भूगोल

भारत के जनगणना विभाग के अनुसार वर्गीकरण | नगरों के विकास की अवस्थाएँ

भारत के जनगणना विभाग के अनुसार वर्गीकरण | नगरों के विकास की अवस्थाएँ

भारत के जनगणना विभाग के अनुसार वर्गीकरण

जनसंख्या के आधार पर नगरों को निम्नलिखित श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है-

(1) 20 से 200 व्यक्ति तक की जनसंख्या की नगरीय वस्ती को नगरीपुरवा (Urban hamlet) कहते हैं।

(2) 200 से 500 की जनसंख्या के नगर नगरीय ग्राम (Urban village) कहलाते है।

(3) 500 से 10,000 की जनसंख्या के नगर कस्बे (Town) माने जाते हैं, परन्तु कुछ विद्वान 50,000 की जनसंख्या तक नगरों को कस्बों के अन्तर्गत सम्मिलित करते हैं।

(4) 50,000 जनसंख्या की नगरीय बसती को नगर (City) कहा जाता है।

(5) नगरों (Cities) की जनसंख्या बढ़कर जब 10 लाख तक पहुँच जाती है तब वे मिलियन नगर (Million Cities) कहे जाते हैं। 10 लाख से अधिक जनसंख्या के नगर को महानगर (Netriolis) तथा 50 लाख तक पहुँचने पर मैगालोपोलिस (Megalopolis) का नाम दिया जाता है।

भारत के जनगणना विभाग के अनुसार वर्गीकरण

(Classification According to the Census Dept. of India)

भारत के जनगणना विभाग ने जनसंख्या के आधार पर नगरों को छः वर्गों में विभाजित

किया है- (1) प्रथम वर्ग के नगर (Class I Town)- जिनकी जनसंख्या 1,00,000 से अधिक होती है। (2) द्वितीय वर्ग के नगर (Class II Town)-  जिनकी जनसंख्या 50,000 से 99,000 तक होती है। (3) तृतीय वर्ग के नगर (Class II Town) –  जिनकी जनसंख्या 20,000 से 49,999 तक होती है। (4) चतुर्थ वर्ग के नगर (Class IV Town )- जिनकी जनसंख्या 10,000 से 19,999 तक होती है। (5) पंचम वर्ग के नगर (Class V Town ) – जिनकी जनसंख्या 5,000 से 9,999 तक होती है। (6) षष्ठम वर्ग के नगर (Class VI Town) – जिनकी जनसंख्या 5,000 से कम होती है।

नगरों के विकास की अवस्थाएँ

(Stages of the Development of Towns)

नगरों का विकास क्रमिक रूप में होता है, इसलिए नगरीय अधिवास की उत्पत्ति से लेकर विकास की चरम अवस्था तक की अवधि को विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न अवस्थाओं में बाँटा है। इनमें गिडीस, ममफोर्ड तथा टेलर महोदय के वर्गीकरण विशेष महत्त्व रखते हैं-

  1. गिडीस (Geddes) के अनुसार

गिडीस ने नगरों की स्थिति, आर्थिक विकास, ऐतिहासिक सम्वन्ध तथा कार्य के दृष्टि में रखकर नगरों के आर्थिक विकास क्रम को निम्नलिखित दो भागों में बाँटा हैं-

(1) पैलियोटेक्नीक (Palaeotechnic)-पुराने ढंग की अर्थव्यवस्था वाले नगरों को इस वर्ग में सम्मिलित किया है, जिसमें नये ढंग के नियोजन तथा आधुनिक पद्धतियों का सर्वथा अभाव पाया जाता है।

(2) नियेटेक्नीक (Neotechnic)-इस वर्ग में आधुनिक अर्थव्यवस्था तथा वर्तमान तकनीकी एवं मशीनीकरण से युक्त नगरों को सम्मिलित किया है।

  1. ममफोर्ड (Mumford) के अनुसार

ममफोर्ड ने नगरों के विकास क्रम को 6 विभिन्न क्रमिक अवस्थाओं में विभाजित किया है-

(1) प्राकृतिक नगर (Eopolis)- यह नगरीय अधिवास की प्रारम्भिक अवस्था होती है। इसमें बाजारी गाँव के रूप में नगर जन्म लेता है। आवश्यकता की चीजों की दुकानें स्थापित हो जाती हैं। लघु औद्योगिक इकाइयों का सूत्रपात हो जाता है।

(2) सभ्य नगर (Polis)- इस अवस्था में नगर कस्बे के रूप में आ जाता है। पर्यावरण गाँव जैसा होते हुए भी सड़कों, उद्योगों तथा परिवहन की सुविधाओं का विकास हो जाता है। उद्योग-धन्धों कास विकास भी प्रारम्भ हो जाता है।

(3) महानगर (Metropolis) – इस अवस्था तक उद्योग, व्यापार, परिवहन तथा प्रशासनिक व्यवस्थाओं का पूर्ण विकास हो जाता है। नगर का सांस्कृतिक भूदृश्य (Cultural Landscape) भी अब स्पष्ट हो जाता है। इस अवसा में नगर समीपवर्ती लघु उपनगरों के लिए केन्द्र-स्थल का कार्य करने लगता है। ऐसे नगर प्रायः राजधानी या बड़े नगर होते हैं।

(4) विकसित नगर (Megalopolis)- नगर विकास क्रम की यह चरमावस्था होती है। नगर में उद्योग, व्यापार, परिवहन के साधनों तथा संचार के साधनों का पूर्ण विकास हो जाता है। नगर के कर्मोपलक्षी क्षेत्र अलग-अलग स्पष्ट हो जाते हैं। जनसंख्या काफी बढ़ जाती है तथा नगर में प्रदूषण बढ़ जाता है। सिकन्दरिया, न्यूयार्क, पेरिस, लन्दन आदि इसी अवस्था के नगर हैं।

(5) अनियमित नगर (Tyranopolis)- यह नगर की ह्रासोन्मुख अवस्था है। इसमें पहुँच कर नगर का आर्थिक ढाँचा, सामाजिक संगठन तथा प्रशासनिक व्यवसी जर्जर होने लगती है। मानव जीवन असुरक्षित हो जाता है, क्योंकि शान्ति व्यवस्था कमजोर हो जाती है। इसके फलस्वरूप लोग नगर छोड़कर अन्यत्र जाने लगते हैं तथा नगर उजड़ने लगता है।

(6) कीर्तिशेष नगर (Nekropolis) – इस अवस्था में एक नगर पतनोन्मुख हो जाता है। तथा अकाल, महामारी, अभाव तथा दरिद्रता का शिकार हो जाता है। नगर की अवस्था दयनीय हो जाती है।

  1. टेलर (Tay’br) के अनुसार

ग्रिफिथं टेलर किसी नगर के विकास-क्रम में सात अवस्थाओं का उल्लेख किया है-

(1) पूर्व-शैशवावस्था (Sub-infantile Stage)- यह नगर की प्राथमिक अवस्था होती है, जिनमें एकाध सड़कें तथा गलियाँ और आवश्यकता की वस्तुओं की थोड़ी-सी दुकानें हो जाती हैं।

(2) शैशवावस्था (Infantile Stage)- इस अवस्था में सड़कों तथा गलियों का विकास होने लगता है। सड़कें तथा गलियाँ एक-दूसरे को समकोण पर काटती हुई चौक पट्टी प्रतिरूप को जन्म देती हैं। नगर के केन्द्र में दुकानें तथा बाहर की ओर आवासीय मकानों की संख्या बढ़ने लगाती है।

(3) बाल्यावस्था (Juvenile Stage) – इस अवस्था में नगर के मध्य भाग (क्रोड) में एक व्यापारिक क्षेत्र स्पष्ट रूप से स्थापित हो जाता है। केन्द्र में केवल दुकानें ही होती हैं। मुख्य सड़कों के अतिरिक्त कई गलियाँ बन जाती हैं, जिन पर आवासीय मकानों का निर्माण होता है।

(4) किशोरावस्था (Adolescent Stage)- इस अवस्था में नगर के बाह्य भाग की ओर नगर तेजी से बढ़ने लगता है। व्यापारिक क्षेत्र विकसित हो जाते हैं। औद्योगिक क्षेत्र और  बाजार क्षेत्र अलग-अलग स्पष्ट रूप से स्थापित हो चुके हैं। उत्तर प्रदेश में बड़े-बड़े कस्बे (Towns) इसी अवस्था में हैं। इस अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते नगरपालिकाएँ निर्मित हो जाती हैं तथा नगर समीपर्ती क्षेत्र के केन्द्र स्थल के रूप में सेवा प्रदान करने लगता है।

(5) प्रौढ़ावस्था (Mature Stage)-प्रौढ़ावस्था में आकर नगर के कर्मोपलक्षी क्षेत्र जैसे औद्योगिक क्षेत्र, व्यापारिक क्षेत्र, प्रशासनिक क्षेत्र तथा आवासीय क्षेत्र आदि अलग-अलग स्पष्ट हो जाते हैं। व्यापारिक मण्डियों, बैंकों तथा थोक व्यापार की स्थापना हो जाती है। स्कूल, कॉलेज तथा विश्वविद्यालय की स्थापना तथा मनोरंजन के लिए सिनेमाघरों तथा क्रीड़ा एवं पार्क स्थलों का निर्माण हो जाता है। प्रशासनिक कार्यालयों तथा चिकित्सा सेवाओं की इमारतें बन जाती हैं। भारत में एक लाख से अधिक जनसंख्या वाले सभी नगर इसी अवस्था में हैं। परिवहन के आधुनिक साधनों से बड़े-बड़े नगरों से सम्बन्ध जुड़ जाता है। यूरोप तथा सं. रा. अमरीका में 30 हजार से अधिक जनसंख्या के नगर भी इसी अवस्था में हैं।

(6) उत्तर प्रौढ़ावस्था (Late Mature Stage)- इस अवस्था के नगरों में बसाव की योजनावद्ध पद्धति का समावेश हो जाता है। नगर पर आधुनिकतम तकनीकी एवं आयोजन का प्रभाव पड़ा होता है। पुरानी सड़कों के जाल में नयी चौड़ी सड़कों का विकास होता है। औद्योगिक व्यापारिक परिवहन, प्रशासनिक तथा आवासीयस क्षेत्र सुव्यवस्थित ढंग से एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं। नयी-नयी इमारतों का आधुनिक ढंग पर योजनानुसार निर्माण हो जाता है। नगर का बसाव प्रतिरूप सुव्यवस्थित तथा आकर्षक हो जाता है। यह अवस्था नगर विकास क्रम की चरमावस्था मानी जाती है। नगर का विकास आस-पास के ग्राम्य-नगरीय (Rural-urban) क्षेत्र तक हो जाता है तथा प्रभाव क्षेत्र की सीमा बढ़ जाती है और नगर कोनवेशन (Conurbation) का रूप ले लेते हैं। विश्व के बड़े-बड़े नगर जैसे, टोकियो, शंघाई, लन्दन, न्यूयार्क, मास्को, बम्बई, कलकत्ता आदि इस अवस्था के नगर माने जाते हैं।

(7) वृद्धावस्था (Old Stage)- इस अवस्था में नगरों का ह्रास प्रारम्भ हो जाता है। एशिया के प्राचीन नगर इस अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं। समरकन्द, बुखारा आदि इस अवस्था के नगर हैं।

टेलर महोदय द्वारा बतायी गयी उपर्युक्त सात अवस्थाओं का क्रम किसी नगर के विकास के लिए बिलकुल आवश्यक नहीं है। आधुनिक तकनीकी एवं वैज्ञानिक युग में योजनाबद्ध करके विलकुल नये नगरों को प्रौढ़ावस्था के लक्षणों से युक्त बसा दिया जाता है। भारत में भिलाई, चण्डीगढ़, ट्राम्बे, तारापुर, सिन्दरी, राउरकेला तथा टाटानगर जैसे नगर टेलर की उपर्युक्त सातों अवस्थाओं से नहीं गुजरे हैं, बल्कि आधुनिक तकनीकों के आधार पर शीघ्र ही प्रौढ़ावस्था के नगर बना दिये गये हैं। औद्योगिक क्रान्ति के उपरान्त पूर्व सोवियत संघ के अनेक नगरों का विकास इसी ढंग से हुआ है।

प्रमुख नगर (Primage City)- नगरों के आकार के आधार पर किसी देश का सबसे बड़ा या प्रथम स्तर का नगर उस देश का ‘प्रमुख नगर’ कहा जाता है। इसकी संकल्पना मार्क जैफरमन द्वारा 1939 में प्रस्तुत की गयी। जैफरसन ने विश्व के अनेक देशों के नगरीय अधिवासों का अध्ययन करके बताया कि ‘प्रमुख नगर’ किसी देश का सबसे बड़ा नगर होता है, जो द्वितीय स्तर के नगर से दो गुना या तीन गुना बड़ा होता है तथा वह उस देश की राष्ट्रीय प्रवृत्ति का परिचायक होता है। जैफरसन से यह भी बताया कि एक नगर जो एक बार ‘प्रमुख नगर’ बन जाता है वह भविष्य में भी आकार एवं प्रकार में अन्य नगरों की अपेक्षा अधिक बढ़ना जानता है।

जैफरसन का ‘प्रमुख नगर’ का सिद्धान्त विकसित देशों जैसे यूरोपीय देश तथा संयुक्त राज्य अमरीका में ठीक-ठीक लागू होता है, परन्तु विकासशील देशों में आर्थिक विकास कर तीव्र प्रगति, जनसंख्या की बदलती प्रवृत्ति के कारण यह सिद्धान्न ठीक से लागू नहीं हो पाता। भारत में 1941 ई. तक कलकत्ता प्रमुख नगर था, परन्तु मुम्बई की जनसंख्या कलकत्ता से अधिक हो गयी और मुम्बई ने यहाँ के प्रमुख नगर का दर्जा प्राप्त कर लिया।

सन्नगर (Conurbation)- आधुनिक औद्योगिक एवं तकनीकी विकास के फलस्वरूप ‘ विश्व के प्रायः सभी विकसित एवं विकासशील देशों के नगरीकरण में गति आयी है। ऐसी परिस्थिति में किसी देश के दो या दो से अधिक नगरीय वस्तियाँ बाह्य भाग में विस्तार में वृद्धि करते हुए एक संयुक्त नगर-क्रम का रूप लेती है। इस प्रकार के नगर-क्रम को ‘कोनर्बेशन’ कहा जाता है। इस प्रकार अलग-अलग विकसित नगर केन्द्रों का एक-दूसरे की ओर के विस्तार के फलस्वरूप पारिवारिक संयोजन होने तथा बड़े केन्द्र के अन्तर्गत छोटी इकाइयों में विलीन होने से सन्नगरों का प्रादुर्भाव होना है। सन्नागर किसी एक नगरीय केन्द्र के विस्तार के फलस्वरूप निर्मित नहीं होते, बल्कि पृथक प्रशासनिक इकाइयों वाले विभिन्न नगरीय केन्द्रों के बाह्य विस्तार एवं उनके परस्पर मिलने एवं एकीकरंण से इसका निर्माण होता है। इस प्रक्रिया से एक बहुकेन्द्रीय नगर- शृंखला का जन्म होता है, जिसमें विविध इकाइयों के परस्पर एकीकरण के पश्चात् भी इन सभी इकाइयों की अपनी विशिष्टता कायम रहती है।

इस प्रकार सन्नगरों की विकास की प्रथम अवस्था में दो या दो से अधिक स्वतन्त्र नगरीय इकाइयों का बाह्य विस्तारण से परस्पर मिलना है तथा सन्नगर का आविर्भाव माना जाता है। तदुपरान्त निकट की अन्य नगरीय इकाइयाँ अपने वाह्य विस्तार से इसमें मिलकर सन्नगर के स्वरूप को और बढ़ा देती हैं। इस प्रकार बड़े सन्नगर का प्रादुर्भाव होता है।

विश्व के वृहत्तम सन्नगर आधुनिक नगरीय क्षेत्रों में मिलते हैं। सबसे बड़ा सन्नगर क्षेत्र सं. रा. अमरीका का उत्तर-पूर्वी अटलाण्टिक तटीय प्रदेश है, जिसका विस्तार वोस्टन से वाशिंगटन के दक्षिण तक लगभग 100 किलोमीटर लम्बे क्षेत्र पर है। यूरोप में ग्रेट ब्रिटेन, फ्रान्स, तथा जर्मनी के छोटे से बड़े आकार के सन्नगरों के उदाहरण विद्यमान हैं। ग्रेट ब्रिटेन का लन्दन सन्नगर सबसे बड़ा है। लिवरपूल, मैनचेस्टर. ग्लासगो, बर्मिंघम आदि अन्य सनगर है। फ्रान्स का पेरिस सन्नगर, हंगरी का बुडापेस्ट, जापान का टोकियो, याकोहाता तथा भारत का मुम्बई, कलकत्ता सन्नगर महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं।

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Pankaja Singh

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