आश्रम व्यवस्था | आश्रम व्यवस्था की विशेषतायें | ashram system in Hindi | Features of the Ashram system in Hindi
आश्रम व्यवस्था
प्राचीन भारतीय मनीषियों ने मनोवैज्ञानिक, वैज्ञानिक, दार्शनिक तथा जीवन के व्यावहारिक सिद्धान्तों पर प्रतिपादित आश्रम व्यवस्था से आर्य जीवन को चार सन्तुलित तथा सम्यक् रूपों से विभाजित किया। विद्यार्जन तथा आत्मानुशासन जीवन का आधार मानकर जन्म से लेकर अन्तिम काल तक की अवधि को चार दशाओं में विभाजित कर दिया गया। विद्यार्जन जीवन प्रक्रिया का प्रारम्भ माना गया तथा तप आत्मानुशासन का साधन माना गया और इसे जीवन की अन्तिम दशा में रख दिया गया।
वेदों में मानव जीवन को सामान्य रूप से शतवर्षीय आयु तक माना गया है। एक वैदिक मन्त्र के अनुसार-
“जीवेम शरदः शतम् पश्येम् शरदः शतम् शृणुयाम् शरदः शतम्
अर्थात् सौ शरद ऋतुओं तक जिये, सौ शरद तक देखें तथा सौ वर्ष सुनें। इस आयु को-आधार मान कर 25-25 वर्ष तक के काल को चार आश्रमों में विभाजित कर दिया। ये चार आश्रम हैं-
(1) ब्रह्मचर्य आश्रम (25 वर्ष की अवस्था तक)
(2) गृहस्थ आश्रम (25 वर्ष की आयु से लेकर 50 वर्ष की आयु तक)
(3) वानप्रस्थ आश्रम (50 वर्ष की आयु से लेकर 75 वर्ष की आयु तक) तथा
(4) सन्यास आश्रम (75 वर्ष की आयु से मृत्यु पर्यन्त तक)।
आश्रमों के उपरोक्त आयु निर्धारण के वर्षों में थोड़ा बहुत कालान्तर था। बौधायन गृह्य सूत्र अनुसार ब्रह्मचारी जीवन को उपनयन संस्कार के पश्चात् 12 वर्ष तक माना गया। विभिन्न वर्णों में उपनयन संस्कार की अवस्था भिन्न-भिन्न थी। अश्वलायन के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य का उपनयन क्रमशः 8, 11 और 12 वर्ष की आयु में होना चाहिये। यदि इसे माना जाय तो ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य के ब्रह्मचर्य आश्रम की अवधि 25 वर्ष की अपेक्षा क्रमशः 20, 23, और 24 वर्ष ठहरती है। मान्यता तथा प्रतिपादन के अनुसार ब्रह्मचर्याश्रम के पश्चात् गृहस्थाश्रम और उसके पश्चात् वानप्रस्थ आश्रम का विधान था। परन्तु इसमें भी कुछ भेदभाव किया जाता था। वशिष्ठ के अनुसार ब्रह्मचर्य आश्रम के पश्चात् सीधे परिव्राजक बन सकता था। इस तरह वानप्रस्थ तथा सन्यासाश्रम की अवधि बहुत बढ़ जाती थी। बौधायन के अनुसार सन्यास आश्रम की अवधि 70 की आयु से प्रारम्भ होती थी। इन उल्लेखों से यह स्पष्ट होता है कि प्रत्येक आश्रम के आरम्भ तथा अन्त की अवस्था में कुछ वर्षों का भेद हो जाता था। एक विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि आश्रम व्यवस्था में शूद्रों के लिए कोई स्थान नहीं था तथा वे जीवन पर्यन्त गृहस्थ रहते थे। आश्रम व्यवस्था की उपरोक्त विशेषताओं के पश्चात् अब हम विभिन्न आश्रमों के कार्यों, नियमों तथा प्रणालियों पर विचार करेंगे।
(1) ब्रह्मचर्याश्रम-
आश्रम व्यवस्था की पहली स्थिति ब्रह्मचर्याश्रम है। काल तथा महत्व की दृष्टि से इसे पहला स्थान दिया जाना स्वाभाविक ही है। जीवन की यह अवधि, आने वाले भावी जीवन के लिए शक्तिं ज्ञान तथा बोध देती थी। इस आश्रम का प्रारम्भ उपनयन संस्कार से होता था। उपनयन का शाब्दिक अर्थ ब्रह्मचारी को गुरु के समीप ले जाना है। शूद्रों के अतिरिक्त अन्य तीनों वर्ण उपनयन के अधिकारी थे। उपनयन संस्कार में ब्रह्मचारी यज्ञोपवीत धारण करता था जो उसके कर्तव्यों तथा प्रतिज्ञाओं को जीवन भर याद दिलाता रहता था। बौधायन तथा वशिष्ठ के अनुसार व्यक्ति को सदैव यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करना चाहिये। यज्ञोपवीत बहुत पवित्र संस्कार था तथा इस समय धारण किया गया यज्ञोपवीत जीवन भर के लिये स्मृति चिह्न बना रहता था। ब्रह्मचारी सादे वस्त्र तथा मेखला और दण्ड धारण करता था। उसे नियमित रूप से भिक्षा माँगनी पड़ती थी। इसके द्वारा उसमें अभिमान रहित, साधनायुक्त तथा थोड़े में गुजारा करने की भावना उत्पन्न होती थी। जो गृहस्थ ब्रह्मचारी को भिक्षा नहीं देते थे उन्हें ‘पातकी’ समझा जाता था। इस प्रकार ब्रह्मचारी भोजन की चिन्ता से मुक्त था तथा वह एकाग्रचित्त हो कर विद्यार्जन में ध्यान लगाता था। प्रत्येक ब्रह्मचारी को अनुशासन में रहकर कर्त्तव्यों का पालन करना होता था। निश्चित विश्राम, सबेरे तड़के उठना, नित्यप्रति नियमानुसार नित्यकर्म करना, स्नानादि, गुरुसेवा तथा शारीरिक अभ्यास उसके प्रतिदिन के पालनीय नियम थे। ब्रह्मचर्य जीवन की सामान्य अवधि 12 वर्ष की मानी जाती थी। जब वह लगभग 25 वर्ष की आयु का हो जाता था तो गृहस्थ आश्रम में प्रविष्ट होने की अनुमति दी जाती थी। ब्रह्मचर्य जीवन की समाप्ति समावर्तन संस्कार होती थी। ब्रह्मचर्य जीवन में शिक्षा या विद्याध्ययन पर तो ध्यान दिया ही जाता था परन्तु उससे भी अधिक जोर ब्रह्मचारी के चरित्र विकास पर दिया जाता था। ब्रह्मचर्य तथा संयम अति आवश्यक थे। गुरु की सेवा, आज्ञा पालन, उसके गृहकार्य करना, ईंधन तथा खाद्य सामग्री जुटाना तथा गुरु के साथ विचरना आदि कर्त्तव्यों के पालन द्वारा ब्रह्मचारी अपने चरित्र का विकास करते थे। अतः ब्रह्मचर्य आश्रम की सर्वोपरि उपलब्धि चरित्र का विकास तथा गुरु एवं शिष्य के सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध हैं। गुरुआश्रम के स्वच्छन्द किन्तु अनुशासित वातावरण में ब्रह्मचारी का मानसिक, आध्यात्मिक तथा शारीरिक विकास होता था।
(2) गृहस्थाश्रम-
शिक्षा समाप्त होने पर गुरु शिष्य को उपदेश देता था कि-“सच बोलना, अपने कर्तव्यों का पालन करना, वेद पढ़ते रहना तथा गृहस्थ बनना।” छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार कुछ ब्रह्मचारी ऐसे भी थे जो गृहस्थ बनने से इन्कार कर देते थे तथा सीधे वन को चले जाते थे। कभी-कभी ऐसा भी होता था कि गुरु के यहाँ से वापस लौटने पर विवाह में विलम्ब हो जाता था। ऐसी अवस्था में विवाह होने तक ब्रह्मचारी को ‘स्नातक’ कहा जाता था।
गुरु से शिक्षा. उपदेश तथा आशीर्वचन लेकर, स्नान-समावर्तन संस्कार के उपरान्त जिस गृहस्थ आश्रम का प्रारम्भ होता था उसे समस्त आश्रमों में सर्वोच्च तथा प्रधान माना गया है। गौतम का कथन है “आश्रम केवल एक ही है।” गृहस्थाश्रम को सर्वाधिक महत्व देने के अनेक कारण हैं। घर बसाना सन्तानोत्पत्ति, धनार्जन तथा भौतिक सुखों का भोग आदि आदमी की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इसके अतिरिक्त ब्रह्मचारी तथा सन्यासी गृहस्थों पर ही निर्भर करते थे। वेदों के उल्लेखानुसार इन्द्र ने कहा-“गृहस्थ जीवन अति उत्तम तथा पुण्य है, यह मोक्ष प्राप्ति में सहायक होता है। इसमें तीन पुरुषार्थों का समन्वय है-यथा, धर्म करना, अर्थ प्राप्ति तथा काम प्राप्ति। ये तीनों पुरुषार्थ मोक्ष प्राति में सहायक होते हैं तथा गृहस्थाश्रम में सभी ऋणों से मुक्ति मिल जाती है।’
गृहस्थाश्रम के संस्कारों का विशेष महत्व था तथा ये विविधतापूर्ण थे। गौतम ने 40 संस्कार का प्रतिपादन किया है जिसमें गर्भाधान से लेकर जीवन-पर्यन्त तक के विभिन्न संस्कार हैं।
(3) वानप्रस्थ आश्रम-
गृहस्थ जीवन के सुखों को भोग तथा तृप्त हो कर मनुष्य का ध्यान स्वतः आध्यात्मिकता की ओर जाता है, अतः गृहस्थाश्रम के कर्त्तव्यों का पालन करने के पश्चात वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश किया जाता था। यहाँ से जीवन के चरम लक्ष्य की प्राप्ति का गम्भीर प्रयास शुरू हो जाता था। वानप्रस्थ इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किया जाता था। मनुस्मृति में कहा गया है-
“गृहस्थस्तुयदा पश्येद्वली पलीतमात्मनः ।
अपत्यस्यैव चापत्यं तदारण्यं समाश्रयेत् ।।
वानप्रस्थ जीवन साधनामय होता था। केवल निश्चित गृहों के द्वार पर जितनी भी भिक्षा मिले उसी में सन्तोष करना होता था। वानप्रस्थ व्यक्ति नख शिख धारण करते थे। वृक्षादि के नीचे विश्राम, जीर्ण-शीर्ण वस्त्र पहनना, अन्न का परित्याग करना, कन्द, मूल, फल का आहार अथवा केवल जल ग्रहण करके तपस्वी जीवन द्वारा भौतिक सुखों से उदासीन रह कर मात्र चिन्तन करना ही जीवन का कार्यक्रम होता था। शारीरिक तप के साथ वानप्रस्थ विद्याध्ययन में लगे रहते थे।
(4) सन्यास आश्रम-
वर्णाश्रम का अन्तिम आश्रम सन्यास आश्रम था। यह बौद्धिक चेतना तथा आध्यात्मिक ज्ञान की चरम अवस्था की प्राप्ति का साधन माना गया है। सन्यास आश्रम में जगत के प्रति राग अनुराग का पूर्णतः त्याग करके प्रविष्ट होना होता था। इस समय प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी-“पुत्रेषणा विन्तेष्णा लोकेषणामया परित्यक्ता मन्तः सर्वभूतेभ्योऽभ्यमस्तु’ इस जीवन में वेदों में वर्णित सन्यास आश्रम के सिद्धान्तों का पालन करते हुए मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयास करने का विधान था।
सन्यासियों के लिए विभिन्न नामों का प्रयोग किया जाता था। सूत्र साहित्य में उन्हें सन्यासी के अतिरिक्त भिक्षु, परिव्राजक, यति, मौन आदि नामों से सम्बोधित किया गया है। सन्यासियों के लिए अहिंसा, निर्द्वन्द्व, सत्यभाषी, सत्यनिष्ठ, गम्भीर, क्रोधहीन, धर्मानुयायी तथा क्षमाशील आदि गुणों से युक्त होना आवश्यक था। वह फटे-पुराने वस्त्र धारण करता था या एकान्त में नग्न रहता था। कुछ सन्यासी दण्ड भी धारण करते थे। सन्यासी द्वारा भिक्षा माँगने के सम्बन्ध में अनेक नियम थे परन्तु सभी नियमों का आधार यह था कि सन्यासी अल्पाहारी होना आवश्यक है।
आश्रम व्यवस्था की विशेषतायें
वर्णाश्रम की व्यवस्था ने प्राचीन भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति के विकास तथा चरमोत्कर्ष में बड़ा ही योगदान किया है। वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक तथा सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से वर्णाश्रम व्यवस्था ने तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था को सन्तुलित बना दिया। व्यवहार तथा सिद्धान्त का इससे उत्तम समन्वय हमें कहीं और नहीं प्राप्त होता। इस व्यवस्था की अनेक विशेषतायें हैं। व्यक्तिगत तथा सामाजिक महत्व को ध्यान में रखते हुए इसने एक ओर तो व्यक्ति को सर्वांगीण विकास के लिए पूरे प्रबन्ध तथा दूसरी ओर सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समर्थ पौरुष वाले चरित्रों का निर्माण किया आश्रम व्यवस्था के महत्व का वर्णन करते हुए ड्यूसन महोदय ने लिखा है-
“मानव जाति के इतिहास में विचारों और आदर्शों का यह चरमोत्कर्ष अन्यत्र कहीं नहीं मिलता।” पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस व्यवस्था से प्रभावित होकर “हिन्दुस्तान की खोज’ में लिखा है-
“हिन्दुस्तानियों में विश्लेषण करने की अद्भुत बुद्धि रही है और इसमें न केवल विचारों बल्कि कामों को अलग-अलग टुकड़ों में बांटने के लिए उत्साह दिखाया है। आर्यों ने समाज को तो चार प्रमुख हिस्सों में बाँटा ही, वैयक्तिक जीवन का इसने चार टुकड़ों या अवस्था में बंटवारा किया है।
…………….इस तरह से आर्यों ने, आदमी में साथ-साथ रहने वाली दो विरोधी प्रवृत्तियों में भी समझौता कायम किया अर्थात् उस प्रवृत्ति में जो कि जीवन के प्रति प्रवृत्त होती है और उसमें जो कि निवृत्ति की ओर उन्मुख हैं।”
इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक
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