मानव संसाधन प्रबंधन

औद्योगिक शान्ति की स्थापना के लिये उपाय | औद्योगिक विवादों को रोकने सम्बन्धी प्रयास

औद्योगिक शान्ति की स्थापना के लिये उपाय | औद्योगिक विवादों को रोकने सम्बन्धी प्रयास | Measures for the establishment of industrial peace in Hindi | Efforts to stop industrial disputes in Hindi

औद्योगिक शान्ति की स्थापना के लिये उपाय

हड़ताल होने और कारखाने की तालाबन्दी को रोकने तथा औद्योगिक विवादों को सुलझाने के लिये 1929 में श्रम विवाद अधिनियम (Labour Disputes Act) पास किया गया। इस अधिनियम के अनुसार हड़ताल की घोषणा होने से पहले 14 दिन की सूचना देना आवश्यक कर दिया।

सन् 1938 में मुम्बई औद्योगिक विवाद अधिनियम (Mumbai Industrial Disputes Act ) पास हुआ। द्वितीय विश्व युद्धकाल में हड़तालों को रोककर औद्योगिक उत्पादन में रुकावट न आने देने की दृष्टि से भारत सुरक्षा कानून (Defense of India Rule) की धारा 91 में लागू की गयी। औद्योगिक शान्ति के लिये अखिल भारतीय स्तर यह पहला कदम था।

इसके बाद मार्च, सन् 1947 में औद्योगिक विवाद अधिनियम (Industrial Disputes Act) झगड़ों की स्थायी व्यवस्था के लिये स्वीकृत हुआ। इसमें समय-समय पर अनेक संशोधन किये गये। इसमें औद्योगिक शान्ति की स्थापना के लिये निम्न व्यवस्था है –

(1) कार्य समितियाँ (Working Committee)- प्रत्येक कारखानें में जिसमें 100 या इससे अधिक श्रमिक काम करते हैं, कार्य समिति को स्थापना होनी चाहिये जिसमें श्रमिकों के प्रतिनिधियों की संख्या नियोक्ताओं के प्रतिनिधियों की संख्या से कम नहीं होनी चाहिये। इन समितियों द्वारा उद्योगपति एवं श्रमिकों को अपने मतभेद दूर करने में सहायता मिलती है तथा उनमें पारस्परिक सद्भावना का विकास होता है।

(2) समझौता अधिकारी (Conciliation Officers) – विभिन्न राज्यों की सरकारों द्वारा समझौता अधिकारी नियुक्त किये गये हैं। जहाँ स्थायी व्यवस्था नहीं है, वहाँ समय-समय पर किसी विवाद के लिये या किसी उद्योग विशेष के लिये ऐसे अधिकारी नियुक्त किये जाते हैं, जो दोनों पक्षों में मतभेद दूर कराने एवं समझौता कराने का प्रयत्न करते हैं।

(3) समझौता बोर्ड (Board of Conciliation) – सरकार आवश्यकता पड़ने पर समझौता बोर्ड की नियुक्ति कर सकती है। इसमें एक निष्पक्ष अध्यक्ष के अतिरिक्त दोनों पक्षों की ओर से एक-एक या अधिक सदस्य हो सकते हैं। बोर्ड दोनों पक्षों में समझौता कराने का प्रयत्न करता है तथा साधारणतः दो महीने के अंदर सरकार को अपनी रिपोर्ट दे देता है।

(4) जाँच न्यायालय (Court of Enquiry) – राज्य सरकार किसी विवाद को किसी जाँच न्यायालय के सुपुर्द कर सकती है। इसके लिये एक या एक से अधिक व्यक्ति नियुक्त किये जा सकते हैं यदि इनमें एक से अधिक सदस्य हैं तो उनमें से एक का अध्यक्ष होना आवश्यक है। जाँच न्यायालय को सामान्यतः 6 महीने के अन्दर अपनी रिपोर्ट सरकार को देनी होती है।

(5) श्रम न्यायालय (Labour Court)- यह न्यायालय यथा शीघ्र अपनी कार्यवाही को पूरा करके अपना निर्णय सरकार को देता है। किसी विवाद सम्बन्धित किसी वैधानिक पहलू (Legal Aspect of the Conflict) पर विचार करने का वैधानिक स्थिति से अवगत होने के लिये राज्य सरकार इस प्रकार के श्रम न्यायालय नियुक्त कर सकती है।

(6) औद्योगिक न्यायालय (Industrial Court) – अनिवार्य रूप से विवाद निपटाने के लिये सरकार एक औद्योगिक न्यायालय भी नियुक्त कर सकती है, जिसमें एक या दो उच्च न्यायालय या जिला न्यायालय के जज होंगे। इस न्यायालय की नियुक्ति तब होती है जब समझौता बोर्ड विवाद निपटाने में असफल हो जाता है। इन न्यायालय का निर्णय दोनों पक्षों को मान्य होता है।

1951 में सरकार ने श्रम सम्बन्धी अधिनियम (Labour Relations Act) पास किया। इसके अनुसार सरकार कई प्रकार के अधिकारियों की नियुक्ति व न्यायालय स्थापित कर सकती है। जब कोई विवाद हो या होने की सम्भावना हो तो कोई भी पक्ष दूसरे को विवाद निपटाने की सूचना दे सकता है। वह विवाद साधारण उद्योग में 7 दिन में तथा लोक हित उद्योग में 14 दिन के अन्दर नहीं तय होता तो सरकार इसे बोर्ड न्यायालय को सौंप सकती है।

सन् 1956 के एक अधिनियम के अनुसार श्रम अपील न्याय सभा (Labour Appellate Tribunal) समाप्त कर दिया गया है। उसके स्थान पर निम्न तीन न्यायालयों की व्यवस्था की गयी है –

(1) श्रम न्यायालय (Labour Court) – यह न्यायालय श्रमिकों को काम पर से अलग करने या हटाने, हड़ताल या तालाबन्दी होने तथा श्रमिकों की काम करने की दशाओं आदि के झगड़ों को तय करेगा।

(2) औद्योगिक न्याय सभा (Industrial Tribunal) – इस न्याय सभा में निम्न झगड़े सुलझायें जायेंगे.

(i) 100 से अधिक श्रमिकों को प्रभावित करने वाले झगड़े।

(ii) मजदूरी सम्बन्धी झगड़े।

(iii) क्षतिपूर्ति तथा अन्य भत्ते सम्बन्धी झगड़े।

(iv) बोनस तथा प्रॉविडेण्ट फण्ड सम्बन्धी झगड़े।

(v) मजदूरों की छंटनी सम्बन्धी झगड़े।

(vi) अनुशासन एवं विवेकीकरण सम्बन्धी झगड़े।

(3) राष्ट्रीय न्यायालय (National Tribunal) – यह न्याय सभा राष्ट्रीय महत्व के झगड़ों को सुलझायेगी। इसके निर्णय के विरुद्ध कोई अपील नहीं होगी।

श्रमिक व मिल-मालिक स्वतः इच्छा से लिखित समझौते द्वारा अपना झगड़ा मध्यस्थ को सौंप सकते हैं। वे झगड़े जिनसे उत्पादन में रुकावट होती है, अनिवार्य समझौते द्वारा निपटाये जायेंगे।

सन् 1957 में भारतीय सम्मेलन द्वारा अनुशासन संहिता (Code of Discipline) का प्रतिपादन किया गया जिसका उद्देश्य श्रमिकों एवं नियोक्ताओं को आत्मसंयम में बाँधना है जिससे कि वे अपने कारखानें में पारस्परिक सद्व्यवहार एवं सहयोग का वातावरण रख सकें और मतभेदों को स्वैच्छिक बातचीत, समझौते या पंच निर्णय के द्वारा तय कर सकें।

सन् 1962 में उद्योगपतियों एवं श्रमिकों के प्रतिनिधियों ने औद्योगिक शान्ति प्रस्ताव पास किया। इस प्रस्ताव में यह कहा गया कि आपातकालीन स्थिति में कोई ऐसा काम किसी भी पक्ष के द्वारा नहीं किया जायेगा जिससे कारखानों आदि में काम बन्द हो तथा उत्पादन को हानि पहुँचे।

औद्योगिक विवादों को रोकने सम्बन्धी प्रयास

औद्योगिक विवाद उत्पन्न न हों – इस सम्बन्ध में निम्न प्रयास किये गये हैं-

(1) अनुशासन संहिता- भारतीय श्रम सम्मेलन 1957 में ‘एक अनुशासन संहिता सम्बन्धी प्रस्ताव पारित किया गया जिसका उद्देश्य यह था कि श्रमिक और नियोक्ता पारस्परिक विचार-विमर्श द्वारा अपनी समस्याओं एवं मतभेदों का समाधान करेंगे।

(2) संयुक्त प्रबन्ध परिषदे- श्रमिकों को प्रबन्ध में भाग देने की योजना लागू करने के सन्दर्भ में अनेक औद्योगिक उपक्रमों में संयुक्त प्रबन्ध परिषदों की स्थापना की गयी।

(3) संयुक्त विचार-विमर्श- पारस्परिक विचार-विमर्श द्वारा एक-दूसरे पक्ष की स्थिति और कठिनाई समझने तथा आपसी द्वेष एवं स्नेह को समाप्त करने के लिये संयुक्त विचार- विमर्श की प्रथा प्रारम्भ की गयी। राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह के बोर्ड की स्थापना सन् 1952 में “Joint Consultive Board of Industry and Labour” के नाम से की गयी।

(4) मजदूरी मण्डल औद्योगिक संघर्षों का महत्वपूर्ण कारण मजदूरी व भत्ते की समस्या है। अतः सन् 1957 के भारतीय श्रम सम्मेलन में देश के प्रमुख उद्योगों मजदूरी मण्डलों की स्थापना का निश्चय किया गया। देश के प्रमुख उद्योगों में मजदूरी मण्डल स्थापित किये जा चुके हैं।

(5) ऐच्छिक मध्यस्थता- ऐच्छिक मध्यस्थता द्वारा औद्योगिक संघर्षों को निपटाने की भी व्यवस्था की गयी एवं सन् 1979 के अंत तक मजदूरी एवं मालिक 16,970 में से 9,621 मामले स्वैच्छिक पंच निर्णय द्वारा निपटाये गये एवं विभिन्न राज्यों में राष्ट्रीय पंच निर्णय प्रोत्साहन मण्डल एवं मध्यस्थता प्रोत्साहन मण्डलों की स्थापनायें हुई।

(6) जबरी छुट्टी और छंटनी पर प्रतिबन्ध- सरकार ने 1947के नियमों में जबरी छुट्टी एवं छंटनी के लिये सन् 1976 में संशोधन करके इस पर आवश्यक प्रतिबन्ध लगाया गया। अब किसी भी उपक्रम में जिसमें 300 या अधिक श्रमिक कार्य कर रहे हों उनमें बगैर 3 माह पूर्व अनुमति लिये जबरी छुट्टी या छंटनी या मिल बन्द नहीं हो सकेगी।

(7) औद्योगिक विभ्रान्ति प्रस्ताव- नवम्बर, 1962 में नियोजन एवं श्रमिको द्वारा एक संयुक्त बैठक में औद्योगिक विभ्रान्ति का प्रस्ताव किया गया। इस प्रस्ताव में उत्पादन कार्य में विघ्न न डालने, उत्पादन को अधिकतम करने, प्रतिरक्षा प्रयासों को प्रोत्साहित करने का संकल्प किया गया।

(8) आवश्यक सेवा अध्यादेश, 1981 – जुलाई, सन् 1981 में केन्द्रीय सरकार ने आवश्यक सेवाओं में हड़तालों पर रोक लगाने, गैर-कानूनी हड़ताल करने अथवा ऐसी हड़ताल करने के लिये भड़काने वाले व्यक्तियों को दण्ड देने की व्यवस्था करने के उद्देश्य से एक अध्यादेश पास करके उसे अधिनियम का रूप दे दिया गया है। इस अधिनियम के माध्यम से सरकार आवश्यक सेवाओं पर प्रतिबन्ध लगा सकती है।

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Pankaja Singh

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