अनुसंधान क्रियाविधि

अनुसन्धान के प्रकार | विशुद्ध या मौलिक अनुसन्धान | व्यावहारिक अनुसन्धान | अर्द्धसामाजिक अनुसन्धान | विशुद्ध और व्यावहारिक अनुसन्धान में अन्तर

अनुसन्धान के प्रकार | विशुद्ध या मौलिक अनुसन्धान | व्यावहारिक अनुसन्धान | अर्द्धसामाजिक अनुसन्धान | विशुद्ध और व्यावहारिक अनुसन्धान में अन्तर | Research Types in Hindi | Pure or original research in Hindi | Applied Research in Hindi | Semi-Social Research in Hindi | difference between pure and applied research in Hindi

अनुसन्धान के प्रकार (Types of Research)

अनुसन्धान का क्षेत्र ससमाज स सम्बद्ध है और समाज या सामाजिक संस्थाओं से सम्बन्धित कोई भी खोज अनुसन्धान का हिस्सा बन जाती है। अनुसन्धानों को निम्नलिखित तीन प्रकारों में  वर्गीकृत किया गया है, जिनमें प्रथम और द्वितीय प्रकारों को भी पूर्ण मान्यता प्राप्त है-

(1) विशुद्ध या मौलिक अनुसन्धान (Pure of Fundamental Research)

(2) व्यावहारिक अनुसन्धान (Applied Research)

(3) अर्द्धसामाजिक अनुसन्धान (Quasi-Social Research)

(1) विशुद्ध अनुसन्धान (Pure Research)

पी.वी. यंग के शब्दों में, “विशुद्ध अनुसन्धान उसे कहते हैं जिनके द्वारा ज्ञान की प्राप्ति ज्ञानवृद्धि के लिये हो।” ऐसे अनुसन्धानों के अन्तर्गत समाजशास्त्र के मौलिक सिद्धान्तों पर अनुसन्धान होता है। इसके द्वारा या तो किसी पुराने सिद्धान्त का प्रमापीकरण किया जाता है या किसी नवीन सिद्धान्त का प्रतिपादन और इनकी आवश्यकता तब प्रतीत होती है जब समाज में ऐसी नयी समस्यायें खड़ी होती हैं जिनका समाधान पुराने सिद्धान्तों के आधार पर नहीं हो पाता। सामाजिक प्रघटनाओं का क्रियाशील स्वरूप इस बात की अपेक्षा करता है कि पुराने सिद्धान्तों का समय-समय पर पुनर्परीक्षण होता रहे और उन्हें अधिक सक्षम बनाने के लिये उनमें आवश्यक संशोधन भी होता है।

विशुद्ध अनुसन्धान के उपयोग (Use of Pure Research)

विशुद्ध अनुसन्धान के उपयोग निम्नलिखित हैं :-

(1) प्रकार्यात्मक सम्बन्धों की खोज (Investigation of Functional Relations) – इस अनुसन्धान के द्वारा सामाजिक घटनाओं के प्रकार्यात्मक सम्बन्धों (Functional Relations) की खोज की जाती है, जिससे उनके उद्भव का ज्ञान होता है।

(2) व्यावहारिक समस्याओं के मूल्य तत्त्वों या कारकों का ज्ञान (Knwoledges of Key Factors or Elements of Practical Problems) – समस्याओं को परम्परावाद ढंग से देखने पर मूल्य कारकों पर ध्यान केन्द्रित न होने से समाधान प्राप्त नहीं होता। इसके लिये आवश्यक है कि किसी भी समस्या की तह तक पहुँचकर उसे उत्पन्न करने वाले तत्त्वों का पता लगाकर उन पर नियन्त्रण किया जाये। इससे समस्या का स्थायी निदान प्राप्त होता है। यह विशुद्ध अनुसन्धान द्वारा सम्भव है। गुडे और हाट (Goode and Hatt) ने जातीय समस्या का उदाहरण प्रस्तुत किया है।

(3) सामाजिक घटनाओं और जटिल तथ्यों के बारे में जानकारी (Knowlodge about Social Events and Complex Facts) – विशुद्ध अनुसन्धान महत्त्वपूर्ण सामाजिक घटनाओं की जानकारी देता है जिससे समस्या के व्यावहारिक समाधान में सहायता मिलती है। इससे जटिल तथ्यों का बोध भी होता है जो व्यावहारिक अनुसन्धान में सहायक होते हैं।

(4) व्यावहारिक समस्याओं के समाधान में सहायक (Helpful in Solving Practical Problems) – विशुद्ध अनुसन्धान द्वारा प्राप्त सामग्री या तथ्यों के आधार पर एक निश्चित निष्कर्ष प्राप्त किया जा सकता है। गुडे और हाट (Goode and Hatt) का कहना है कि, “वास्तव में यह कहा जा सकता है कि रोग निदान या चिकित्सा के लक्ष्यों की प्राप्ति में अन्य कोई बात इतनी व्यावहारिक नहीं जितना कि एक उपयुक्त विशुद्ध अनुसन्धान।”

(5) विशुद्ध अनुसन्धान प्रशासक के लिये (Use of Pure Research for an Administrator) – गुडे और हाट के मत में विशुद्ध अनुसन्धान प्रशासक के लिये प्रामाणिक प्रणाली है। प्रशिक्षित प्रशासक द्वारा इसको उपयोग में लाने पर प्रशासन तन्त्र में सुधार सम्भव है।

(6) वैकल्पिक समाधान (Alternative Solution)- विशुद्ध अनुसन्धान वैकल्पिक समाधान प्रस्तुत करने में अधिक सक्षम होता है। व्यावहारिक अनुसन्धान की कुछ सीमायें होती हैं, जिनसे आगे वह किसी समस्या का स्थायी समाधान प्रस्तुत करने में असफल साबित होता है।

(7) गैर-सरकारी संस्थाओं में उपयोग (Use in Non-Government Organistions)- गैर सरकारी संस्थाओं में भी विशुद्ध अनुसन्धान के उपयोग द्वारा विभिन्न लक्ष्यों की पूर्ति की जाती है और नवीन समस्यायें उपस्थित होने पर उनका समाधान ढूंढा जाता है।

(8) स्वाभाविक या सामान्य नियमों का ज्ञान (Knowledge of Natural or Common Laws) – विशुद्ध अनुसन्धान द्वारा स्वाभाविक या सामान्य नियम ज्ञात कर उन्हें सामाजिक घटनाओं के अध्ययन में उपयोग में लाते हैं।

विशुद्ध अनुसन्धान के दोष (Drawbacks of Pure Research)-

विशुद्ध अनुसन्धान के दोष भी हैं। अनुसन्धान की प्रारम्भिक अवस्था में इनकी सम्भावना रहती है। इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं-

(1) इस अनुसन्धान कार्य में अधिक व्यय की सम्भावना होती है।

(2) इस बात की भी सम्भावना रहती है कि अनुसन्धान के सिद्धान्त प्रथम प्रयास में ही वैध और प्रामाणिक न वन सकें।

(3) विशुद्ध अनुसन्धान द्वारा निर्मित सिद्धान्तों को लागू करने में विशेष कठिनाई भी अनुभव की जा सकती है, क्योंकि वे पहली बार प्रस्तुत किये जाते हैं।

(4) इस अनुसन्धान में जाँच-पड़ताल, छानबीन तथा सम्बन्धित उपकरणों और यन्त्रों में व्यय भी अधिक हो सकता है, क्योंकि यह आवश्यक नहीं कि वे सब पहले से उपलब्ध हों।

(II) व्यावहारिक अनुसन्धान

(Applied Research)

विशुद्ध अनुसन्धान से प्राप्त निष्कर्ष को सामाजिक समस्यायें हल करने में किस प्रकार और कहाँ तक प्रयुक्त किया जा सकता है तथा आवश्यकता पड़ने पर उसमें कितना संशोधन किया जा सकता है, इन सभी सम्भावनाओं और अपेक्षाओं का आधार व्यावहारिक अनुसन्धान होता है। व्यावहारिक अनुसन्धान, इस प्रकार, सामाजिक चिकित्सा या सामाजिक अभियंत्रण (Social Therapy of Social Engineering) के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। इसका उपयोग ग्राम्य जीवन में नेतृत्व प्रणाली, किसी विशिष्ट जनजाति के सामाजिक रिवाजों, स्वास्थ्य- परिस्थितियों, सामाजिक गतिशीलता आदि के अध्ययन में किया जाता है। व्यावहारिक अनुसन्धान सामान्यतः सामाजिक सर्वेक्षण का रूप ग्रहण कर लेता है।

(1) बी.सी. एण्ड्रियास (B.C. Andreas) – के मत में, “यदि अनुसन्धानकर्त्ता तथ्यों द्वारा किसी क्रियात्मक समस्या का समाधान प्रस्तुत करे तो यह अनुसन्धान व्यावहारिक अनुसन्धान की श्रेणी में आता है।”

(2) पी.वी. यंग (P. V. Young) के अनुसार, ” व्यावहारिक अनुसन्धान उसे कहते हैं जिसके द्वारा प्राप्त ज्ञान मानव के भाग्य-सुधार में सहायक हो सके।”

गुडे और हाट (Goode and Hatt) ने व्यावहारिक अनुसन्धान के निम्नलिखित चार अंगों का वर्णन किया है-

(1) नवीन तथ्यों की प्राप्ति (Gaining New facts)- अध्ययन आरम्भ करने से पूर्व सामग्री का संकलन किया जाता है। आँकड़े उपलब्ध होने पर समस्या का विश्लेषण किया जाता है। विश्लेषण के परिणामस्वरूप-(i) नवीन तथ्य उद्घाटित होते हैं। (ii) पुराने प्रचलित सिद्धान्त संशोधित किये जाते हैं। (iii) पुराने सिद्धान्तों को नये ढंग से परिभाषित करते हैं।

(2) विभिन्न प्रचलित सिद्धान्तों को एकीकृत करना (To Integrate Various Existing Theorics) – किसी सामाजिक समस्या के समाधान हेतु किसी विशेष क्षेत्र तक सीमित न रहकर विभिन्न क्षेत्रों में हुये विशुद्ध और व्यावहारिक अनुसन्धानों की उपलब्धियों के एकीकरण की आवश्यकता प्रतीत हो सकती है। इस एकीकरण की सीमा का निर्धारण व्यावहारिक अनुसन्धान से होता है। (i) मलिन बस्तियों के प्रतिस्थापन करने वाली परियोजना का निर्माण करने में, (ii) विभिन्न जातीय समूहों के बच्चों में एकात्मकता लाने से सम्बन्धित नियोजन में, (iii) प्रौढ़ शिक्षा के कार्यक्रम का संचालन करने में, और (iv) जनांकिकी के दत्रों (Data) का प्रयोग विद्यालय में बच्चों की संख्या की गणना करने तथा समुदाय के मनोरंजन आदि की योजना में व्यावहारिक अनुसन्धान सहायक होता है।

(3) सिद्धान्त की कसौटी पर परखना (To Put Theory to Test)- सिद्धान्त के निर्माण के बाद उसे व्यावहारिक सफलता के लिये जाँच-परख लेना आवश्यक होता है और यह कार्य व्यावहारिक अनुसन्धान द्वारा सम्पन्न होता है।

(4) धारणा सम्बन्धी स्पष्टीकरण (Conceptual Classification)- व्यावहारिक अनुसन्धान द्वारा प्रचलित धारणाओं में सुधार लाने की पर्याप्त सम्भावना है। नवीन प्रयोगों और नवीन तकनीकों द्वारा सामाजिक धारणाओं का स्वरूप स्पष्ट होता जाता है। इस प्रकार व्यावहारिक अनुसन्धान के माध्यम से धारणाओं की सत्यता की परख की जाती है। यदि अध्ययन के क्रम में समाजशास्त्री उन्हें सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल नहीं पाता तो वह प्रयत्न करता है कि उनकी व्याख्या तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप ही की जाये। अनुसन्धान द्वारा स्पष्टता केक्षअभाव को या तो कम किया जाता है या उसे पूरी तरह से दूर कर दिया जाता है।

(III) अर्द्धसामाजिक अनुसन्धान

(Quasi-Social Research)

विभिन्न सामाजिक विज्ञान अनेक बातों में एक बिन्दु पर मिलते है। वस्तुतः बड़ी संख्या में ऐसी समस्यायें हैं जिन्हें हम हम कह सकते हैं कि वे किसी एक सामाजिक विज्ञान के अन्तर्गत नहीं आतीं। इन सभी समस्याओं पर किया जाने वाला व्यावहारिक अनुसन्धान अर्द्धसामाजिक कहा जा सकता है। सामाजिक-आर्थिक, सामाजिक-मनोवैज्ञानिक, सामाजिक मानवशास्त्रीय और सामाजिक- राजनीतिक आदि अनुसन्धान इसी श्रेणी में आते हैं।

इस प्रकार व्यावहारिक अनुसन्धान और अर्द्धसामाजिक अनुसन्धान के बीच का अन्तर अनुसन्धान के अन्तर्गत आने वाली विषय वस्तु पर निर्भर होता है। वास्तव में, अर्द्धसामाजिक अनुसन्धान व्यावहारिक अनुसन्धान का ही एक रूप है।

विशुद्ध और व्यावहारिक अनुसन्धान में अन्तर

(Difference between Pure and Applied Research)

विशुद्ध और व्यावहारिक अनुसन्धानों में निम्नलिखित तीन प्रमुख अन्तर हैं-

(1) विशुद्ध अनुसन्धान उन मूल सिद्धान्तों (Fundamental Principles) की जाँच- परख या निर्धारण का कार्य करता है जो मानव-समाज की कार्यप्रणाली को निर्देशित करते हैं,  जबकि व्यावहारिक अनुसन्धान तत्कालीन या ज्वलन्त सामाजिक समस्याओं के समाधान ढूंढ़ता है।

(2) विशुद्ध अनुसन्धान का उपयोग-क्षेत्र व्यापक है और व्यावहारिक का तुलनात्मक रूप से कम।

(3) विशुद्ध अनुसन्धान उस आधार का निर्माण करता है जिस पर व्यावहारिक अनुसन्धान का सम्पूर्ण विशाल आकार खड़ा होता है।

संक्षेप में, जोर और सिंगर के शब्दों को उद्धृत करते हुये कहा जा सकता है कि, “विशुद्ध अनुसन्धान फसल बोने के समान है, जबकि प्रयोगात्मक समस्याओं के निरीक्षण (व्यावहारिक अनुसन्धान) की तुलना फसल काटने से की जा सकती है।”

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Pankaja Singh

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