अनुसंधान क्रियाविधि

अनुसंधान या शोध प्रक्रिया | शोध प्रक्रिया के प्रमुख चरण | शोध की सीमायें

अनुसंधान या शोध प्रक्रिया | शोध प्रक्रिया के प्रमुख चरण | शोध की सीमायें | research or research process in Hindi | Major Stages of the Research Process in Hindi | research limits in Hindi

अनुसंधान या शोध प्रक्रिया

(Research Process)

(1) समस्या को परिभाषित करना (Defining the Problem)- शोध के प्रथम चरण में समस्या को परिभाषित किया जाता है। यदि समस्या को परिभाषित न किया जाये या वास्तविक समस्या की जानकारी प्राप्त न की जाये तो शोध द्वारा उसका सही हल नहीं खोजा जा सकता। समस्या की जानकारी करने के लिए प्रबन्धकों को शोधकर्त्ता की सहायता लेनी चाहिये क्योंकि हो सकता है कि प्रबन्धकों ने समस्या का सही अर्थ न समझा हो। उदाहरण के लिये एक कम्पनी की बिक्री में कमी होने लगी तो प्रबन्धकों ने अनुमान लगाया कि कम्पनी के विज्ञापन की प्रभावशालीता कम हो गई है लेकिन वास्तविकता कुछ और ही थी। शोधकर्ता ने अन्वेषण करके बताया कि विज्ञापन तो प्रभावशाली था लेकिन कम्पनी की वितरण प्रणाली दोषपूर्ण थी तथा फुटकर व्यापारियों को माल ठीक प्रकार नहीं पहुँचता था। ऐसी स्थिति में यदि शोधकर्ता विक्री की कमी की समस्या का पता नहीं लगाता तो हो सकता है कि प्रवन्धक विज्ञापन पर और अधिक व्यय करने का या विज्ञापन के माध्यम को बदलने का निर्णय ले लेते। लेकिन बिक्री फिर भी कम ही रहती क्योंकि इसके लिये तो वितरण व्यवस्था को सुधारने की आवश्यकता है। अतः समस्या को पहले परिभाषित कर लेना चाहिये।

(2) स्थिति विश्लेषण (Situation Analysis)- इसके अन्तर्गत शोधकर्ता कम्पनी बाजार, प्रतिस्पर्धा एवं सम्पूर्ण उद्योग का विश्लेषण करता है। स्थिति विश्लेषण के अन्तर्गत समस्या को परिवर्तित एवं परिमार्जित करने के लिये प्रयत्न किये जाते हैं जिससे कि यह जानकारी हो सके कि समस्या के लिये किन-किन तथ्यों की आवश्यकता है एवं इन तथ्यों को कहाँ से और किस प्रकार एकत्रित किया जाये। इस प्रकार के विश्लेषण से समस्या का क्षेत्र छोटा एवं स्पष्ट हो जाता है।

(3) सूचनाओं के उपलब्ध स्रोतों की जाँच करना (Checking of Available Resources of Information)- शोध के लिये जिन स्रोतों से सूचनायें प्राप्त करनी है उनकी पूर्ण जाँच करनी चाहिये क्योंकि कभी-कभी सूचनाओं के स्रोतों द्वारा पक्षपातपूर्ण सूचनायें दी जा सकती हैं, जैसे-कुछ विक्रेता अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण कम्पनी को सही सूचना नहीं देते हैं। अतः शोध के लिये यह आवश्यक है कि जिन स्रोतों से सूचनायें प्राप्त करना है। उनकी जाँच करके यह पता लगाना चाहिये कि वे स्रोत निष्पक्ष सूचना दे रहे हैं या नहीं।

(4) आँकड़ों का संकलन (Collection of Statistics)- सूचनाओं के स्रोतों की जाँच करने के बाद समस्या से सम्बन्धित आँकड़े एकत्रित किये जाते हैं। आँकड़े एकत्रित करने के स्रोतों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-आन्तरिक स्रोत एवं बाह्य स्रोत। आन्तरिक स्रोतों के अन्तर्गत कम्पनी के विक्रय या लागत संलेखों, विक्रेताओं की रिपोर्ट, ग्राहकों से पत्र- व्यवहार आदि को सम्मिलित किया जाता है। बाह्य स्रोतों से आँकड़े एकत्रित करने के दो स्रोत हैं- (1) प्राथमिक स्रोत एवं (2) द्वितीयक स्रोत।

(5) आँकड़ों का सारणीयन (Tabulation of Data)- आँकड़ों का संकलन करने के पश्चात् उनका सारणीयन किया जाता है। सारणीयन से आशय ऑकड़ों को सरल एवं स्पष्ट रूप से तालिका के रूप में प्रस्तुत करने से है ताकि उनका आसानी से विश्लेषण करने के पश्चात् किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके।

(6) आँकड़ों का विश्लेषण एवं निर्वचन (Analysis and Interpretation of Data)- आँकड़ों का संकलन एवं सारणीयन करने से ही समस्या का समाधान नहीं होता अपितु इसके लिए आँकड़ों का विश्लेषण किया जाता है। आँकड़ों के विश्लेषण के आधार पर महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकालने चाहिये। इसके पश्चात् आँकड़ों के विश्लेषण से प्राप्त निष्कर्षों की व्याख्या करनी चाहिये कि इस विश्लेषण से क्या परिणाम निकलता है। वास्तव में यही शोध का उद्देश्य होता है।

(7) लिखित प्रतिवेदन तैयार करना (To Prepare Written Report) – शोधकर्ता को आँकड़ों के निर्वचन के आधार पर अपनी सिफारिशों का एक लिखित प्रतिवेदन रिपोर्ट के रूप में विपणन प्रवन्धक को प्रस्तुत करना चाहिए। विपणन प्रबन्धक को लिखित प्रतिवेदन प्रस्तुत करने के पश्चात् शोधकर्ता और विपणन प्रबन्धक को मौखिक विचार-विमर्श करना चाहिये ताकि विपणन प्रबन्ध को प्रतिवेदन स्पष्ट एवं विस्तार से समझाया जा सके और विपणन प्रबन्धक के प्रश्नों का उत्तर शोधकर्ता द्वारा दिया जा सके। शोध प्रतिवेदन निर्णयात्मक होना चाहिये। शोध प्रतिवेदन में शोध का उद्देश्य, क्षेत्र एवं शोध योजना का उल्लेख होना चाहिए।

(8) प्रतिवेदन का अनुसरण (Follow-up the Report)- वैसे तो विपणन प्रबन्धक को शोध प्रतिवेदन देने के पश्चात् शोध प्रक्रिया समाप्त हो जाती है, लेकिन कुछ विद्धानों का कहना है कि प्रतिवेदन के अनुसरण कार्य को भी शोध प्रक्रिया में ही सम्मिलित करना चाहिये क्योंकि इस प्रकार शोध का तब तक महत्व नहीं जब तक कि उस शोध प्रतिवेदन में की गई सिफारिशों को कार्य रूप में परिणित न कर दिया जाए।

शोध प्रक्रिया के प्रमुख चरण

(Main Steps of Research Process)

शोध प्रक्रिया के प्रमुख चरण या कार्य निम्नलिखित हैं-

(1) विषय-शीर्षक का चयन- शोध कार्य के लिये किसी विषय का चयन करना चाहिये तथा उस विषय के अन्तर्गत शोध-शीर्षक का भी चयन बहुत सावधानी से करना चाहिये। यह कार्य एक बौद्धिक प्रयास है। इसका अर्थ केवल नवीन अन्वेषण नहीं है। इसका अर्थ एक नवीन सरंचना, एक नवीन दृष्टिकोण, एक नवीन साक्ष्य आदि भी है। शोध-कार्य विद्यमान आँकड़ों या अभी तक अज्ञात ऑकड़ों पर आधारित होता है। इसलिये विषय- शीर्षक का चयन करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि उस पर समुचित आँकड़े मिल सकें। जिस विषय का ज्ञान उस शोधकर्ता को सबसे अधिक हो, उसी विषय पर शोध कार्य करना चाहिये। इसमें यह भी ध्यान रखना चाहिये कि उसे विषय-सामग्री आसानी से प्राप्त हो सके। उसे विषय की भाषा का ज्ञान होना चाहिये।

तुलनात्मक विषयों पर शोध कार्य करने में काफी कठिनाई होती है, क्योंकि दो तरह की संस्कृति भाषा और विषय सामग्री का अध्ययन करना पड़ता है। विषय-शीर्षक चयन में ग्रंथों एवं पत्र-पत्रिकाओं की सन्दर्भ सूचियों से भी सहायता ली जा सकती है। विषय-चयन के बाद, विविध अध्यायों का अवलोकन करते हैं। उनके लिये सामग्री संकलन का कार्य पुस्तकालयों में जाकर पुस्तकों तथा पत्र-पत्रिकाओं से करते हैं।

(2) रचना-पुनः रचना- चयनित शीर्षक पर शोधकर्ता रचना अथवा पुनः रचना का कार्य करता है। जब वह सर्वथा नये विषय पर लिखता है, तो उसे रचना कहते हैं, और जब  किसी पूर्वविज्ञप्त विषय पर अपने भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए लिखता है तो उसे पुनःरचना कहते है। रचना किसी विषय की सीमा के अन्तर्गत तथ्यों की यथार्थ समालोचना के साथ क्रमबद्ध घटना-वर्णन को परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत की जाती है, जो समसामयिक मानव समाज को छूती हुई होनी चाहिए। इसकी शैली सरल, सुबोध, सरस और साहित्यिक होती है। रचना रोचक तथा मूल्य सम्पृक्त होनी चाहिये। यह कार्य रचनाकार सामान्यीकरण, व्याख्या, विश्लेषण तथा मूल्यांकन के सिद्धान्तों के आधार पर करता है। विषय की सीमा, तथ्यों की यथार्थता, ऐतिहासिक स्रोतों की विश्वसनीयता तथा घटनाओं की क्रमबद्धता के पश्चात् शोध में कलात्मक पुनर्रचना प्रमुख हो जाती है।

(3) अतीत की खोज- शोध की नवीन विधा का उद्देश्य अतीत की खोज है। कुछ लोग इसे सम्भव, तो कुछ असम्भव बताते हैं। 19वीं शताब्दी के जर्मन इतिहाकार यह मानते थे कि अतीत का यथावत् प्रस्तुतिकरण ही शोध का कर्त्तव्य है। उनकी यह मान्यता उस समय मिथ्या सिद्ध हुई जब शोधकर्ता ने अपने मनोनुकूल तथ्यों का चयन, व्याख्या, विश्लेषण करके उन्हें तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करना प्रारम्भ किया और उससे खिन्न होकर हेनरी फोर्ड ने इतिहास को ‘अंधकार कोठरी’ की संज्ञा दे डाली। कार्ल बेकर ने भी यह कहा कि अतीत की पुनः प्राप्ति असम्भव है।

(4) सतर्कता- शोध एक ऐसा कार्य है जिसमें एक शोधकर्ता को काफी सतर्कता एवं सावधानी बरतनी पड़ती है। यह सतर्कता उसे विषय-शीर्षक चयन से लेकर अध्ययन-लेखन कार्य सम्पादन तक रखनी पड़ती है। जैसे-गलत विषय न चुन जाय, भ्रामक शीर्षक न मिल जाय, व्यर्थ के स्रोत-सन्दर्भ न सामने आयें, मौलिक-वास्तविकता ग्रन्थ ही अध्ययन किये जाँच, संदर्भ ग्रन्थों की भौतिक रचना का सही ज्ञान हो, उचित कथन, प्रश्न, परीक्षण तर्क, अनुमान, निष्कर्ष आदि निकल सके। तथ्यों प्रस्तुति सही ढंग से हो सके। यथार्थ पर आवरण न चढ़ सके। शोधकर्ता के लिये शोध कार्य के अन्तर्गत जो भी कार्य निर्दिष्ट हो उन सबके करने में पूरी सतर्कता रखना ही शोध में सतर्कता की अवधारणा है।

(5) परिकल्पना- कारणों की व्याख्या में परिकल्पना सहायक होती है, क्योंकि कल्पना के अभाव में कारणों की क्रमबद्धता कठिन है। इसी सत्य को ध्यान में रखकर क्रोचे तथा कालिंगवुड ने कहा है कि कल्पना ऐतिहासिक ज्ञान का मूल स्रोत है। इसी को भारतीय दर्शन में अनुमान कहा गया है। मोमसेन तथा माइकेल ने भी अनुमान के महत्व को स्वीकार किया है।

(6) समीक्षा- ऐतिहासिक शोध में समीक्षा एक आवश्यक प्रक्रिया है। समीक्षा इतिहाकार की एक विशेषता है जो वह इतिहास लेखन के प्रयोग में लाता है। वह प्राप्त तथ्यों-साक्ष्यों की विविध प्रकार से समीक्षा करता है उसकी काल्पनिकता, निश्चयात्यकता की जाँच करता है। इसलिये समीक्षा के गुण किसी भी इतिहासकार में आवश्यक माने जाते हैं।

(7) विश्लेषण- इतिहास में जो प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में हमें साक्ष्य प्राप्त होते हैं उनको यथावत् स्वीकार कर लेना  पहले भले प्रचलित रहा हो, किन्तु वर्तमान वैज्ञानिक समय में लोग उसका विविधत् विश्लेषण भी किया करते हैं। क्योंकि अतीत का चित्रण कभी पूर्ण नहीं होता और प्रत्येक युग में नवीन साक्ष्यों के परिप्रेक्ष्य में अतीत का चित्रण परिवर्तनशील होता है, इसलिये नवीन साक्ष्य पुरातन साक्ष्यों के पुनर्मूल्यांकन तथा विश्लेषण के लिये शोधकर्त्ता को विवश करते हैं।

(8) प्रश्नोत्तर- किसी भी उत्तर की जानकारी के लिये प्रश्न करना होता है। प्रश्न दूसरों से ही नहीं, अपितु अपने आप से हुआ करते हैं। इतिहास में भी इतिहासकार कुछ सामाजिक प्रश्न  करता है और उसका उत्तर वह अतीत से प्राप्त कर अपने समाज के समक्ष प्रस्तुत करता है। बेकन के अनुसार वैज्ञानिक सर्वदा प्रकृति से प्रश्नोत्तर प्राप्त करता है। वैज्ञानिक विधि में आस्थावान् इतिहासकार कुछ प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में अतीत का अध्ययन करता है। प्लेटो ने भी अतीत से अपने प्रश्नों का उत्तर चाहा है। सुकरात की शिक्षा उसके प्रश्नों द्वारा ही दी गयी थी। भारतीय इतिहासकारों के निष्कर्ष भी उनके प्रश्नों के ही उत्तर हैं। इस विचारधारा को हम कल्पना, पूर्वाग्रह अथवा मूलभूत प्रश्नोत्तर कह सकते हैं। यदि मस्तिष्क में प्रश्न का स्वरूप स्पष्ट नहीं है तो उसका उत्तर भी स्पष्ट नहीं हो सकता।

(9) अवलोकन और परीक्षण- शोध में अतीत की घटना और समसामयिक स्थिति का उचित ढंग से अवलोकन एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। तथ्यों की विश्वसनीयता के लिये उनका सभी प्रकार से निरीक्षण एवं परीक्षण भी किया जाना चाहिये। हॉकेट ने विज्ञान की भाँति इतिहास में भी विश्वसनीय निरीक्षण को आवश्यक बताया है। कभी-कभी प्रत्यक्षदर्शी का कथन भी असत्य हो जाता है और वह किन्हीं कारणों से तथ्य को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करता है इसलिये निरीक्षण- परीक्षण आवश्यक होता है।

(10) तर्क प्रस्तुतिकरण- शोध में अपने कथनों को प्रतिष्ठित करने और अन्यों के विचारों को अपुष्ट सिद्ध करने के लिये तरह-तरह के साक्ष्यों को अपनी तार्किक शक्ति के सहारे प्रस्तुत किया जाता है। तर्क आवश्यक है, किन्तु वह विषयान्तर्गत एवं व्यावहारिक होना चाहिये। शोधकर्ता को सदैव रचनात्मक तर्क प्रस्तुत करना चाहिये और तर्क देते समय उसकी सत्यता के प्रति सावधान रहना चाहिये।

शोध की सीमायें

(Limitations of Research)

शोध की प्रमुख सीमाओं का विवेचन निम्नलिखित है-

(1) समय की सीमा (Limitation of Time) – शोधकर्ता के सम्मुख समय की सीमा होती है कि उसे इतने समय में अपना प्रतिवेदन दे देना चाहिये। यदि वह समय पर्याप्त है तो वह अपना कार्य अच्छी प्रकार से सम्पादित कर सकता है। यदि समय कम है तो शोधकर्ता समय की कमी के कारण अपना शोध कार्य सही ढंग से नहीं कर सकता क्योंकि समयाभाव की स्थिति में वह सभी आवश्यक व्यक्तियों के साक्षात्कार नहीं कर सकता है और आँकड़ें भी सही मात्रा ‘संकलित नहीं कर पाता है।

(2) धन की सीमा (Limitation of Money)- प्रायः शोधकर्त्ता की यह शिकायत होती है कि उनके पास शोध कार्य के लिए पर्याप्त धन नहीं है। शोधकर्ता निर्धारित धन की सीमा के अन्तर्गत ही अपना कार्यक्रम निर्धारित करते हैं। ऐसी स्थिति में प्रायः लघु न्यादर्श (Small Sample) के आधार पर या द्वितीयक समंकों के आधार पर आँकड़े एकत्रित करते हैं। वे पर्याप्त मात्रा में आवश्यक व्यक्तियों से साक्षात्कार नहीं कर पाते हैं जिसके परिणामस्वरूप शोध की सत्यता संग्दिध रहती है।

(3) कुशलता या दक्षता की सीमा (Limitation of Skill)- शोध की सफलता काफी मात्रा में शोधकर्ता की योगयता, कुशलता एवं अनुभव पर निर्भर करती है। एक शोधकर्ता को सांख्यिकी विधियों का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए क्योंकि शोध कार्य में समंकों के संकलन, सारणीयन, विश्लेषण एवं निर्वचन की आवश्यकता पड़ती है। इसके अतिरिक्त द्वितीय समंकों के सम्बन्ध में शोधकर्ता को उनकी विश्वसनीयता की जाँच करनी होती है। यदि शोध कार्य ऐसे व्यक्तियों के द्वारा कराया जाता है जो कि न तो ठीक प्रकार से प्रशिक्षित हैं और न अनुभवी, तो उस शोध से निकाले गए परिणाम सही ही होंगे, इसकी बहुत कम सम्भावना है।

(4) पक्षपात की सीमा (Limitation of Biasness)- शोध की प्रत्येक क्रिया में पक्षपात की सम्भावना रहती है। धन, समय एवं कुशलता की सीमा भी पक्षपात को जन्म देती है। उदाहरण के लिए, यदि धन एवं समय कम होने के कारण केवल न्यादर्श (Sampling ) के  आधार पर ही समंक एकत्रित करते हैं तो न्यादर्श के चुनाव करते समय पक्षपात किया जा सकता है। पक्षपातपूर्ण सूचनाओं और पद्धतियों के आधार पर निकाले गये निष्कर्ष सही परिणाम प्रस्तुत नहीं करते हैं। अतः ऐसी स्थिति में शोध का उद्देश्य ही असफल हो जाता है।

(5) उपभोक्ता व्यवहार पर शोध (Research on Consumer Behavior)- विपणन शोध में उपभोक्ता व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। कुछ उपभोक्ता प्रदर्शन की भावना रखते हैं, जबकि अन्य कुछ विवेकशील होते हैं। पहली प्रकार के उपभोक्ता चाहते कुछ हैं लेकिन अपने शब्दों द्वारा कुछ और व्यक्त करते हैं। कभी-कभी ऐसी स्थिति में उनकी मनः स्थिति को ज्ञान प्राप्त करना कठिन ही नहीं अपितु असम्भव हो जाता है।

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Pankaja Singh

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