता के कारण व्यय किये जाते हैं। ऐसे व्ययों को भी उत्पादकता से जोड़ा जाता है।
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इस प्रकार सार्वजनिक व्यय के सिद्धान्तों का विस्तृत विवेचन करने के पश्चात अन्त में कह सकते हैं कि सार्वजनिक व्यय की मदों का वितरण वैज्ञानिक व न्याय आधारित होना चाहिए जिससे राष्ट्रीय विकास की धारा प्रशस्त हो एवं समाज की समस्याओं का निपटारा प्राथमिकता के आधार पर करके अधिकतम सामाजिक लाभ पहुँच सके। अतः सैद्धान्तिक दृष्टि से सरकार के लिए सर्वाधिक उत्तम सिद्धान्त वे होते हैं जो सामाजिक लाभ को अधिकतम करने का उद्देश्य संजो हों। इसलिए “राजकीय व्यय को उस सीमा तक करना चाहिए जहाँ सभी दिशाओं में होने वाले व्यय से उत्पन्न सीमान्त सामाजिक लाभ बराबर हो जाये।”
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