अर्थशास्त्र

भारत में कृषि की निम्न उत्पादकता के कारण | भारतीय कृषि में उत्पादकता में सुधार के उपाय | कृषि की निम्न उत्पादकता को किस प्रकार बढ़ाया जा सकता

भारत में कृषि की निम्न उत्पादकता के कारण | भारतीय कृषि में उत्पादकता में सुधार के उपाय | कृषि की निम्न उत्पादकता को किस प्रकार बढ़ाया जा सकता | Reasons for low productivity of agriculture in India in Hindi | Measures to improve productivity in Indian agriculture in Hindi | How can the low productivity of agriculture be increased in Hindi

भारत में कृषि की निम्न उत्पादकता के कारण

भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां की करीब 64 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर ही आश्रित है तथा देश की कुल राष्ट्रीय आय में इसका योगदान लगभग 30 प्रतिशत है। किन्तु फिर भी, यहां की कृषि के पिछड़ेपन के सम्बन्ध में वर्षों पूर्व डॉ. क्लाउस्टन का यह कथन कि “भारत में हमारी पिछड़ी जातियां तो हैं ही, हमारे पिछड़े व्यवसाय भी हैं और दुर्भाग्यवश कृषि उसमें से एक है।” आज भी अक्षरशः सत्य प्रतीत होता है। यहां की कृषि निम्नलिखित समस्याओं के कारण पिछड़ी हुई है।

(1) दोषपूर्ण भूमि व्यवस्था (Deficit System of Land Tenures) –

भारत में भूमि-व्यवस्था दोषपूर्ण है। स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व देश के विभिन्न भागों में जमींदारी, जागीरदारी, इत्यादि मध्यस्थों के पास कुल कृषि योग्य क्षेत्र का 40 प्रतिशत भाग था। मध्यस्थ अपनी भूमि किसानों को खेती करने के लिए देते थे और उनसे मनचाहे ढंग से लगान, बेगार, नजरान, इत्यादि वसूल करते थे। इस अवस्थ में किसान भूमि सुधार के लिए कोई प्रयास नहीं करते थे, क्योंकि बराबर उन्हें भूमि से बेदखल होने का भय लगा रहता था। किन्तु आज जबकि मध्यस्थों का उन्मूलन कर दिया गया है तथा किसानों को भूमि का मालिक बना दिया गया है, इसके बावजूद स्थिति संतोषजनक नहीं है। जोतों का अनार्थिक आकार और फार्म सेवाओं की अपर्याप्तता के कारण किसान कुशलतापूर्वक उपज को संगठित करने में असमर्थ हैं।

(2) जोतों का अनार्थिक आकार (Uneconomic size or holdings) –

डॉ. हेराल्ड मान ने सन् 1917 में पूना के एक गांव का अध्ययन करने के बाद यह बताया थ कि वहां 1771 में औसत जोत 40 एकड़ थी, जो 1818 में घटकर 17.5 एकड़ हो गयी थी तथा 1915 में मात्र 7 एकड़ रह गयी उन्होंने यह भी बताया कि 1905 में 60 प्रतिशत जोत 5 एकड़ से छोटी थी, जबकि 10 एकड़ से कम क्षेत्र वाली जोतों का अनुपात 81 प्रतिशत था।

श्री ए.डी. पटेल ने 1937 में प्रकाशित अपनी पुस्तक में बताया था कि 1901 में गुजरात में जहां 5 एकड़ से छोटे खेतों का अनुपात 58 प्रतिशत था, वह 1921 में बढ़कर 82 प्रतिशत हो गया। डॉ. भगत ने बम्बई राज्य के भिवांडी तालुका का अध्ययन करने के बाद यह बताया कि 1986 में 5 एकड़ से छोटे खेतों का अनुपात 41.7 प्रतिशत था, जो 1903 में बढ़कर 62.7 प्रतिशत और 1921 में 74.2 हो गया।

1940 में टॉमस तथा रामकृष्णन की रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण भारत के गांवों में औसत जोत का क्षेत्र 2.1 एकड़ था, जिसमें 68 प्रतिशत जोतें एक एकड़ से कम तथा 42 प्रतिशत आधी एकड़ से भी छोटी थीं।

जोतों का औसत आकार जो 1970-71 में 2.28 हेक्टेयर था, जो गिरकर 1990-91 में 1.57 हेक्टेयर हो गया अर्थात् इस अवधि में इसमें 31 प्रतिशत की गिरावट रही।

(3) उन्नत बीजों का अभाव (Lack of Improved Seeds)-

भारत में उन्नत बीजों का अभाव है। अतः खेती में पुराने एवं घटिया किस्म के बीजों का प्रयोग होता है। जिससे फसल बहुत कम होती है। पिछले कुछ वर्षों से देश में अधिक उपज देने वाली बीज की किस्मों का आविष्कार हुआ है, किन्तु देश में इनका बड़े पैमाने पर प्रयोग नहीं हो रहा है।

(4) पुराने औजारों का प्रयोग-

भूमि की पैदावार इसके उपयोग में आने वाले उपकरणों पर भी निर्भर करती है। भारतीय किसान आज भी उन्हीं प्राचीन औजारों का प्रयोग करते हैं जो आज से हजारों वर्ष पूर्व किये जाते थे। यहां ट्रैक्टर एवं खेती के नये वैज्ञानिक उपरकरणों के प्रयोग से कृषि की उपज में काफी वृद्धि हुई है।

(5) जोतों का उपविभाजन एवं अपखण्डन-

भारत में जनसंख्या के दबाव के काण जोतों का अत्यधिक उपविभाजन एवं उपखण्डन होता चला जा रहा है। परिणामस्वरूप, जमीन प्रायः छोटे-छोटे टुकड़ों में तथा विभिन्न स्थानों में बिखरती जा रही है। अनुमानतः 70 प्रतिशत से अधिक किसानों के पास 3 एकड़ या इसके कम जोतें हैं। इस प्रकार जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े एवं विभिन्न स्थानों में बिखरे होने के कारण इनमें वैज्ञानिक उपकरणों तथा नयी पद्धति से खेती करने में कठिनाई होती है और परिणामस्वरूप उपज कम होती है।

(6) किसानों की गरीबी एवं ऋणग्रस्तता-

भारतीय किसान अत्यन्त ही गरीब है तथा वे हमेशा ऋण के बोझ से दबे होते हैं। ये जन्म से लेकर मुत्यु तक महाजनी के चंगुल में फंसे होते हैं, तभी तो कहा गया है कि “भारतीय किसान ऋण में जन्म लेता है, ॠण में पलता है और ऋण में ही मर जाता है।” भारतीय किसान गरीबी तथा ऋणग्रस्तता के कारण खेती में अच्छे औजार, उत्तम खाद, उन्नत बीज, आधुनिक कृषि मशीनें और यन्त्र जैसे ट्रेक्टर, हार्वेस्टर, डीजल इंजन, आदि का प्रयोग नहीं कर पाते जिससे उपज कम होती है।

(7) प्रकृति पर निर्भरता-

भारतीय कृषि के पिछड़ेपन का प्रमुख कारण प्रकृति पर निर्भरता है। एक कृषि प्रधान देश में सिंचाई के साधनों का महत्व स्वस्थ शरीर में रक्त संचालन की तरह है। किन्तु भारतीय कृषि को ‘मानसून के साथ जुआ’ कहा गया है, क्योंकि ये पूर्णरूप से आकाशीय वृष्टि पर निर्भर करते हैं। आकाशीय वृष्टि के अन्तर्गत कभी अतिवृष्टि होती है, तो कभी अनावृष्टि और ये दोनों ही खेती के लिए अनुपयुक्त होती हैं। यहां सिंचाई के रूप में नहरों, कुंओं तथा तालाबो का प्रयोग किया जाता रहा है जो आकाशीय वृष्टि से सम्बन्धित हैं। अतः उपज का कम होना स्वभाविक है।

(8) कम उपजाऊ भूमि पर खेती-

देश में बढ़ती हुई जनसंख्या के भरण-पोषण के साधन को उपलब्ध कराने के लिए किसानों को अपेक्षाकृत कम उपजाऊ भूमि पर खेती करने के लिए बाध्य होना पड़ता है।

(9) कमजोर पशु-

भारतीय कृषि में पशुओं का विशेष महत्व है। किसानों को हलों को खींचने के लिए बैल तथा खाद, दूध, दही, घी के लिए अन्य पशुओं पर आश्रित रहना पड़ता है, किन्तु यहां के पशु अत्यन्त ही कमजोर और बुरी नस्ल के हैं। पशुओं के कमजोर होने का मुख्य कारण पौष्टिक चारे एवं चिकित्सा का अभाव है। कमजोर पशुओं के द्वारा कृषि होने से उपज कम होती है।

(10) फसलों पर बीमारियों एवं कीड़े-मकोड़ों का प्रकोप-

फसलो की अनेक बीमारियों (रस्ट, स्मट्स, ब्लैक-रॉट) के कारण यहां की कृषि को काफी क्षति होती है। इसके अतिरिक्त कीड़े-मकोड़े टिड्डी एवं जंगली जानवर, इत्यादि से भी फसलों को काफी क्षति पहुंचती है। विशेषज्ञों के अनुसार यहां करीब 16 प्रतिशत फसल इन जानवरों और कीड़े-मकोड़ों के प्रभाव के कारण बर्बाद हो जाती है। भारतीय फसलों में 60 से 70 करोड़ रु. की हानि प्रति वर्ष हो जाती है।

(11) उत्तम खाद का अभाव-

कृषि की अधिक उपज मुख्यतः खाद पर निर्भर करती है, लेकिन यहां इसका अभाव है। यहां के किसानों की गरीबी, उन्हें अच्छी किस्म की खाद उपलब्ध होने पर भी उसका प्रयोग नहीं करने देती। गोबर की खाद उत्तम होती है, लेकिन इसका अधिकांश प्रयोग जलाने के लिए ही किया जाता है। भारतीवासियों की बुरी आदतों में गोबर जलाने की प्रवृत्ति के कारण बहुमूल्य खाद यों ही नष्ट हो जाती है और उत्तम खाद के अभाव में उपज भी बहुत कम होती है।

(12) कृषि पर जनसंख्या की अत्यधिक निर्भरता-

भारत की कुल जनसंख्या का करीब 64 प्रतिशत तथा कृषि पर ही निर्भर है जबकि कनाडा में 11 प्रतिशत, संयुक्त राज्य अमेरिका में 7 प्रतिशत तथा ग्रेट ब्रिटेन में 5 प्रतिशत लोग ही कृषि पर निर्भर हैं। अतः विश्व के किसी भी विकसित राष्ट्र में कृषि पर जनसंख्या का इतना अधिक बोझ नहीं है। इसके अतिरिक्त यहां जनसंख्या का बोझ निरन्तर बढ़ते रहने के कारण जोतों का आकार भी छोटा होता जा रहा है जिससे कृषि कार्य अनार्थिक हो जाता है तथा उपज भी बहुत कम होती है।

(13) कृषि बाजार की दोषपूर्ण व्यवस्था-

भारत में कृषि बाजार भी दोषपूर्ण है। यातायात के साधनों की कमी, माप तौल की विविधता, मध्यस्थों की अधिकता, गरीबी के दबाव, इत्यादि के कारण किसानों को अपनी नहीं होता और साथ ही कृषि कार्य में अत्यधिक रूचि लेने को प्रोत्साहन भी नहीं मिलाता। इसके अतरिक्त यहां पर्याप्त गोदामों की भी कमी है। जिसके कारण अच्छे बाजार की प्रत्याशा में उपज का एकत्रीकरण भी नहीं किया जा सकता है।

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Pankaja Singh

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