संगठनात्मक व्यवहार

अवबोधन एवं संवेदन में अन्तर | अवबोधन की प्रकृति

अवबोधन एवं संवेदन में अन्तर | अवबोधन की प्रकृति | Difference between Perception and Sensation in Hindi | Nature of perception in Hindi

अवबोधन तथा संवेदन में अन्तर (Difference between perception and Sensation)

अवबोधन तथा संवेदन में पर्याप्त अन्तर है। साधारण शब्दों में, संवेदन से आशय शारीरिक उत्तेजित अंगों के प्रत्युत्तर से है। हमारी पाँच शारीरिक इन्द्रियाँ अर्थात् दृष्टि, श्रवण, स्वाद, गन्ध एवं स्पर्श होती हैं जिन पर हमारे शरीर के आन्तरिक तथा बाहरी अनेक उद्दीपकों का निरन्तर प्रभाव पड़ता है। हमारे शारीरिक संवेदनशील अंग इन उद्दीपकों के प्रति प्रतिक्रिया करते हैं। हमारी आँख की रंग के प्रति, कान की ध्वनि के प्रति तथा नाक की गन्ध के प्रति प्रतिक्रिया हमारे दैनिक संवेदन के उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि संवेदन हमारे शारीरिक संवेदी अंगों की क्रियाओं का संचलन करता है। संक्षेप में, पर्यावरण से सूचनायें प्राप्त करने की शारीरिक प्रक्रिया को ही संवेदन कहते हैं।

किन्तु अवबोधन संवेदन से अधिक व्यापक है। अवबोधात्मक प्रक्रिया में पर्यावरण में घटित होने वाली सूचनाओं का चयन, संगठन, संयोजन, अर्थ प्रतिपादन अथवा प्रदान करना हैसम्मिलित है। मस्तिष्क में चलने वाली संज्ञानात्मक प्रक्रिया इन प्राथमिक सूचनाओं को शुद्ध, परिष्कृत, संशोधित अथवा पूर्णतः परिवर्तित करती है। दूसरे शब्दों में, अवबोधात्मक प्रक्रिया ‘वास्तविक संवेदी दुनिया’ में कुछ जोड़ती है एवं कुछ घटाती है। ई.जी. बोरिंग (E.G. Boring) के शब्दों में, “संवेदन तथा अवबोधन में सामान्यत अन्तर इस मान्यता के आधार पर किया जाता है कि संवेदन से आशय कुछ प्राप्त करने की क्रिया है जोकि वह सम्पन्न करता है जबकि अवबोधन से आशय संवदेन को दिये जाने वाले अर्थ से है।”

उदाहरणों द्वारा स्पष्टीकरण- अवबोधन तथा संवदेन में अन्तर निम्न उदाहरणों द्वारा और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है-

(i) एक अधीनस्थ का उत्तर वह जो अपने अधिकारी से सुनता है, उस पर निर्भर करता है, न कि अपने अधिकारी द्वारा वास्तव में कही गई बात पर।

(ii) आप उस दुपहिया वाहन को खरीदते हैं जिसे आप अपनी दृष्टि में सर्वश्रेष्ठ समझते हो, न कि उस दुपहिया वाहन को जिसे इंजीनियर सर्वश्रेष्ठ समझता है।

(iii) एक विद्यार्थी की दृष्टि से एक अध्यापक अच्छा है, जबकि दूसरे विद्यार्थी की दृष्टि में वही अध्यापक बुरा है।

(iv) एक ही श्रमिक को एक पर्यवेक्षक अच्छा मानता है किन्तु दूसरा पर्यवेक्षक उसी श्रमिक को निकृष्ट मानता है।

(v) एक वस्तु निर्माणी अभियन्ता की दृष्टि में उच्च किस्म की होती है, जबकि वही वस्तु ग्राहक की दृष्टि में निम्न श्रेणी की होती है।

निष्कर्ष (Conclusion)-

निष्कर्ष रूप में, अवबोधन तथा संवेदन में अन्तर निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है-

  1. संवेदन एक साधारण मानसिक प्रक्रिया है, जबकि अवबोधन एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है।
  2. संवेदन के द्वारा एक व्यक्ति उद्दीपन की किस्म से सजग हो जाता है, जैसे- रंग, प्रारूप, गन्ध, शक्ल आदि, जबकि अवबोधन के द्वारा व्यक्ति इनका अर्थ निकालता है।
  3. संवेदन का क्षेत्र अवबोधन की तुलना में अधिक व्यापक है। वास्तविकता यह है कि संवदेन अवबोधन का ही एक अंग है। अवबोधन का प्रारम्भ ही संवेदन से होता है।
  4. संवेदन की तुलना में व्यक्ति अवबोधन में अधिक सक्रिय होता है।
  5. संवेदन में हमारे शरीर के केवल कुछ अंग ही संक्रिय होते हैं, जबकि अवबोधन में हमारा समूचा शरीर ही सक्रिय हो जाता है।

अवबोधन की प्रकृति

(Nature of Perception)

अवबोधन की प्रकृति निम्नलिखित है-

(1) बौद्धिक प्रक्रिया (Intellectual Process)- अवबोधन विचार, चिन्तन, तर्क एवं कल्पना से जुड़ी प्रक्रिया है। इसमें व्यक्ति विचारपूर्वक वातावरण से सूचनाओं को प्राप्त करके उन्हें संयोजित करता है तथा अपने विचारों के आधार पर उनके अर्थ प्रतिपादित करता है।

(2) संज्ञानात्मक एवं मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया (Cognitive and Psychological Process) –अवबोध की प्रक्रिया में व्यक्ति के विचार, मनोवेग, भाव, आवेग, उद्वेग, परिकल्पना, अभिप्रेरण, अवलोकन, तर्क, बुद्धि, दूर-दृष्टि आदि मानसिक क्रियायें सक्रिय हो जाती हैं। इनके द्वारा ही वह स्थिति व वातावरणीय प्रभावों का मूल्यांकन करते हुये अपने वैयक्तिक ‘अर्थ’ की संरचना करता है।

(3) व्यक्तिनिष्ठ प्रक्रिया (Subjective Process)- ‘अवबोधन’ वातावरण या स्थिति को अपने व्यक्तिगत नजरिये से देखने व समझने की प्रक्रिया है। यह व्यक्ति के अपने लक्ष्यों, स्वार्थों, दृष्टिकोण, ज्ञान, उसकी अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं एवं जरूरतों से प्रभावित होती है। यही कारण है। कि भिन्न-भिन्न व्यक्ति एक ही चीज को अलग-अलग नजरियें से देखते समझते एवं अर्थ लगाते हैं। अवबोध की प्रक्रिया व्यक्ति के पास संग्रहित सूचनाओं, स्थिति की विशिष्ट पहलुओं, उनकी व्याख्या के ढंग तथा उन पर व्यक्ति के समझ व पकड़ से भी प्रभावित होती है। व्यक्तिनिष्ठता के कारण ही एक सत्य अथवा एक यथार्थ भिन्न-भिन्न लोगों को अलग-अलग रूपों में नजर आता है।

(4) स्थिति का विवेचन, अभिलेखन नहीं Interpretation of the situation, not an exact recording of it)- अवबोध के अन्तर्गत व्यक्ति वास्तविक स्थिति को अपना अर्थ एवं व्याख्या प्रदान करता है, स्थिति को ज्यों का त्यों प्रस्तुत नहीं करता। यह छायाचित्र लेना नहीं (Not photographic representation) वरन् वास्तविक जगत् को अपनी समझ से चित्रित करना है। यह चित्र सबका भिन्न-भिन्न, अपूर्ण-आंशिक एवं गलत हो सकता है।

(5) संवेदन या उत्तेजना से अधिक जटिल एवं व्यापक (Much more Complex and Brander than Sensation)- संवेदन एवं अवबोधन को कई बार समान मान लिया जाता है, जबकि ऐसा नहीं है। ‘संवेदन’ से आशय शारीरिक उत्तेजना अंगों के प्रत्युत्तर (As the response of a physical sensory organs) से है। मनुष्य की पाँच शारीरिक इन्द्रियाँ दृष्टि, श्रवण, स्वाद, गन्ध एवं स्पर्श हैं, जिन पर बाहर एवं भीतर से उत्पन्न होने वाले अनेक उद्दीपकों (Stimuli) का निरन्तर प्रभाव पड़ता है। इससे संवेदन उत्पन्न होता है। संवेदन का मुख्य सम्बन्ध प्राथमिक व्यवहार (Elementary Behaviour) से है जो अधिकांशतः शारीरिकक्रिया से निर्धारित होता है। संक्षेप में, वातावरण से सूचनायें प्राप्त करने की शारीरिक प्रक्रिया (The physical process of obtaining data from environment) को संवेदन कहा जाता है। किन्तु अवबोधन संवेदन से अधिक जटिल एवं व्यापक प्रक्रिया है। बोधात्मक प्रक्रिया में सूचनाओं के चयन, संयोजन एवं विवेचन के अन्तर्यवहार की जटिल प्रक्रिया शामिल है। यद्यणि अवबोधन प्राथमिक सूचनाओं, संकेतों व प्रभावों के लिये अधिकांशतः भौतिक इन्द्रियों एवं उनके उत्तेजन पर ही निर्भर होता है, किन्तु मस्तिष्क में चलने वाली संज्ञानात्मक प्रक्रिया (Congnitive process) इन प्राथमिक सूचनाओं को शुद्ध, परिष्कृत, संशोधित अथवा पूर्णतः परिवर्तित कर सकती है। दूसरे शब्दों में, बोधात्मक प्रक्रिया “वास्तविक” संवेदी दुनिया (Sensory world) में कुछ जोड़ती है एवं कुछ घटाती है (The perceptual process adds to, and substracts from the real’ sensory world)। उदाहरण के लिये, एक अधीनस्थ कर्मचारी का उत्तर, वह जो अपने अधिकारी को सुनता है, उस पर निर्भर है, न कि अपने अधिकारी द्वारा वास्तव में कही गयी बात पर। इसी प्रकार एक ही श्रमिक को एक पर्यवेक्षक अच्छा मनता है, किन्तु दूसरा पर्यवेक्षक उसे निकृष्ट मानता है, यह अन्तर अवबोध के कारण है।

(6) अवबोध के द्वारा व्यक्ति अपने जीवन एवं अनुभवों को अर्थ प्रदान करते हैं।

(7) अवबोध पाँच मानवीय इन्द्रियों देखना, सुनना, अनुभव करना, गन्ध लेना एवं स्वाद तथा चेतना (Awareness) के साथ शुरू होता है।

(8) अवबोध की प्रक्रिया अनेक निहित अवरोधों के कारण सदैव प्रभावी नहीं होती है।

(9) असन्तुष्ट आवश्यकताओं का व्यक्ति के अवबोध पर अत्यन्त गहरा प्रभाव पड़ता है।

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Pankaja Singh

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