अनुसंधान क्रियाविधि

शोध या अनुसन्धान की अवधारणा | शोध की विधि | शोध के स्रोत की विधि एवं महत्व

शोध या अनुसन्धान की अवधारणा | शोध की विधि | शोध के स्रोत की विधि एवं महत्व | Research concept in Hindi | Research Method in Hindi | Method and importance of the source of research in Hindi

शोध या अनुसन्धान की अवधारणा

(Concept of Research)

शोध शब्द अंग्रेजी के ‘Re-Search’ शब्द की हिन्दी अनुवाद है, ‘Re’ शब्द का अर्थ होता है पुनः तथा ‘Search’ शब्द का अर्थ है खोज। अतः शोध शब्द का अर्थ हुआ पुनः खोजना। वास्तव में शोध का तात्पर्य एक ऐसे सत्य की लगातार खोज करते रहना है जो कि पूर्णरूपेण ज्ञात नहीं हो सका तथा जिसकी जिज्ञासा बनी हुई है। शोध का अर्थ नये तथ्यों को खोजना या पुराने तथ्यों की पुष्टि और जाँच करना, सैद्धान्तिक सन्दर्भ संरचना के अन्तर्गत उनके अनुक्रमों, अन्तर्सम्बन्धों तथा कारणात्मक व्याख्याओं का विश्लेषण करना तथा मानव व्यवहार के विश्वसनीय व सही अध्ययन करने में सहायक नये वैज्ञानिक उपकरणों तथा सिद्धान्तों को विकसित करना है।

जोन वेस्ट के अनुसार, “शोध ऐसी व्यवस्थित प्रक्रिया है जो नई खोज करती है तथा संकलित एवं सुसंगठित ज्ञान का विकास करती है।”

स्पार एवं स्वेन्सन के अनुसार, “कोई भी विद्वतापूर्ण अन्वेषण जो सत्य तथ्य एवं निश्चितता प्राप्ति के लिये किया जाता है वही शोध है।”

रेडमन तथा मोरी के अनुसार, “नवीन ज्ञान प्राप्ति के व्यवस्थित प्रयत्न को हम शोध कहते हैं।’’

इस प्रकार शोध द्वारा विद्यमान ज्ञान में अभिवृद्धि होती हैं। यह सत्य की ऐसी खोज है जिसमें अध्ययन, अवलोकन, तुलना तथा प्रयोगों द्वारा किसी निश्चित विषय को विकसित किया जाता है। शोध द्वारा किसी एक निश्चित समस्या का वस्तुपरक तथा क्रमबद्ध तरीके से समाधान खोजने का प्रयत्न किया जाता है। इस प्रकार शोध का उद्देश्य अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तरों की वैज्ञानिक प्रणाली के द्वारा उपयुक्त उत्तरों की खोज करना है।

शोध की विधि

(Method of Research)

रेरियन ने तीन भागों (स्तरों) में शोध प्रणाली को बाँटा है-

(1) नवीन तथ्यों की खोज- शोधकार्य में पहला स्तर यह होता है अतीतकालिक घटना के सम्बन्ध में नये तथ्य, सूचना तथा विचारों को खोजकर उन्हें प्रस्तुत करना। उदाहरणार्थ- प्रिंसेप ने ब्राह्मी लिपि को पढ़कर अशोक के सम्बन्ध में अज्ञात तथ्यों को प्रकाशित किया, जिससे उनके इतिहासकारों का ध्यान अशोक के सम्बन्ध में शोधकार्य के लिए आकृष्ट हुआ।

(2) उपलब्ध तथ्यों की नवीन व्याख्या- शोध प्रणाली का दूसरा स्तर जटिल है। इसके अन्तर्गत शोधकर्ता ज्ञात तथ्यों का विश्लेषण, व्याख्या, स्पष्टीकरण, मूल्यांकन तथा आलोचनात्मक परीक्षण करता है। जैसे- वी.ए. स्मिथ ने अकबर के ‘दीनइलाही’ धर्म की आलोचना की, जबकि एस.आर. शर्मा तथा ईश्वरीप्रसाद ने प्रशंसा की और स्मिथ को एक पक्षपाती इतिहासकार कहा।

(3) सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में तथ्यों का निरूपण- शोध प्रणाली का यह तीसरा स्तर बहुत अधिक जटिल है। इस स्तर पर पहुँचकर शोधकर्ता दर्शानिक वन जाता है और एक सामान्य नियम अथवा सिद्धान्त के माध्यम से अतीत की घटनाओं का निरूपण तथा उसके व्यावहारिक स्वरूप की व्याख्या करता है। जैसे हीगल, मार्क्स काम्टे, क्रोचें, स्पेंगलर, टायनबी विको आदि ने अपने विशेष दृष्टिकोण से अतीत की समीक्षा की और अपने दार्शनिक विचार प्रस्तुत किये।

शोध के स्रोत

(Sources of Research)

शोधकर्त्ता शोध के कार्य में स्रोत एक माध्यम का कार्य करते हैं। हमें जब कोई ठोस और तथ्यपूर्ण प्रामाणिक स्रोत मिलता है तभी हम किसी निश्चित दिशा में शोध का कार्य प्रस्तुत करते हैं। ये स्रोत हमें सन्दर्भ अथवा साक्ष्य स्वरूप होते हैं। यदि किसी स्रोत से हमें सन्दर्भ न प्राप्त हों तो हम शोध का कार्य नहीं कर सकते। शोध के लिये जिन ऐतिहासिक स्रोतों की आवश्यकता होती है। उनमें सन्दर्भ ग्रंथ, पुरातत्त्व, पुरालेख एवं मुद्राशास्त्र की समान रूप से उपयोगी हैं। शोध के स्रोतों को कुल दो भागों में बाँटा जा सकता है-

(1) शोध के प्रधान स्रोत

शोध के प्रधान स्रोत में प्रत्यक्ष गवाह के साख्य पांडुलिपि, हस्तलिखित प्रति, मौलिक एवं प्रकाशित ऐतिहासिक दस्तावेज शामिल किये जा सकते हैं। प्रधान स्रोत क्रमबद्ध जा सकते हैं। प्रधान स्रोत निम्नलिखित हो सकते हैं-

(1) समकालीन अभिलेख-इसमें अनुदेश, दस्तावेज, नियुक्ति, सूचना, युद्ध-भूमि के आदेश, विदेश मंत्रालय से किसी राजदूत को भेजे हुए आदेश, आशुलेखन व ध्वनिलेखन, रिकार्ड, व्यापार-विधि संबंद्ध कागजात, हुण्डी, विधेयक, पत्रिकायें, आदेश, रेहन, वसीयतनामा, कर अभिलेख, नोटबुक, स्मारक पत्र आदि को मान्य किया गया है। जैसे-रॉब्सपियर औरक्षजेफरसन के नोटवुक ऐतिहासिक महत्व के प्रधान स्रोत हैं।

(2) गोपनीय प्रतिवेदन- समकालीन दस्तावेजों से कम विश्वसनीय ये स्रोत सार्वजनिक नहीं होते। ये प्रायः घटना के बाद लिखे जाते है। सैनिक और राजन्य संवाद पत्रिका और डायरी,  व्यक्तिगत पत्र आदि इसमें आते हैं, लेकिन कम विश्वसनीय होने के कारण इनकी जाँच करके सत्यता होने पर ही इन्हें प्रयोग में लाना चाहिये।

(3) सार्वजनिक प्रतिवेदन- ये निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं-

(i) समाचारपत्र और विज्ञप्ति-ये महत्वपूर्ण और विश्वसनीय होते हैं क्योंकि घटना के साथ ही ये प्रकाशित कर दिये जाते हैं। लेकिन सम्पादक, संवाददाता, पत्रकार भी आजकल कुछ अर्थ में धन अथवा प्रभाव में आने से सत्य से परे समाचार प्रकाशित करते हैं।

(ii) संस्मरण और आत्मकथायें- ये भी अधिक विश्वसनीय नहीं होते। इनकी रचना जीवन के अंतिम समय में होने से बहुत से सत्य याद नहीं रह गये होते। जाली लेखकों द्वारा भी लिखे जाने से ये अविश्वसनीय हो सकते हैं।

(iii) अन्य प्रतिवेदन- सरकार या किसी व्यापारी घराने का सरकारी या अधिकृत इतिहास ऐसा सार्वजनिक प्रतिवेदन है जिसका अध्ययन बहुत सावधानी से करना चाहिये, क्योंकि देश और समाज के लिये अहितकर चीजें ये भी नहीं लिखते और छिपाते हैं।

(4) प्रश्नावाली- किसी प्रश्न पर लोगों के विचार संग्रह करके बनायी गयी प्रश्नावली एक नवीन प्रणाली के रूप में शोध का प्रधान स्रोत है। इसे सावधानी से तैयार करना चाहिये और उत्तरदाता को विश्वास में लेकर सही उत्तर प्राप्त करना चाहिये।

(5) सरकारी दस्तावेज- वित्तीय आँकड़े, जनगणना, प्रतिवेदन, राष्ट्रीय या प्रादेशिक वार्षिकी आदि इसमें आते हैं। लेकिन विद्वान इसे प्रधान स्रोत मानने से इन्कार करते हैं। जैसे वर्तमान में फर्जी आंकड़े सरकार दिया करती है जिसकी खिल्ली राजनीतिक दलों तथा जन साधारण द्वारा उड़ायी जाती है।

(6) जनमत- सम्पादक के नामपत्र, पुस्तिकाओं, सम्पादकीय सम्भाषणों, जनमतसंग्रह आदि में इस स्रोत के सूत्र हैं, लेकिन ये सदैव विश्वसनीय न होने से जाँच कर ही उपयोग में लाने योग्य होते हैं

(7) साहित्य- साहित्य समाज का दर्पण होता है। अतएव यह भी एक महत्वूपर्ण स्रोत हो सकता है। परन्तु इसके साथ सरकारी कागजातों से भी सहायता लेनी चाहिये।

(ii) शोध के गौण-स्त्रोत

गोटचाक के अनुसार गौण स्रोत चार रूपों में उपयोगी होते हैं-गौण वृत्तान्त को सुधारना, अन्य ग्रंथ सन्दर्भों का संकेत करना, उद्धरणों को ग्रहण करना एवं व्याख्यान करना। ये गौण होने से महत्वहीन होते हैं, ऐसी बात नहीं। सच तो यह है कि गौण स्रोतों की पूरी तरह से जानकारी के बाद ही एक शोधकर्ता प्रधान स्रोतों का उचित उपयोग कर सकता है, सामयिक दस्तावेजों को उचित स्थानों पर रख सकता है और गौण विचरणों में संशोधन कर सकता है।

सन्दर्भ (Reference)

वास्तव में, सन्दर्भ साक्ष्य अथवा प्रमाण के स्वरूप होते हैं। जब हम अपने साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं, तो शोध में इनको ही सन्दर्भ कहते हैं। ये सन्दर्भ पुस्तको, पत्र-पत्रिकाओं, सरकारी दस्तावेजों आदि से लिये जाते हैं। आज के वैज्ञानिक युग में विचारों के सत्यापन की जो परिपाटी चल पड़ी है उसमें सन्दर्भ अपरिहार्य एवं आवश्यक है। सन्दर्भरहित कोई भी कृति शोध की श्रेणी में नहीं आती है। सन्दर्भ कई प्रकार के होते हैं। साक्ष्यों की तरह इनका प्रयोग लोग समुचित प्रकार से करते हैं।

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Pankaja Singh

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