अर्थशास्त्र

भारत में फसलो की पद्धति | नई कृषि युक्ति और हरित क्रांति | नई कृषि युक्ति कृषि की व्यवहार्यता

भारत में फसलो की पद्धति | नई कृषि युक्ति और हरित क्रांति | नई कृषि युक्ति कृषि की व्यवहार्यता

भारत में फसलो की पद्धति

फसलों के ढांचे से तात्पर्य यह है कि विभिन्न फसलों के अधीन कृषि भूमि का कितना हिस्सा है तथा इस हिस्से में समय के साथ क्या परिवर्तन हुआ है। जहां तक फसलों के ढांचे को निर्धारित करने वाले कारक हैं, इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्राकृतिक कारक हैं मिट्टी की किस्म, मौसम, वर्षा इत्यादि। परन्तु तकनीकी कारकों का भी महत्व रहा है। उदाहरण के लिए, नई कृषि युक्ति के परिणामस्वरूप 1966 के बाद में गेहूं अधीन क्षेत्र में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है। हाल के वर्षों में तिलहनों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए भारत सरकार ने कुछ नए कार्यक्रम लागू किये हैं। इनके परिणामस्वरूप तिलहनों के अधीन क्षेत्र में काफी वृद्धि हुई है। भारत में फसलों के ढांचे के सम्बन्ध में मुख्य तथ्य निम्नलिखित हैं :

  1. खाद्य फसलें (जिनमें गेहूं चावल, मक्का, ज्वार, बाजरा, दालें, सब्जी, फल इत्यादि शामिल हैं) कुल कृषि-क्षेत्र के ‘तीन-चौथाई’ पर उगाई जाती हैं। खाद्यान्नों के अधीन क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा अनाज के अधीन है। उदाहरण के लिए, 1950-51 में खाद्यान्नों के अधीन कुल क्षेत्र 9.73 करोड़ हैक्टर था जिसमें से अनाज के अधीन क्षेत्र 7.82 करोड़ हेक्टर था। इस प्रकार खाद्यानों के अधीन क्षेत्र में से लगभग 80 प्रतिशत अनाज के अधीन था। 1993-94 में खाद्यान्नों के अधीन कुल क्षेत्र 12.24 करोड़ हैक्टर था जिसमें से अनाज के अधीन क्षेत्र 10 करोड़ हैक्टर (अर्थात् 81.7 प्रतिशत) था। इस प्रकार दालों के अधीन 1950-51 में केवल 19.6 प्रतिशत क्षेत्र था जो 1993-94 में और कम होकर केवल 18.3 प्रतिशत रह गया। इसका प्रमुख कारण यह है कि पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार इत्यादि राज्यो में दालों के अधीन कुछ क्षेत्र में दालों के स्थान पर गेहूं बोया जाने लगा।
  2. भारत की सबसे महत्वपूर्ण खाद्य फसल चावल है। 1950-51 में 3.08 करोड़ हैक्टर भूमि पर चावल बोया गया जो खाद्यान्नों के अधीन क्षेत्र का 31.7 प्रतिशत था। 1992-93 में 4.2 करोड़ हैक्टर भूमि पर चावल बोया गया जो खाद्यानों के अधीन कुल क्षेत्र का 34.3 प्रतिशत था। इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत में खाद्यानों के अधीन क्षेत्र का 30 प्रतिशत से अधिक, हमेशा चावल के लिए रहा है। वस्तुतः पिछले कुछ वर्षों में लगभग सभी राज्यों में चावल-अधीन क्षेत्र में वृद्धि हुई है। इसका मुख्य कारण यह है कि सरकार ने चावल के उत्पादन को बढ़ाने के लिए विशिष्ट चावल उत्पादन कार्यक्रम चालू किये हैं तथा वर्षों के प्रयास के बाद अब नई कृषि युक्ति चावल का उत्पादन बढ़ाने में सक्षम हुई है।
  3. भारत की दूसरी महत्वपूर्ण खाद्यान्न फसल गेहूं है। 1950-51 में गेहूं 0.98 करोड़ हैक्टर पर बोई जाती थी जो खाद्यानों के अधीन क्षेत्र का 10 प्रतिशत हैं। हरित क्रांति के काल में गेहूं के अधीन क्षेत्र में काफी वृद्धि हुई है। 1993-94 में खाद्यान्नों के अधीन क्षेत्र का 20.3 प्रतिशत गेहूं के अधीन था। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश तथा बिहार में गेहूँ अधीन क्षेत्र में काफी वृद्धि हुई है। इसका मुख्य कारण नई प्रौद्योगिकी की सफलता तथा कीमत-समर्थन (Price support) व बाजार आधारिक संरचना का विकास है।
  4. मोटे अनाजों की स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है। 1950-51 में खाद्यान्नों के अधीन क्षेत्र का 28.6 प्रतिशत ज्वार, बाजरा और मक्का के अधीन था। 1993-94 में यह कम होकर 23.2 प्रतिशत रह गया। ऐसा नहीं है कि इन फसलों के लिए उन्नत किस्मों की खोज नहीं हुई है। वास्तव में नई किस्मों का पता लगाने में सफलता मिली है और नई किस्मों की उत्पादकता पुरानी किस्मों की तुलना में तीन से सात गुणा तक अधिक भी है। परन्तु नई उन्नत किस्में विशिष्ट क्षेत्रों में ही प्रयोग किये जा सकती हैं तथा इन पर कीड़े-मकोड़ों व बीमारियों का अधिक प्रकोप होने की संभावना है। उसके अलावा मोटे अनाजों के उत्पादन में “लाभ की दर कम है, इन्हें घटिया अनाज माना जाता है तथा इनका उपभोग व उत्पादन गरीब लोगों द्वारा किया जाता है इसलिए उच्च लागतों वाले आगत (जैसे रासायनिक उर्वरक) का प्रयोग कर सकने की इनकी क्षमता कम है।” मोटे अनाजों को बेहतर अनाजों जैसे चावल व गेहूं से कुछ स्थानों पर प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है क्योंकि कहीं-कहीं चावल व गेहूं इनसे कम कीमत पर उपलब्ध होने लगे हैं। इन सब कारणों के परिणामस्वरूप, अधिकतर राज्यों में या तो मोटे अनाजों के अधीन क्षेत्र स्थिर रहा है या उसमें तेज कमी आई है।
  5. तिलहनों के अधीन क्षेत्र 1950-51में 1.07 करोड़ हैक्टर तथा 1985-86 में 19 करोड़ हैक्टर था। खाद्य तेलों की घरेलू मांग को पूरा करने के लिए सरकार को 1980-85 के बीच काफी मात्रा में तिलहनों का आयात करना पड़ा। इसलिए तिलहनों के उत्पादन बढ़ाने के दृष्टिकोण से 1980 के दशक में सरकार ने कई कार्यक्रम आरम्भ किये–1985-86 में राष्ट्रीय तिलहन विकास परियोजना। मई 1986 में तिलहनों का प्रौद्योगिकी मिशन तथा 1987-88 में तिलहन उत्पादन थ्रस्ट कार्यक्रम बनाया। इन कार्यक्रमों के परिणामस्वरूप तिलहनों के अधीन क्षेत्र में तेज वृद्धि हुई और यह 1985-86 में 1.90 करोड़ हैक्टर से बढ़कर 1993-94 में 2.08 करोड़ हैक्टर हो गया। इस अवधि में मूंगफली तथा सोयाबीन के अधीन क्षेत्र में काफी वृद्धि हुई।
  6. जहाँ तक वाणिज्यिक फसलों का प्रश्न है, गन्ने के अधीन क्षेत्र 1950-51 में 0.17 करोड़ हैक्टर था जो 1993-94 में बढ़कर 0.34 करोड़ हैक्टर हो गया। रुई के अधीन 1950- 51 में 0.59 करोड़ हैक्टर क्षेत्र था जो 1993-94 में 0.73 करोड़ हैक्टर हो गया। इसी अवधि मे पटसन के अधीन क्षेत्र 10 लाख हैक्टर से बढ़कर 70 लाख हैक्टर हो गया।

ऊपर दिए गए विवरण से यह बात स्पष्ट होती है कि हाल के वर्षों में नकद फसलों (Cash Crops) के अधीन क्षेत्र में सापेक्षिक रूप से वृद्धि हई है। क्योंकि हाल के वर्षों के लिए कुल फसल-अधीन क्षेत्र सम्बन्धी आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए अशोक गुलाटी व अनिल शर्मा ने गेहूँ, चावल, मोटा अनाज, दालें, तिलहन, रुई, गन्ना, पटसन व मेस्ता, रबड़ व आलू अधीन क्षेत्र को कल फसल अधीन क्षेत्र मानकर विभिन्न फसलों के हिस्से का अनुमान लगाया है। इस अनुमान के लिए 1986-87 को समाप्त होने वाली त्रिवर्षीय अवधि तथा 1991-92 को समाप्त होने वाली त्रिवर्षीय अवधि को लिया गया है। अध्ययन से पता चलता है कि इस अवधि में गेहूं के हिस्से में 1.92 प्रतिशत तथा चावल के हिस्से में 0.35 प्रतिशत गिरावट आई है। सबसे

अधिक हानि मोटा अनाज तथा दालों को हई और इनके अधीन क्षेत्र में क्रमशः 11.94 प्रतिशत तथा 2.85 प्रतिशत कमी हुई। दूसरी ओर, इसी अवधि में, तिलहनों के अधीन क्षेत्र में 23.73 प्रतिशत तथा गन्ने के अधीन क्षेत्र में 18.82 प्रतिशत वृद्धि हुई। इन तथ्यों से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि हाल के वर्षों में फसलों के ढांचे में नकद फसलों (जैसे तिलहन, गन्ना इत्यादि) की ओर तथा खाद्यान्नों के प्रतिकूल परिवर्तन हुए हैं। अशोक गुलाटी तथा अनिल शर्मा के अनुसार इसं परिवर्तन का मुख्य कारण विभिन्न तिलहनों व गन्ने की उच्च समर्थन कीमतें हैं। खाद्यान्नों (विशेष तौर पर दालों तथा मोटे अनाज) की कीमत पर तिलहनों के क्षेत्र में इस वृद्धि पर अशोक गुलाटी व अनिल शर्मा ने चिन्ता व्यक्त की है क्योंकि दालें प्रोटीन का मुख्य स्रोत हैं। मोटे अनाज भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे गरीब जनता की मुख्य उपभोग-वस्तु है।

सरकारी नीति- विभिन्न फसलों के प्रति सरकार की नीति का निर्यात, कर रियायतों, आगतों की पूर्ति, साख की उपलब्धि इत्यादि के बारे में सरकार की नीति में फसलों के ढांचे को प्रभावित करती है। स्वतन्त्रता से पहले सरकारी नीति का कृषि क्षेत्र में हस्तक्षेप बहुत कम था और फसलों का ढांचा अन्य कारकों द्वारा निर्धारित होता था। परन्तु स्वतन्त्रता के बाद सिंचाई सुविधाओं के विकास के बारे में सरकारी नीति, वसूली कीमतों व समर्थन मूल्यों के बारे में सरकारी नीति तथा कई अन्य सरकारी नीतियों ने फसलों के ढांचे पर काफी प्रभाव डाला है। विशेष रूप से देश के कुछ चुने हुए क्षेत्रों में उन्नत किस्म के बीजों के आबंटन की नीति तथा आगतों व अन्य सुविधाओं की उपयुक्त उपलब्धि की नीति के परिणामस्वरूप इन क्षेत्रों के किसानों में गेहूं के अधीन क्षेत्र का काफी प्रसार किया है। इस प्रकार इन क्षेत्रों में फसलों के ढांचे में परिवर्तन हुआ है।

नई कृषि युक्ति और हरित क्रांति

(New Agricultural Strategy and Green Revolution)

तृतीय योजनावधि से सरकार ने कृषि क्षेत्र में पैदा होने वाली गम्भीर संकट का तकनीकी हल खोजने का प्रयास किया है। इसे ही नई कृषि युक्ति के नाम से जाना जाता है। इस प्रयास से कृषि क्षेत्र के उत्पादन में तेजी के साथ वृद्धि हुई है जिसे प्रायः हरित क्रांति के नाम से पुकारा जाता है।

भारत में खेती में उत्पादकता स्तर बहुत नीचा है। इससे मुक्ति पाने का एकमात्र उपाय यही है कि पूंजी की मात्रा को बढ़ाकर उत्पादन तकनीक में परिवर्तन किया जाए। इससे उत्पादन के स्तर को ऊंचा उठा पाना सम्भव होगा। टी0 डब्ल्यू० शुल्ज (T.W. Schultz) तथा जॉन डब्ल्यू0 मीलोर (John W. Mello ) का मत है कि भारत जैसे देशों में उत्पादकता के ऊँचे स्तर  प्राप्त करने के लिए वर्तमान तकनीकों को छोड़कर नई तकनीकों को अपनाना होगा। वास्तव में इस कृषि युक्ति में कोई नई बात नहीं है। दूसरे विश्व युद्ध के समय से ही राकफैलर फाउण्डेशन के विशेषज्ञों ने, जिनमें नर्मल बोरलाग (Normal Borlaug) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, मैक्सिको में गेहूं की नई किस्में खोजने का काम किया है। इस दिशा में मिली सफलता के आधार पर संयुक्त राज्य अमेरिका के अर्थशास्त्रियों ने अल्प-विकसित देशों में कृषि विकास के लिए जो माडल तैयार किया है, उसमें भूमि सुधारों के लिए कोई स्थान नहीं है। महज उर्वरकों के साथ-साथ अधिक उपज देने वाले (HYV) बीजों के प्रयोग को कृषि विकास करने के लिए पर्याप्त शर्त माना गया है। इस नई नीति के समर्थक इस बात से इन्कार नहीं करते कि यदि बड़े किसानों को अच्छे किस्म के बीच और उर्वरक की व्यवस्था के साथ-साथ सिंचाई की सुविधाएं भी प्रदान की जाएँ तो वे कृषि उत्पादकता को बढ़ाकर और अधिक धनी हो जाएंगे, लेकिन उनका तर्क है कि भारत जैसे देशों में कृषि उत्पादन को बढ़ाने का एकमात्र उपाय यही है।

नई कृषि युक्ति कृषि की व्यवहार्यता

(Practicability of New Agricultural Strategy)

भारत में नई कृषि युक्ति के अनुसार कृषि क्षेत्र में उत्पादकता बढ़ाने के लिए पहला संगठित प्रयास 1960-61 में ‘गहन कृषि-जिला कार्यक्रम’ (Intensive Agricultural District Programme) के लिए चुने गये सात जिलों के लिए पाइलट परियोजना के रूप में किया गया था। इस प्रयोग में मिली सफलता से उत्साहित होकर सरकार ने अक्टूबर 1965 में इस नीति को ‘गहन कृषि क्षेत्र कार्यक्रम’ के अन्तर्गत चुने गये 114 जिलों में लागू किया।

अल्प-विकसित देशों में पिछड़ी कृषि के तकनीकी हल की नीति कुछ अन्य देशों में पहले सफल हो चुकी थी। उदाहरणार्थ, 1965 में मैक्सिको में गेहूं की प्रति हैक्टर पैदावार 5 से 6 हजार किलोग्राम हो गई थी। इसी प्रकार ताईवान में प्रति हैक्टर उपज लगभग 5,000 किलोग्राम तक पहुंच गई थी। भारत सरकार को दूसरे देशों की सफलताओं से कृषि विकास की सम्भावनाओं का पता चला। इसके अलावा भारतीय कृषि अनुसन्धान केन्द्रों ने भी मक्का, बाजरा और ज्वार की संकर (hybrid) किस्में खोज निकालीं जिनके द्वारा इन फसलों की प्रति हैक्टर उपज में वृद्धि कर सकना संभव हुआ। नई कृषि नीति को पैकेज कार्यक्रम (package programme) के रूप में ही अपना सकना सम्भव था। दूसरे शब्दों में, नई कृषि नीति की सफलता के लिए आवश्यक था कि सिंचाई की नियन्त्रित व्यवस्था के साथ-साथ रासायनिक उर्वरकों, संकर बीजों और कीटनाशक दवाओं का उपयोग किया जाए। इस बात को ध्यान में रखते हुए नई कृषि युक्त (New Agricultural Strategy) को 1966 में एक पैकेज कार्यक्रम के रूप में शुरू किया गया और इसे अधिक उपज देने वाली किस्मों का कार्यक्रम (High Yielding Varieties Programme) की संज्ञा दी गई। चौथी योजना शुरू होने के समय यह कार्यक्रम 18 लाख 90 हजार हैक्टर भूमि पर लागू किया गया। 1934-94 तक यह कार्यक्रम 6 करोड़ 66 लाख हैक्टर पर अपनाया जा चुका था जो कि खाद्यान्नों के अधीन क्षेत्र का 54.4 प्रतिशत तथा कुल कृषित क्षेत्र के एक-तिहाई से थोड़ा अधिक है।

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Pankaja Singh

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