भारत में नगरीय मलिन बस्तियों के उद्भव के कारण | भारत में गन्दी बस्तियाँ | Reasons for the emergence of urban slums in India in Hindi | Slums in India in Hindi
भारत में नगरीय मलिन बस्तियों के उद्भव के कारण
औद्योगिक क्रांति ने नगरीकरण को जन्म दिया। नगरीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा विशाल जनसंख्या एक केन्दु-बिंदु के चारों ओर केन्द्रित हो जाती है और इसी स्थान पर निवास करने को बाध्य हो जाती है। यह एक ऐसा स्थान होता है, जहाँ किसी प्रकार की पूर्व नियोजित योजना नहीं होती। निवास के लिए आवस-गृहों का निर्माण अव्यवस्थित होती है। आने-जाने के मार्ग समुचित नहीं होते हैं। पीने के पानी की भी व्यवस्था उचित नहीं होती। गंदे पानी की निकासी के लिए नालियाँ नहीं होतीं। पानी रास्तों फैलता रहता है, गड्ढे बन जाते हैं, पानी सड़ने लगता है। उसी में कूड़ा फिकने लगता है। बदबू व बीमारियाँ फैलने लगती हैं। जीवन नारकीय हो जाता है, वहाँ से निकलकर जाने वालों व वहाँ आने-जाने वालों को अनुभव होता है कि यहाँ पर लोग नर्क में रह रहे है, परन्तु वहाँ रहने वालों को नर्क नहीं लगता। उनका रहन-सहन का स्तर भी निम्न होता है। अनैतिक वातावरण बन जाता है। समाज विरोधी तत्वों का जन्म होने लगता है। इस प्रकार के तत्व परिवार व समाज को विघटन की ओर ले जाते हैं।
भारत में गन्दी बस्तियाँ
भारत में गन्दी बस्तियों का जन्म औद्योगिक प्रगति के साथ ही आरंभ हो गया। जहाँ पर भी औद्योगिक इकाइयाँ आरंभ हुई, उसके इर्द-गिर्द श्रमिकों ने अपने आवास बनाने आरंभ कर दिये। झुग्गी-झोपड़ियों ने खाली पड़ी भूमि पर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। एक तो श्रमिक अपने रोजगार स्थल के करीब रहना चाहते हैं, दूसरे उनकी आय इतनी नहीं होती कि वे किराये का मकान ले सकें। उनकी आजीविका तो मात्र उन्हें रोटी ही प्रदान कर सकती है।
सन् 1928 में ब्रिटिश श्रमिक संघ कांग्रेस का शिष्टमंडल भारत आया तो उसने यहाँ की श्रमिक बस्तियों की आवास व्यवस्था पर टिप्पणी की है कि, “हम जहाँ कहीं भी रूके, वहाँ श्रमिकों के आवास को देखने गये। यदि हमने उन्हें नहीं देखा होता तो हम यह विश्वास कभी नहीं. करते कि इतने खराव निवास भी हो सकते हैं।
डॉ० मेहता ने गन्दी बस्तियों के जीवन के बारे में लिखा है कि, “वेश्यावृत्ति, अपराध, मद्यपान, जुआ, गिरोहबन्दी, पतित यौवन, अकुशलता आदि यहाँ के लक्षण हैं।”
2 अक्टूबर, 1952 को पं0 जवाहरलाल नेहरू ने कानपुर की एक श्रमिक बस्ती में कहा था कि “भारतीय श्रमिकों की आवास व्यवस्था नरककुण्ड के समान है।” मुम्बई की गन्दी बस्तियों के सम्बन्ध में विचार व्यक्त करते हुए डॉ० शिवराज ने लिखा है कि, “एक छोटे से कमरे में 24 व्यक्ति रहते हुए देखे गये, गलियाँ इतनी तंग थीं कि दिन में भी रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था, दो व्यक्ति एक साथ चल नहीं सकते। दोपहर में भी कमरे में बिना दियासलाई जलाये कुछ दिखाई नहीं देता।”
रॉयल कमीशन ने अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट में लिखा है कि, “औद्योगिक क्षेत्रों में स्थान की कमी व ऊंचे मूल्यों ने श्रमिकों को भीड़पूर्ण गन्दी बस्तियों में रहने को विवश किया। तंग गलियों, कूड़े के ढेर, गन्दे पानी के गड्ढे, पाखानों की व्यवसी न होना, कमरों में प्रकाश व वायु की व्यवस्था न होना, कमरे में एक ही प्रवेश द्वार आदि अनेक अव्यवस्थाओं के बीच मानव जन्म लेते हैं। खाते-पीते जीवन व्यतीत कर मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।”
डॉ० राधाकमल मुकर्जी का कथन है कि, “भारतीय औद्योगिक केन्द्र की श्रम बस्तियों की दशा इतनी भयंकर है कि वहाँ मानवता का विध्वंस होता है। महिलाओं के सतीत्व का नाश होता है और देश के भावी आधार स्तम्भ शिशुओं का गला घुट जाता है।”
गन्दी बस्तियों के वर्णन अत्यन्त वीभत्स व रोंगटे खड़े करने वाले हैं। नगर की जनसंख्या जितनी अधिक होगी, गन्दी बस्तियों का अभिशाप भी उतना ही अधिक देखने को मिलेगा।
भारत में गन्दी बस्तियों के रूप में विभिन्न प्रकार की बस्तियाँ नगरों में पाई जाती हैं –
(1) चाल– भारत में औद्योगिक श्रमिकों की सर्वाधिक संख्या मुम्बई में है। मुम्बई में ‘चाल’ उन बस्तियों को कहा जाता है, जहाँ श्रमिक व मध्यम वर्ग के लोग निवास करते हैं। जहाँ पर कमरे इतने छोटे और गंदे होते हैं, जैसे कि मुर्गी और कबूतरों को पालने के लिए बनाये गये हों। चाल के कुछ मकान 5-6 मंजिलों के भी होते हैं, परन्तु खिड़की, रोशनदान इनमें नहीं होते। न तो इनकी नालियों के गन्दे पानी की निकासी की व्यवस्था होती है और न ही कूड़े को हटाने की कोई व्यवस्था। शौचालय भी अत्यन्त गन्दे और बदबूदार, उनकी सफाई का भी कोई प्रबन्ध नहीं होता। अधिकांश परिवार इन चालों में एक ही कमरे में निवास करते हैं। कहीं-कहीं तो एक कमरे में तीन और चार परिवार तक रहते हैं, जिनकी कुछ सदस्य संख्या 15-16 तक हो जाती है।
शाही श्रम आयोग ने इन चालों के बारे में अपने प्रतिवेदन में स्पष्ट किया है कि-
“अधिकांश चालों में सुधार लाने की कोई गुंजाइश नहीं है, इनको नष्ट कर देने की आवश्यकता है।”
आयोगों के प्रतिवेदन समाजशास्त्रीय विद्वानों के लेख, समाज-सुधारकों के सुझाव स्पष्ट करते हैं कि मुम्बई की चालें मानव समाज के पतन की पराकाष्ठा प्रस्तुत करती है। इनको देखकर इन्सान का दिल दहल जाता है, पीड़ा और वेदना अनुभव होने लगती है।
(2) बस्ती- भारत के दूसरे सबसे बड़े नगर कोलकाता में गन्दी बस्तियाँ बस्ती’ के नाम से पुकारी जाती हैं। इन बस्तियों का निर्माण उद्योगपतियों और पूंजीपतियों ने अपने आर्थिक लाभ के लिए किया था। इन बस्तियों की भी वही स्थिति है जो मुम्बई की चालों की है। वही गन्दगी, वहीं दुर्गन्ध और सड़ांध, पानी, हवा, सफाई का अभाव।
कोलकाता कॉरपोरेशन के प्रबन्ध प्रतिवेदन में इन गन्दी बस्तियों का उल्लेख इस प्रकार किया गया है- “बस्ती में बहुत से कच्चे मकान होते हैं, जिनमें सड़कों, नालियों, जल व प्रकाश की कोई व्यवस्था नहीं होती। यह बस्तियाँ कुकर्म, दुःख, रोग व अनेकों बीमारियों को जन्म देती हैं। इन बस्तियों में प्रायः दूषित हरे जल के तालाब पाये जाते हैं जिनमें वहाँ के निवासियों द्वारा सड़ी सब्जियाँ और पशुओं का मलमूत्र फेंका जाता है, जो सड़ता रहता है। अधिकांश श्रमिक अपने दैनिक उपयोग के लिए जल इन्हीं तालाबों से प्राप्त करते हैं। पूरा परिवार एक कमरे में रहता है, उसी में भोजन बनता है, खाता है व रात्रि में गीले व नम फर्श पर सो जाता है।
कोलकाता में पिछले 26-27 वर्षों से साम्यवादी दल का शासन है। साम्यवाद श्रमिकों को प्रोत्साहित कर पनपता है। श्रमिकों की बैसाखी को प्रयोग में लाकर साम्यवादी बंगाल में शासन तो कर रहे हैं, परन्तु इन बस्तियों में निवास करने वालों का जीवन सुधारने के लिए इतने वर्षों में भी सरकारी तंत्र ने कुछ नहीं किया।
(3) अहाता- भारत के मानचेस्टर कहे जाने वाले प्रमुख औद्योगिक नगर कानपुर में गन्दी बस्तियों को ‘अहाता’ कहा जाता है। अधिकांश श्रमिक इन अहातों में निवास करते हैं। इन अहातों की दशा भी इतनी ही शोचनीय है, जितनी मुम्बई की चालों और कोलकाता की बस्तियों की।
कानपुर श्रमिक जाँच समिति– ने अपने प्रतिवदेन में कानपुर की श्रमिक बस्तियों ‘अहाता’ के बारे में अपनी रिपोर्ट में लिखा है, “किसी अपरिचित व्यक्ति के लिए रात्रि में इन ‘अहाता’ बलियों में जाना खतरनाक हो सकता है। उनके घुटने में निश्चित ही चोट लग जायेगी। किसी गड्ढे या सूखे कुएं में गिरकर गर्दन भी टूट सकती है।” इन गन्दी बस्तियों में रहने वाले व्यक्ति मानव जाति के भयंकर शत्रु कीड़े-मकोड़े व खटमलों के शिकार होते हैं।
सन् 1952 में प्रधानमंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू ने कानपुर की इन बस्तियों का भ्रमण कर कहा था कि, “यह गन्दी बस्तियाँ मानव के पतन की पराकाष्ठा की प्रतीक है। जो लोग इन बस्तियों के लिए उत्तरदायी हैं, उन्हें फांसी दे दी जानी चाहिए।”
कानपुर की इन अहाता नामक गन्दी बस्तियों को जीता-जागता नर्क कुण्ड कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा। हमारे पौराणिक ग्रंथों में नर्क की भी परिभाषा की गई है, उसका जीता- जागता उदाहरण कानपुर की गन्दी बस्तियों में देखने को मिलता है।
(4) चेरी- चेन्नई भी भारत के अन्य महानगरों की गन्दी बस्तियों की वीभत्सतता से भित्र नहीं है। यहाँ गन्दी बस्तियों को ‘चेरी’ कहा जाता है। कच्ची मिट्टी से 6′ x 8′ फीट के बने कमरों में जो प्रायः वर्षा ऋतु में और भी अधिक नारकीय हो जाते हैं, लाखों श्रमिक अपना जीवन व्यतीत करते हैं।
महात्मा गाँधी एक बार मद्रास (चेन्नई) गये तो इन चेरियों का भ्रमण करने के बाद “एक चेरी जिसे मैंने देखा, उसके चारों ओर गन्दा पानी और गन्दी नालियाँ थीं। यह चेरियाँ सड़क तल से नीची हैं, वर्षा का पानी इनमें भर जाता है, सड़कों, नालियों की व्यवस्था नहीं है। रोशनदान भी नहीं हैं, ये चेरियाँ इतनी नीची हैं कि इनमें झुककर ही घुसा जा सकता है, यहाँ की सफाई निम्न स्तर से भी खराब है।”
चेन्नई की चेरियाँ अधिकांश निजी स्वामित्व में हैं, कुछ नगरपालिका व सरकारी क्षेत्र व ट्रस्ट की हैं। भारत के अन्य औद्योगिक नगरों में भी श्रमिक बस्तियाँ गन्दी बस्तियों के रूप में दिखाई देती हैं।
(5) झुग्गी-झोंपड़ी- दिल्ली में गन्दी बस्तियाँ ‘झुग्गी-झोपड़ी’ के नाम से दिल्ली के चारों ओर फैली हुई हैं। इस प्रकार की कई बस्तियों को दिल्ली प्रशासन ने नियमित मानकर समस्त नागरिक सुविधाएँ- जैसे- पानी, बिजली, सफाई, विद्यालय, अस्पताल आदि प्रदान किये हैं। कई झुग्गी-झोपड़ियों में आग लग जाने से पूरी की पूरी बस्ती जलकर स्वाहा हो जाती है। कई बार झुग्गी-झोपड़ियों की बस्तियाँ दिल्ली प्रशासन बुलडोजर चलाकर साफ कर चुका है। फिर और कोई स्थान देखकर वहाँ पहुँचकर श्रमिक लोग रहने के लिए झुग्गियाँ बना लेते हैं। देश में ऐसा कोई औद्योगिक नगर नहीं है, जहाँ यह गन्दी बस्तियाँ न हों।
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