उद्यमिता और लघु व्यवसाय

बाह्य पर्यावरण | बाह्य वातावरण के मुख्य घटक | External Environment in Hindi  | Main components of external environment in Hindi

बाह्य पर्यावरण | बाह्य वातावरण के मुख्य घटक | External Environment in Hindi  | Main components of external environment in Hindi

बाह्य पर्यावरण

(External Environment)

प्रत्येक उपक्रम सम्पूर्ण सामाजिक प्रणाली का एक महत्वपूर्ण भाग होता है। उपक्रम की विकास एवं संवृद्धि अनेक आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, तकनीकी परिस्थितियों से प्रभावित होती है। प्रत्येक उपक्रम की कार्यप्रणाली सरकारी नीतियों, शासकीय व्यवस्था, वैधानिक वातावरण, सामाजिक स्थितियों-कर्मचारियों के शैक्षिक व तकनीकी स्तर, उपभोक्ताओं के आय स्तर तथा प्रौद्योगिकीय वातावरण पर निर्भर करती है। इन समस्त घटकों को उपक्रम के बाह्य वातावरण के नाम से जाना जाता है। प्रत्येक उपक्रम को अपने बाह्य वातावरण के प्रति केवल जागरूक रहना होता है वरन् बाह्य वातावरण के प्रति अपने दायित्व का निर्वहन भी करना पड़ता है।

अनेक विद्वानों ने उपक्रम के बाह्य वातावरण को निम्न प्रकार परिभाषित किया है-

ग्लूक एवं जाँच के मतानुसार, “वातावरण में उपक्रम के बाहर के घटक सम्मिलित होते हैं, जो उपक्रम के लिये अवसर तथा चुनौतियाँ उत्पन्न करते हैं, जिसमें सामाजिक आर्थिक, प्रौद्योगिक व राजनैतिक स्थितियाँ मुख्य हैं।”

रॉबिन्स (Robbins) के मतानुसार, “उपक्रम का बाह्य वातावरण उन शक्तियों से निर्मित है, जो उपक्रम के कार्य निष्पादन को प्रभावित करते हैं, परन्तु उपक्रम का उन घटकों पर नियन्त्रण कम होता है। “

उपरोक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि उपक्रम का बाह्य वातावरण वह है, जो उपक्रम के प्रत्यक्ष प्रभाव और नियन्त्रण से परे होता है, परन्तु उपक्रम की कार्यप्रणाली को सशक्त रूप में प्रभावित करता है।

उपरोक्त परिभाषाओं से यह भी स्पष्ट है कि व्यावसायिक पर्यावरण को प्रायः बाह्य घटकों के रूप में ही जाना जाता है (The term business environment often refers to the external factors) |

बाह्य वातावरण के मुख्य घटक

(Main Factors of External Environment)

व्यावसायिक वातावरण को अध्ययन की सुविधा के दृष्टिकोण से दो मुख्य वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-

(क) सूक्ष्म अथवा संचालन पर्यावरण (Micro or Operating Environment) –

बाह्य वातावरण के ऐसे घटक जो उपक्रम की कार्य प्रणाली पर प्रत्यक्ष एवं गहरा प्रभाव रखते हैं, उन्हें सूक्ष्म अथवा संचालन पर्यावरणीय घटकों के रूप में जाना जाता है। फिलिप कोटलर (Philip Kotier) के शब्दों में, “सूक्ष्य पर्यावरण में कम्पनी के निकट ऐसे पर्यावरणीय कारकों का समावेश किया जाता है, जो कम्पनी के निष्पादन को प्रभावित करते हैं, जिनमें आपूर्तिकर्ता, विपणन मध्यस्थ, प्रतियोगी, ग्राहक और जनसमुदाय सम्मिलित है।” सूक्ष् पर्यावरणीय घटक व्यावसायिक उपक्रम से अधिक गहनता से जुड़े होते हैं परन्तु ये आवश्यक नहीं है कि उद्योग के सभी उपक्रमों के लिये ये एक समान रूप से प्रभावी हों। कुछ सूक्ष्म घटक ऐसे भी हो सकते हैं, जो किसी विशिष्ट उपक्रम के लिये अधिक प्रभावशाली हों। उदाहरण के रूप में एक ऐसा उपक्रम जो किसी एक विशिष्ट क्षेत्र के आपूर्तिकर्ताओं पर निर्भर करता है वह उन आपूर्तिकर्ताओं से गहन सम्बद्ध होने के कारण प्रभावित होता है, परन्तु ऐसे उपक्रम जो किसी अन्य क्षेत्र के आपूर्तिकर्ताओं से सम्बद्ध हैं, उन पर उस सेल के आपूर्तिकर्ताओं का प्रभाव नहीं होगा। जब एक उद्योग के प्रतियोगी उपक्रम एक ही प्रकार के सूक्ष्म पर्यावरण से प्रभावित हों तब भी उपक्रमों की इन तत्वों से परस्पर सम्बद्धता उपक्रमों पर पृथक-पृथक प्रभावशील हो सकती है।

सूक्ष्म अथवा संचालन पर्यावरण में निम्न घटकों को सम्मिलित किया जाता है-

(1) वित्त प्रदाता (Financiers)- उपक्रम के वित्त प्रदाता उपक्रम के कार्य संचालन  पर प्रत्यक्ष व गहन रूप से प्रभावशील होते हैं। वित्त की सुलभ उपलब्धता कार्यनिष्पादन से प्रत्यक्ष रूप से सम्बद्ध होती है। वित्त प्रदाताओं की समता, नीतियाँ, व्यूह, दृष्टिकोण आदि भी उपक्रम के कार्य संचालन पर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में प्रभाव डालते हैं। वित्त उपक्रम की रक्त शिराओं के सदृश हैं, जो उपक्रम के प्रत्येक अंग को क्रियाशील रखता है।

(2) आपूर्तिकर्ता (Suppliers)- एक उपक्रम के सूक्ष्म पर्यावरण में आपूर्तिकर्ताओं का योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है। आपूर्तिकर्ताओं में उपक्रम को कच्चा माल व उपकरण की आपूर्ति करने वालों को सम्मिलित किया जाता है। आपूर्ति के स्त्रोत सुदृढ़ होने पर ही उपक्रम के कार्य संचालन में निरन्तरता व उत्पाद में गुणवत्ता बनी रहती हैं। आपूर्ति अनिश्चित व त्रुटिपूर्ण होने पर उपक्रम की भण्डार लागत बढ़ जाती है व उत्पाद की गुणवत्ता पर भी विपरीत प्रभाव डालती है। विदेशों से कच्चा माल मँगाने वाले उपक्रमों पर उदारीकरण की नीति ने सकारात्मक प्रभाव डाला है। किसी एक आपूर्तिकर्ता पर निर्भर होना भी उपयुक्त नहीं माना जाता है, क्योंकि उस आपूर्तिकर्ता के यहाँ हड़ताल, तालाबन्दी, माल की गुणवत्ता का सीधा प्रभाव उपक्रम पर होता है। इसलिये आपूर्ति के स्रोत की न्यूनता (Short Supply) का उचित प्रबन्ध उपक्रम में किया जाना आवश्यक होता है। उपक्रम में आपूर्तिकर्ताओं के महत्व को देखते हुये वर्तमान समय में आपूर्तिकर्ताओं से साझेदारी, संयुक्त उपक्रम अथवा समझौते किये जाने लगे हैं। अब आपूर्ति प्रबन्ध (Supply management) एक पृथक प्रबन्ध क्षेत्र के रूप में जाना जाने लगा है।

(3) विपणन मध्यस्थ (Marketing Intermediaries)- व्यावसायिक उपक्रम के निकटतम बाह्य पर्यावरण में विपणन मध्यस्थों का योगदान सर्वोपरि माना जाता है। जिस व्यावसायिक उपक्रम के विपणन मध्यस्थ जितने सुदृढ़ व दूर-दूर तक फैले हुये होंगे, वह उपक्रम भी विपणन दृष्टिकोण से उतना ही सुदृढ़ माना जाता है। विपणन मध्यस्थों में उन समस्त व्यक्तियों, फर्मों व संस्थाओं को सम्मिलित किया जाता है, जो उत्पाद या सेवाओं को अन्तिम उपभोक्ता तक पहुँचाने में सहयोग करती है, जिसमें विज्ञान, भण्डारण वितरण, विक्रय आदि को सम्मिलित किया जाता है। विपणन मध्यस्थ निर्माता व उपभोक्ता के बीच की कड़ियाँ हैं, जिसमें एक कड़ी भी ढ़ीली पड़ने पर या निकल जाने पर पूरी विपणन व्यवस्था ध्वस्त हो सकती है, जिसकी हानि उपक्रम को दीर्घकाल तक वहन करनी पड़ सकती है।

(4) प्रतियोगी (Competitors)- प्रत्येक व्यावसायिक उपक्रम को प्रतिस्पर्धा का सामना किसी न किसी रूप में अवश्य करना पड़ता है। वर्तमान युग प्रतिस्पर्धा का युग है। यदि एक बार कोई उपक्रम प्रतिस्पर्धा से बाहर हो गया तब, उस उपक्रम का अस्तित्व बचाना कठिन हो जाता है। यहाँ यह तथ्य विशेष उल्लेखनीय है कि प्रतियोगिता केवल उसी उत्पाद के अन्य निर्माताओं से ही नहीं होती वरन् अन्य अनेक तत्व प्रतियोगी के रूप में वरन् उपक्रम के समक्ष आते हैं। सबसे पहला प्रतियोगी ग्राहक की व्यय करने योग्य आय की राशि है। जब ग्राहकों के पास व्यय करने के लिये आय का भाग ही नहीं होगा तब व्यय न कर पाने के कारण कोई भी उत्पाद या सेवा को खरीदना ग्राहक के लिये कठिन होगा। भारत चूँकि एक कृषि प्रधान देश है, जिसकी 80 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। यदि किसी वर्ष उत्पादन ही कम हो तब 80 प्रतिशत जनसंख्या के पास व्यय करने के लिये आय की उपलब्धता अत्यन्त कम होगी। वातानुकूलित यन्त्रों के निर्माता की प्रतियोगिता केवल वातानुकूल यन्त्रों के निर्माता से ही नहीं है, वरन् बिजली के पंखे व कूलर निर्माताओं से भी होगी। बिजली की उपलब्धता भी वातानुकूल यन्त्रों की माँग को प्रभावित करेगी। उदारीकरण के इस युग में अन्तराष्ट्रीय प्रतियोगिता का सामना भी करना पड़ता है। चीन मार्का 18 वॉट के छोटे बिजली ट्यूबों ने भारतीय निर्माताओं के 36 व 40 वाट के ट्यूब तथा बल्चों की माँग पर गहरा प्रभाव डाला है। कल जिन उत्पादों का विक्रेता बाजार (Seller’s market) था, आज उन उत्पादों का क्रेता बाजार (Buyer’s Market) हो गया है। ब्राँड प्रतियोगिता अलग से चरम बिन्दु पर पहुँच रही है।

(5) ग्राहक (Customer)- आज प्रत्येक व्यावसायिक उपक्रम के बिक्री काउन्टर्स पर यह उक्ति लिखी दिखाई देती है- ‘ग्राहक मेरा देवता है।’ यदि ग्राहक सन्तुष्ट है, तब व्यापार सफल है और यदि ग्राहक नाराज है, तब उस व्यापार का कोई रक्षक नहीं है। ग्राहक की सन्तुष्टि व्यवसाय की सफलता की कुंजी है। एक व्यावसायिक उपक्रम के ग्राहक सामान्य व्यक्ति, गृहिणयाँ, अन्य व्यापारी या उत्पादक, सरकार, विभाग या अन्य कोई संगठन हो सकता है अथवा सब मिल-जुलकर भी हो सकते हैं। एक स्टेशनरी निर्माता के ग्राहक थोक व्यापारी, फुटकर व्यापारी, औद्योगिक उपक्रम, सरकारी व अर्धसरकारी विभाग व अन्य समुदाय व सामान्य छात्र-छात्रायें भी होते हैं। एक विशिष्ट वर्ग के ग्राहकों पर निर्भरता भी व्यावसायिक उपक्रम के लिये हानिकारक हो सकती है। वैश्वीकरण व उदारीकरण ने ग्रहक की स्थिति को और अधिक सुदृढ़ कर दिया है। आज ग्राहक के पास चयन हेतु विकल्पों की भरमार है। वह स्थानीय स्तर से लेकर विश्व स्तर तक की वस्तुओं का चयन अपने प्रयोग के लिये कर सकता है। अतः ग्राहक की सार्वभौमिकता वृद्धि पर है, जो व्यावसायिक पर्यावरण पर प्रत्यक्ष प्रभावशील है।

(6) जन-समुदाय (Public)- प्रायः सम्पूर्ण जनसमुदाय किसी भी व्यावसायिक उपक्रम के संचालन पर्यावरण पर प्रत्यक्ष प्रभावी नहीं होता है, परन्तु विशिष्ट परिस्थितियों में जनसमुदाय की भावना उपक्रम के संचालन पर प्रत्यक्ष प्रभावी डालती है। बन्दूक की गोली में गाय की चर्बी अथवा खाल का प्रयोग हो रहा है। इस अफवाह ने न केवल आयुध निर्माता कम्पनी का उत्पादन ठप कर दिया, वरन् भारत में अंग्रेजों के खिलाफ क्रान्ति का बिगुल बजा दिया। मैक्डोनल कम्पनी के बर्गर में किसी अपशिष्ट पदार्थ की विद्यमानता ने उस क्षेत्र के समस्त मैक्डोलन रेस्टोरेन्ट को बन्द करा दिया। अतः एक छोटा जनसमुदाय भी किसी व्यावसायिक उपक्रम से किन्हीं कारणों से नाराज होकर उपक्रम के संचालन पर प्रत्यक्ष प्रभाव डाल सकता है। जहाँ जनसमुदाय की सकारात्मक भावना व्यावसायिक उपक्रम को सफलता के चरमोत्कर्ष पर पहुंचा सकती हैं, वहाँ जन समुदाय की नकारात्मक भावना उपक्रम के अस्तित्व को ही डावांडोल कर देती है।

(ख) वृहत् अथवा सामान्य पर्यावरण (Macro or General Environment) –

बाह्य पर्यावरण के ऐसे घटक जो व्यावसायिक उपक्रम को दूर से प्रभावित करते हैं, वृहत् (Macro) सामान्य (General) या दूरस्थ (Remote) पर्यावरण घटक कहलाते हैं। उपक्रम के बाह्य पर्यावरण द्वारा उपलब्ध चुनौतियां अथवा अवसर उपक्रम पर दूरस्थ प्रभाव डालते हैं। प्रायः पर्यावरण के इन घटकों पर उपक्रम का नियन्त्रण नहीं होता इसलिये इन्हें अनियन्त्रणशील घटक भी कहा जा सकता है।

बृहत् अथवा सामान्य पर्यावरण के मुख्य घटक निम्न प्रकार हैं-

(1) प्राकृतिक पर्यावरण (Natural or Ecological Environment)- प्राकृतिक पर्यावरण भौतिक एवं जीवीय परिस्थितयों का सनतुलन है, जिसे व्यावसायिक उपक्रम प्रतिक्षण प्रभावित कर रहे हैं। आज प्रत्येक औद्योगिक उपक्रम पर पर्यावरणीय दायित्वों की पूर्ति के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के प्रश्न चिन्ह लगे हुये हैं। औद्योगिक वातावरण हवा, पानी, मिट्टी आदि प्राकृतिक पदार्थों को अपने उप-उत्पादों व रासायनिक कचरे आदि की गन्दगी से निरन्तर प्रदूषित कर रहे हैं। धुँआ, धूल, गैस आदि से पूरा प्राकृतिक पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। औद्योगिक रूप से उन्नत देशों के समक्ष यह समस्या और गम्भीर होती जा रही है। पर्यावरण प्रदूषण से मानव जीवन निरन्तर कष्टकारक होता जा रहा है। विभिन्न राष्ट्रों ने पर्यावरण संरक्षण के सम्बन्ध में कठोर कानूनों का निर्माण किया है। कुछ राष्ट्रों द्वारा पर्यावरण विधान के अन्तर्गत उद्योगों के लिये पर्यावरण अंकेक्षण अनिवार्य किया गया है।

(2) आर्थिक नीतियाँ (Economics Policies)- राष्ट्र की आर्थिक नीतियाँ सम्पूर्ण व्यावसायिक पर्यावरण पर गहरा प्रभाव डालती हैं। आर्थिक नीतियों में निम्न का समावेश होता है-

(i) औद्योगिक नीति (Industrial Policy),

(ii) अनुज्ञापत्र नीति (Licensing Policy),

(iii) राजकोषीय नीति (Fiscal Policy),

(iv) मौद्रिक नीति (Monetary Policy),

(v) विदेशी व्यापार नीति (Foreign Trade Policy) – आयात-निर्यात नीति सहित (With Import-Export Policy) |

(vi) वित्त नीति एवं विनियोग नीति (Finance Policy and Investment Policy)

(vii) कृषि नीति एवं मूल्य नीति (Agricultural Policy and Price Policy)

(viii) कर नीति (Tax Policy),

(ix) रोजगार नीति (Employment Policy)

(3) सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण (Social-Cultural Environment) – प्रत्येक उपक्रम एक सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना में ही संचालित होता है, जिसके कारण वह सामाजिक- सांस्कृतिक घटकों का उल्लंघन करके अपना अस्ति व बनाये नहीं रख सकता है। सामाजिक- सांस्कृतिक घटक ही उपक्रम के समक्ष लक्ष्य व उद्देश्य रखते हैं जो किसी भी स्थिति में सामाजिक- सांस्कृतिक मूल्यों, मान्यताओं, विश्वासों, जीवन पद्धतियों की उपेक्षा या अवेहलना नहीं कर सकते हैं। उपक्रमों की समाज व संस्कृति के प्रति उत्तरदायित्व की भावना ने उसे समाजोन्मुखी बना दिया है। इसी कारण उपक्रमों का सामाजिक अंकेक्षण किया जाने लगा है अर्थात् उपक्रम ने एक निर्दिष्ट अवधि में समाज से क्या लिया है-पूँजी, श्रम, साहस व संगठन के रूप में तथा उसके बदले में क्या लौटाया है- लाभांश, ब्याज, किराया वेतन-मजदूरी व पर्यावरण प्रदूषण के रूप में? क्या उपक्रम ने उस अवधि में अपने सामाजिक उत्तरदायित्व को पूरा किया है? इस सबका विश्लेषण ही सामाजिक अंकेक्षण में किया जाता है। भारत में भी टिसको द्वारा सामाजिक अंकेक्षण का प्रारम्भ किया गया है।

(4) राजनैतिक/वैधानिक पर्यावरण (Political/Legal Environment)- राजनैतिक, प्रशासनिक व वैधानिक घटक भी व्यावसायिक पर्यावरण को महत्वपूर्ण स्तर तक प्रभावित करते हैं। सरकार/विधान तथा उपक्रम के मध्य होने वाले पारस्परिक व्यवहार उपक्रम के संचालन को काफी सीमा तक प्रभावित करते हैं। राजनैतिक /वैधानिक निर्णय/नियम उपक्रम की कार्य दिशा ही परिवर्तित कर देते हैं। व्यावसायिक विधान, नियम, उपनियम, सरकारी नीतियाँ उपक्रमों को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से नियन्त्रित करती हैं। राजनैतिक/वैधानिक वातावरण के निम्न घटक व्यावसायिक पर्यावरण पर गहन प्रभाव रखते हैं-

* नीतियाँ- हस्तक्षेप की नीति, उदारीकरण नीति, मौद्रिक नीति, आर्थिक नीति, विदेश नीति, औद्योगिक संरक्षण नीति, मूल्य नीति आदि।

* संरचना- व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका व प्रशासन का स्वरूप तथा कार्य-प्रणाली।

* सम्बन्ध- अन्तर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय, प्रान्तीय व स्थानीय सम्बन्धों का स्वरूप।

* कानून- अनुबन्ध, वस्तु विक्रय, औद्योगिक, प्रशासकीय, कर व शुल्क, नियमन आदि कानून।

* नियन्त्रण- राजनैतिक, सामाजिक व प्रशासकीय नियन्त्रण का स्वरूप।

* पर्यावरण- प्रदूषण, संसाधन संरक्षण आदि नियम।

(5) तकनीकी पर्यावरण (Technological Environment)- प्रौद्योगिकी में परिवर्तन की गति अत्यन्त तीव्र है। जो उद्योग या व्यवसाय परिवर्तित प्रौद्योगिकी और तकनीक के साथ-साथ स्वयं की कार्यप्रणाली को परिवर्तित नहीं करते वे समय से पीछे रह जाते हैं और अप्रचलन की श्रेणी में जाकर समाप्त प्रायः हो जाते हैं। वर्तमान औद्योगिक स्वरूप नवीनतम् प्रौद्योगिकी व तकनीक के विकास का ही द्योतक है। अब स्वचालित यन्त्रों, कम्प्यूटर्स, रोबोट्स तथा अन्य नये-नये तकनीकी यन्त्रों का उद्योग व व्यवसाय में सर्वाधिक प्रयोग किया जा रहा है, जिसने व्यावसायिक गतिविधियों का स्वरूप ही काफी सीमा तक परिवर्तित कर दिया है। नवीन प्रौद्योगिकी व तकनीकी कौशल ने उत्पाद का स्वरूप ही बदल दिया है। व्यावसायिक पर्यावरण को प्रभावित करने वाले तकनीकी घटक निम्नवत् हैं-

*मानव संवेदना को प्रभावित करने वाली तकनीक- दृष्टि, संचार आदि तकनीक।

* मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाली तकनीक- जैव, रासायनिक, अनुवांशिक, औषधीय, शल्य व अन्य चिकित्सकीय तकनीक।

*मानव क्षमता को प्रभावित करने वाली तकनीक- स्वचालन, कम्प्यूटराइजेशन, वातानुकूलन, दूरसंचार, परिवहन, मनोरंजन आदि।

* पर्यावरण को प्रभावित करने वाली तकनीक- प्रदूषण निवारण यन्त्र, संसाधनों के संरक्षण की तकनीक आदि।

* उत्पाद सुधार तकनीकें- इंजीनियरिंग, कृषि-बागवानी, आदि तकनीक।

(6) जनसांख्यिक पर्यावरण (Demographic Environment)- जनसंख्या/मनुष्य के बिना व्यवसाय किसके लिये? प्रबन्ध किसका? बाजार किसके लिये? इसका एक ही उत्तर है जनसंख्या के अर्थात् मनुष्य के लिए मनुष्य के बिना उद्योग व व्यवसाय का अस्तित्व ही नहीं हो सकता है।

प्रत्येक व्यावसायिक उपक्रम के मानवीय संसाधन उसकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण सम्पत्ति है तथा बाजार विभिन्नीकरण का आधार भी जनसंख्या का ढाँचा है, जिसे व्यवसायी अपनी आवश्यकता के अनुरूप’ आयु, लिंग, परिवार का आकार, जाति व्यवसाय, पेशा, शिक्षा, धर्म, राष्ट्रीयता आदि आधारों पर वर्गीकृत करते रहे हैं। प्रत्येक व्यवसाय व उद्योग के लिये जनसांख्यिक पर्यावरण पृथक्-पृथक् रूपों में प्रभावित करता है, जो स्थान, समय, संख्या के आधार पर भी पृथक्-पृथक् प्रभाव रखता है। अनेक जनसांख्यिक तत्व-आकार, विकास-दर, आयु संरचना, लिंग संरचना, घनत्व, आय स्तर सम्पत्ति स्तर, उपभोग स्तर आदि व्यवसाय व उद्योग के कार्य संचालन में महत्वपूर्ण योगदान करते हैं।

(7) अन्तर्राष्ट्रीय/वैश्विक पर्यावरण (International/Global Environment) – वर्तमान समय में व्यवसाय स्थानीय व राष्ट्रीय सीमाओं को लाँघकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुँच गया है। अब किसी एक राष्ट्र में उत्पन्न हुई संकट की लहरें अन्य राष्ट्रों की अर्थव्यवस्था पर भी गहरा प्रभाव डालने लगी हैं। तेल उत्पादक देशों के व्यवसाय पर आया संकट सम्पूर्ण विश्व की अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित करता है। वैश्वीकरण के इस युग में विश्व का व्यावसायिक पर्यावरण किसी एक स्थान/ राष्ट्र के व्यावसायिक पर्यावरण को प्रभावित करता है। विश्व व्यवसाय के निम्न घटक सम्पूर्ण व्यावसायिक पर्यावरण पर प्रभावशील हैं-

* विश्व व्यायापर संगठन (WTO.) के सिद्धान्त एवं समझौते;

* अन्तर्राष्ट्रीय सभायें, समझौते, अनुवन्ध, घोषणायें व औपचारिकतायें;

* राष्ट्रों की आर्थिक और व्यावसायिक स्थितियाँ व भावनायें;

* बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की व्यावसायिक क्रियाएँ एवं समझौते;

* राष्ट्रों के मध्य पारस्परिक सम्बन्ध-युद्ध, कलह व टकराव और सहयोग आदि की स्थिति;।

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Pankaja Singh

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