अर्थशास्त्र

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का आर्थिक विकास पर पड़ने वाले प्रभाव | impact of international trade on economic development in Hindi

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का आर्थिक विकास पर पड़ने वाले प्रभाव | impact of international trade on economic development in Hindi

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का आर्थिक विकास पर पड़ने वाले प्रभाव

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार एवं आर्थिक विकास के सम्बन्ध को लेकर अर्थशास्त्री का एक मत नहीं है। प्रतिष्ठित एवं व प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को आर्थिक विकास का इन्जन (Engine of Growth) मानते हैं। प्रतिष्ठित एवं नव प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों का विश्वास है कि किसी देश के विकास में विदेशी व्यापार महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। हैबरलर एवं केयर्नकास जैसे अर्थशास्त्रियों ने भी इसी मत का समर्थन करते हुए विचार व्यक्त किया है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार केवल उत्पादन को कुशलतम बनाने का ही उपाय नहीं वरन् विकास का इन्जन भी है। किसी भी देश के व्यापार की मात्रा व्यापार की शर्ते और अन्तर्राष्ट्रीय भुगतान – ये तीनों मिलकर उसके विकास को प्रभावित करते हैं। प्रतिष्ठित विचारकों का विश्वास था कि इन तीनों का आर्थिक विकास पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है।

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार ने अर्द्धविकसित देशों के आर्थिक विकास में विशेष मदद की है। इस सम्बन्ध में निम्न तर्क दिये गये हैं:

(1) अनुकूलतम उत्पादन व पूँजी निर्माण में वृद्धिः

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के कारण भौगोलिक श्रम-विभाजन या विशिष्टीकरण अपनाया जाता है। एक देश उन्हीं वस्तुओं का उत्पादन करता है जिसमें तुलनात्मक लाभ सर्वाधिक होते हैं। अत: उत्पत्ति के साधनों का अनुकूलतम या कुशलतम आवंटन हो जाता है। परिणामस्वरूप वास्तविक आय में वृद्धि होती है और पूँजी निर्माण में भी वृद्धि हो जाती है।

(2) व्यापार शर्तों का आर्थिक विकास पर अनुकूल प्रभावः

अनुकूल व्यापार शर्तों के कारण औद्योगिक व कृषि प्रधान दोनों ही प्रकार के देशों को लाभ प्राप्त हुए हैं। अर्द्धविकसित देशों से औद्योगिक देशों को आवश्यक कच्चे माल का निर्यात किया गया जिसके कारण औद्योगिक देशों में औद्योगीकरण का विकास हुआ तथा अर्द्धविकसित देशों को उपयोग व पूँजीगत वस्तुयें प्राप्त हुई हैं जिससे इन देशों के आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ है। विकासशील देशों की प्राथमिक वस्तु उत्पादन के लिए विस्तृत व गहन बाजार उपलब्ध हुए हैं। यह बात अलग है कि आजकल कुछ विकसित देश इन वस्तुओं के आयात पर प्रतिबन्ध लगाये हुए हैं।

(3) प्रो. हैबरलर के अनुसार

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से विकासशील देशों को चार लाभ प्राप्त होते हैं:

(i) पूँजी, कच्चा-माल, मशीन उपकरण व अन्य साधनों की प्राप्ति,

(ii) देश में विदेशी पूँजी विनियोग के लाभ,

(iii) तकनीक एवं नवप्रवर्तन के लाभ,

(iv) विदेशी प्रतियोगिता के फलस्वरूप उत्पादन कुशलता में वृद्धि।

अत: स्पष्ट है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार आर्थिक विकास पर अनुकूल प्रभाव डालता है। ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, डेनमार्क, आस्ट्रेलिया आदि विकसित देशों के आर्थिक विकास की जड़ में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार ही है।

(4) निर्यात क्षेत्र आर्थिक विकास में सहायक:

एक विकासशील देश में समस्त उत्पादन क्षेत्रों का एक साथ विकास नहीं होता है बल्कि जो क्षेत्र महत्वपूर्ण होते हैं उनका पहले विकास होता है। ये क्षेत्र अन्य क्षेत्रों में उद्योगों को गतिशील बनाते हैं। इस दृष्टि से निर्यात क्षेत्र की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण है-

(क) घरेलू वस्तुओं का विदेशों में बाजार विस्तृत हो जाता है। अत: बड़े पैमाने के उत्पादन की आन्तरिक व बाह्य बचतें प्राप्त होती हैं।

(ख) निर्यात उद्योगों के विकास के लिए भारी मात्रा में सामाजिक पूँजी-परिवहन, संचार, आदि का विनियोग नहीं करना पड़ता है क्योंकि देश में ही बाजार विस्तार की आवश्यकता नहीं होती है।

(ग) निर्यात व्यापार के कारण प्रभावपूर्ण माँग’ में वृद्धि होती है। परिणामस्वरूप गृह बाजार की वस्तुओं की माँग भी विस्तृत हो जाती है। प्रो. लुईस (Prof. Lewis) के अनुसार घरेलू व निर्यात उद्योगों के मध्य उत्पादन साधनों के लिए प्रतियोगिता होती है। अत: सभी उद्योग नवीन पद्धतियों यंत्र तंत्र का विकास करने को बाध्य होते हैं।

(5) आयातों का देश के आर्थिक विकास पर अनुकूल प्रभाव:

अर्द्धविकसित देशों में औद्योगीकरण के लिए आवश्यक कच्चा माल, मशीनरी, पुर्जे व उच्च तकनीकी विधि का आयात अपरिहार्य है। अत: आयात आर्थिक विकास को प्रभावित करते हैं। आर्थिक विकास को प्रभावित करने वाले आयातों को तीन श्रेणियों में बाँट लिया जाता है

(i) विकास सम्बन्धी आयातः अर्द्धविकसित देशों में आय में वृद्धि करने के लिए उत्पादन क्षमता बढ़ाना आवश्यक है ताकि ये देश अपनी उत्पादन संभावना वक्र (Production Possibility Curve) पर पहुँच सके क्योंकि ये देश इस वक्र के अन्दर ही उत्पादन कर पाते हैं। एक देश का उत्पादन संभावना वक्र है जो x व y वस्तुओं के उत्पादन की संभावनाओं को बताता है। इस वक्र के किसी भी बिन्दु पर स्थित संयोग का उत्पादन किया जा सकता है किन्तु देश अपने समस्त साधनों का पूर्ण उपयोग नहीं कर पाता है। अत: यह अपने उत्पादन संभावना वक्र के भीतर ही माना कि K बिन्दु पर उत्पादन कर रहा है। किन्तु विकास आयातों अर्थात् मशीनरी, उच्च तकनीकी ज्ञान, आयात से देश की उत्पादन क्षमता बढ़ जाती है। फलत: देश अपने उत्पादन संभावना वक्र के K बिन्दु पर उत्पादन करने लगता है और आगे चलकर इस वक्र को ऊपर दायीं ओर करने में भी समर्थ हो सकता है।

(ii) रख-रखाव सम्बन्धी आयात (Maintenance Imports): अर्द्धविकसित देशों में जब उत्पादन क्षमता का विकास होता है तो उसका पूर्ण उपयोग करने के लिए नियमित रूप से कच्चे माल व मध्यवर्ती वस्तुओं के आयात की आवश्यकता होती है। उत्पादन में वृद्धि करने हेतु इन वस्तुओं का आयात नितान्त आवश्यक है।

(iii) स्फीति निरोधक आयात (Anti-inflationary): अर्द्ध-विकसित देशों में विकास की प्रारम्भिक अवस्था में मुद्रा-प्रसार होता है। दीर्घकाल तक मुद्रा-प्रसार के चलने से अर्थव्यवस्था असंतुलित हो जाती है और आर्थिक विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है। अत: मुद्रा-प्रसार को नियंत्रण करने के लिए आवश्यक उपयोग व गैर-उपयोग की वस्तुओं का आयात करना पड़ता है। अन्यथा विकास की गाड़ी पटरी से उतर जायेगी।

(6) भुगतान संतुलन का आर्थिक विकास पर प्रभाव:

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार व आर्थिक विकास के सम्बन्ध को भुगतान संतुलन की स्थिति भली-भांति प्रदर्शित करती है। विकासशील देश प्रारम्भिक अवस्था में निर्यात की अपेक्षा आयात अधिक करते हैं तथा विनियोग बचत से अधिक रखते हैं। बचत विनियोग का अन्तर विदेशी पूँजी की पूर्ति से पाटा जाता है। इसके विपरीत विकसित देशों में बचत विनियोग से अधिक होती है अत: वे अर्द्धविकसित देशों में पूंजी विनियोजन के द्वारा इस अन्तर को पाटते हैं।

प्रारम्भिक अवस्था में जब अर्द्धविकसित देश विदेशी ऋण लेते हैं तो आयात अतिरेक’ (Import Surplus) होता है। जब विकास होने लगता है तो नवीन विदेशी पूँजी आगमन की अपेक्षा मूलधन व ब्याज का अधिक भुगतान होता है। अतः निर्यात-अतिरेक’ (Export Surplus) बनने लगते हैं। इस प्रकार भुगतान संतुलन में साम्य लाने के लिए अर्द्धविकसित देशों में निर्यात बढ़ाये जाते हैं। फलस्वरूप आर्थिक विकास को प्रोत्साहन मिलता है।

(7) विदेशी कलाओं के ज्ञान से विकास को प्रोत्साहनः

प्रो. मिल के अनुसार विदेशी व्यापार के कारण निर्धन देशों को धनी देशों की कलाओं की जानकारी प्राप्त होती है। अत: विदेशी पूँजी के सहयोग से ऊँचे दर से लाभ प्राप्त करने लगते हैं। विदशी कला का ज्ञान निर्धन देशों के व्यक्तियों में नवीन विचार, रीति-रिवाज व अदतों को जागृत करती है। वे अति महत्वाकांक्षी व दूरदर्शी हो जाते हैं जो आर्थिक विकास की आधारशिला है।

(8) श्रम उत्पादकता में वृद्धिः

प्रो. मिण्ट के अनुसार विदेशी व्यापार श्रम विभाजन के लिए विस्तृत क्षेत्र खेलता है। इससे बड़े पैमाने का उत्पादन व यंत्रीकरण के प्रयोग में वृद्धि होती है। परिणामस्वरूप श्रम की उत्पादकता भी बढ़ती है और व्यापार करने वाले सभी देशों को लाभ होता है तथा आर्थिक विकास को गति मिलती है।

कुछ अर्थशास्त्री अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को आर्थिक विकास का इन्जन नहीं मानते एवं इस सिद्धान्त की आलोचना करते हैं। किन्तु अर्थशास्त्रियों का दूसरा वर्ग राउल प्रोविश, गुन्नार मिर्डल, सिंगर जैसे अर्थशास्त्री अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को अर्थिक विकास का अवरोधक मानते हैं। इन अर्थशास्त्रियों का मानना है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का इन देशों के आर्थिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव होता है। फ्रेडरिक लिस्ट ने भी प्रतिष्ठित विचारधारा की कटु आलोचना की है और विकास के विशिष्ट स्तर के बाद ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का समर्थन किया है। इस विचार के अर्थशास्त्रियों का विश्वास है कि प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के निष्कर्षों के आधार पर विकास की समस्याओं का विवेचन नहीं किया जा सकता। उनका तो यहाँ तक कहना है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से धनी और निर्धन राष्ट्रों के बीच असमानता की खाई बढ़ती है। अत: इनका तर्क है कि निर्धन देशों को अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का परित्याग कर देश में औद्योगीकरण को प्रोत्साहित करना चाहिए।

प्रो. मिर्डल ने यह मत व्यक्त किया है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार ने अल्पविकसित देशों के आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने के बजाय उनमें दोहरी अर्थव्यवस्था (Duality) उत्पन्न की है। अल्पविकसित देशों में दोहरी अर्थव्यवस्था उत्पन्न होने के दो प्रमुख कारण हैं – प्रथम इन देशों की संरचना एवं परिस्थिति के कारण इन देशों में विकास की प्रक्रिया का प्रतिधावन प्रभाव (Back wash Effect) उसके प्रसरण प्रभाव (Spread Effect) से अधिक शक्तिशाली होता है जिससे क्षेत्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय असमानतायें बढ़ती है, दूसरे इन देशों में भुगतान सन्तुलन के प्रतिकूल होने की प्रवृत्ति पाई जाती है।

फिर भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के आर्थिक प्रभावों को देखते हुए इसे आर्थिक विकास का इन्जन माना जा सकता है।

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