राजनीति विज्ञान

बेन्थम का कानून तथा न्याय-व्यवस्था सम्बन्धी विचार | बेन्थम के कानून तथा न्याय-व्यवस्था सम्बन्धी विचार का वर्णन

बेन्थम का कानून तथा न्याय-व्यवस्था सम्बन्धी विचार | बेन्थम के कानून तथा न्याय-व्यवस्था सम्बन्धी विचार का वर्णन

बेन्थम का कानून तथा न्याय-व्यवस्था सम्बन्धी विचार

बेन्थम के जीवन का एक प्रमुख लक्ष्य तत्कालीन कानून पद्धति में सुधार करना था। वह राजनीतिक दार्शनिक से भी अधिक महत्वपूर्ण रूप में कानून-सुधारक था, जिसका उद्देश्य सैद्धान्तिक पद्धति तथा उपयोगिता के सिद्धान्त के आधार पर कानून के क्षेत्र में उन पुरानी धारणाओं और अन्धविश्वासों को दूर करना था, जो प्रगति के मार्ग में बाधक तथा जनसाधारण के कष्टों के लिए उत्तरदायी थे। उसके अनुसार तत्कालीन कानून और न्याय-व्यवस्था में अनेक गम्भीर दोष थे जिन्हें दूर किया जाना आवश्यक था। उसकी दृष्टि में कानून के बड़े दोष अस्पष्टता, अनिश्चितता, दुर्बोधता, जटिलता, दकियानूसीपन और अप्रचलित परिभाषक शब्दों का प्रयोग थे। आवश्यकता इस बात की थी कि कानून का सरल, सुबोध शब्दों में अभिव्यक्त किया जाय तथा उसे संहिताबद्ध (Codify) किया जाय, जिससे सामान्य जन कानूनों को समझकर उनका पालन कर सकें। उसने अन्तर्राष्ट्रीय कानून तथा यूरोप के देशों में सामान्य रूप से प्रचलित दीवानी, फौजदारी और संवैधानिक कानूनों की संहिताएँ तैयार की थीं। उसने विधिशास्त्र (Jurisprudence) को राजनीति से पृथक करने की आवश्यकता बतलाते हुए इस दिशा में स्वयं कार्य प्रारम्भ किया, जिसे आगे चलकर उसके शिष्य जॉन ऑस्टिन ने पूरा किया।

इंग्लैण्ड की तत्कालीन न्याय-व्यवस्था में अनेक गम्भीर और भीषण दोष थे। सर सम्युल रोमिली के शब्दों में, “न्याय-व्यवस्था ऐसी थी, जिसे किसी भी सभ्य समाज के लिए अपमानजनक कहा जा सकता था।” बेन्थम ने तत्कालीन न्याय-व्यवस्था की अत्यधिक कटु आलोचना की। उसके अनुसार न्याय-व्यवस्था बहुत अधिक जटिल और अनिश्चित थी, न्याय प्राप्त करने में बहुत अधिक समय लगता था और इतना अधिक व्यय करना होता था जो सामान्य व्यक्ति की पहुँच के बाहर होता था। बेन्थम के शब्दों में, “इस देश में न्याय बेचा जाता है और बडे महंगे दामों पर बेचा जाता है, जो व्यक्ति मल्य नहीं चुका सकता, वह न्याय भी प्राप्त नहीं कर सकता है।” वह जजों को व्यवसायियों के तौर पर ‘जज एण्ड को0’ (Judge & Co.) कहा करता था और उसका विचार था कि ये जज उन व्यक्तियों से निश्चित रूप से अधिक दुष्ट होते थे, जिन्हें भयंकरतम अपराधी कहकर उनके द्वारा मृत्यु-दण्ड दिया जाता था और उसका विचार था कि हमारे कानून जजों द्वारा जजों के लाभ के लिए ही बनाए जाते हैं। वकीलों के बारे में भी उसकी सम्मति ऐसी ही थी। उसका कहना था कि ये ‘आलसी’, सत्-असत् का भेद करने में असमर्थ, अदूरदर्शी, जिद्दी, सार्वजनिक उपयोगिता के सिद्धान्त की परवाह न करने वाले, स्वार्थी तथा अधिकारिकों के इशारे पर नाचने वाले होते हैं।”

उसने न्याय के क्षेत्र में कुछ सुधार भी सुझाए। उसने जजों की निरंकुशता पर रोक लगाने के लिए जूरी प्रथा का समर्थन किया। वह इस बात के पक्ष था कि विवादों का निर्णय अनेक जजों के स्थान पर एक जज के द्वारा ही किया जाना चाहिए। एक जज द्वारा निर्णय देने पर ही जज में उत्तरदायित्व की भावना का संचार हो सकता है और न्याय के सम्मान की रक्षा की जा सकती है।

इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उसके द्वारा समर्थित सभी वैधानिक सुधार अब तक अपनाए जा चुके हैं। न्यायिक सुधार के इतिहास में उसका स्थान बहुत ऊंचा है। सर हेनरी मेन ने इस सम्बन्ध में लिखा है, “मैं बेन्थम के समय से लेकर अब तक होने वाले ऐसे किसी वैधानिक सुधार को नहीं जानता, जिसका स्रोत उसका प्रभाव न हो।’’ फ्रेडरिक पोलक ने भी लिखा है कि “19वीं सदी में इंगलिश कानून में हुए प्रत्येक महत्त्वपूर्ण सुधार में बेन्थम के विचारों का प्रभाव अंकित है।”

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Pankaja Singh

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