अर्थशास्त्र

अन्तर्राष्ट्रीय आयात से लाभ के स्रोत | अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लाभों की गणना विधि | विदेशी व्यापार की लाभ की मात्रा को निर्धारित करने वाले तत्व

अन्तर्राष्ट्रीय आयात से लाभ के स्रोत | अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लाभों की गणना विधि | विदेशी व्यापार की लाभ की मात्रा को निर्धारित करने वाले तत्व

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से लाभ के स्रोत-

प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के अनुसार, तुलनात्मक लागत के लाभ पर आधारित विशिष्टीकरण ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लाभ का प्रमुख स्रोत है। इसके अतिरिक्त, दूसरा प्रमुख स्रोत है, बाह्य और आन्तरिक बचतों को प्राप्त करना जो विशिष्टीकरण के फलस्वरूप बड़े पैमाने के उत्पादन से प्राप्त होती है। बाजार के विस्तार का भी इन बचतों पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। एडम स्मिथ इससे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि श्रम-विभाजन, बाजार के विस्तार द्वारा सीमित होता है। बाजार के विस्तार से जल्द उत्पत्ति का पैमाना बढ़ता है तो श्रम-विभाजन एवं विशिष्टीकरण का क्षेत्र विस्तृत हो जाता है जिससे उत्पादन लागत घटती है और वस्तु का मूल्य घट जाता है। यह भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का लाभ है।

रिकार्डो के अनुसार, तुलनात्मक लागत सिद्धान्त यह स्पष्ट करता है कि व्यापार से दोनों देशों को लाभ होता है भले ही उनमें से एक देश दोनों वस्तुओं को सस्ते में बना सकता है।

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लाभों की गणना विधि:

प्रो. जेबक वाइनर के अनुसार प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से लाभों की गणना करने के लिए तीन विधियों का उपयोग किया है जो निम्नलिखित है:

(अ) तुलनात्मक लागत की विधि (Method of Comparative Cost)- इसमें निर्दिष्ट वास्तविक आय को प्राप्त करने के लिए आवश्यक कुल वास्तविक लागत को प्रमुख कसौटी माना जाता है।

(ब) व्यापार की शर्ते (Terms of Trade)- अन्तर्राष्ट्रीय वितरण और लाभ की प्रवृत्ति की सूचक।

(स) देश की वास्तविक आय में वृद्धि (Increase in Real Income)- लाभ का आधार।

अब हम उपर्युक्त बिन्दुओं पर सविस्तार अध्ययन करेंगे।

(अ) तुलनात्मक लागत विधि (Method of Comparative Cost)- तुलनात्मक लागत विधि के अन्तर्गत कुल वास्तविक लागत को कम करने को ही लाभ का आधार माना गया है जिस पर एक निश्चित आय प्राप्त की जा सकती है। इस सम्बन्ध में रिकार्डो का मत है कि विशिष्टीकरण और व्यापार के कारण साधनों के उपभोग में मितव्ययिता की जा सकती है। रिकार्डो के अनुसार विदेशी व्यापार दो प्रकार से लाभों में वृद्धि करता है- (i) वस्तुओं के प्रमाण में वृद्धि होती है और (ii) इसके फलस्वरूप कुल सन्तुष्टि में वृद्धि होती है परन्तु प्रो. वाइनर इसकी आलोचना करते हुए कहते हैं कि प्राप्त सन्तुष्टि को प्रत्यक्ष रूप से नापना सम्भव नहीं है तथा विभिन्न वस्तुओं की मात्रा या उनमें हुई वृद्धि को मापने के लिए निर्देशांकों का उपयोग किया जाता है जिसमें काफी जटिलता पैदा हो सकती है। इन कठिनाइयों के होते हुए भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से समाज को अनेक लाभ होते हैं।

(ब) व्यापार की शर्ते (Terms of Trade)-  इससे हमारा तात्पर्य उस दर से है जिस पर दो देशों में उत्पादित वस्तुओं का विनिमय किया जाता है। जैसा कि हम अध्ययन कर चुके हैं, दो देशों के मध्य विनिमय की दर प्रत्येक देश की दूसरे देश की वस्तुओं के प्रति माँग की पारस्परिक गहनता या तीव्रता पर निर्भर करती है। माँग की इस तीव्रता के आधार पर ही व्यापार की शर्तों में भी परिवर्तन होता रहता है। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से उस देश को अधिक लाभ होता है जिसकी वस्तुओं की माँग अधिक होती है। इसके विपरीत, जिस देश में अन्य देशों में बनी वस्तुओं की माँग अत्यधिक होती है, उसे विदेशी व्यापार से न्यूनतम लाभ होता है।

(स) वास्तविक आय में वृद्धि (Increase in Real Income)- प्रो. टॉजिग के मतानुसार एक देश को अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से लाभ उस समय होता है जब उसकी आय के स्तर में वृद्धि होती है। यदि निर्यात उद्योग उन्नत अवस्था में है तो वह अपने श्रमिकों को अधिक मजदूरी देगा जिसके कारण अन्य उद्योगों में भी मजदूरी की दर में वृद्धि होगी। फलत: ऐसे देश में मौद्रिक मजदूरी के सामान्य स्तर एवं मौद्रिक आय में वृद्धि होगी। चूँकि जिन वस्तुओं का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार किया जाता है, उनकी कीमतों में प्रत्येक क्षेत्र में समानता स्थापित हो जाती है। अत: जिन देशों में मौद्रिक आय ऊँची रहती है, वहाँ के उपभोक्ताओं को व्यापार वस्तुओं से कम आय वाले देशों की तुलना में अधिक लाभ होता है।

विदेशी व्यापार की लाभ की मात्रा को निर्धारित करने वाले तत्व

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में वस्तुओं का विनिमय करने वाले देशों को जो लाभ होता है, उसकी मात्रा को निर्धारित करने वाले प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं:

1.लागत के अनुपातों में अन्तर (Difference in Cost Ratio)- अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से मिलने वाले लाभ की मात्रा दो देशों में लागत अनुपातों में अन्तर पर निर्भर रहती है। उत्पादन की लागतों में जितना अधिक अन्तर रहता है, लाभ की मात्रा भी उतनी अधिक हो जाती है।

  1. देश का आकार (Size of Country)- प्रो. हैरोड ने बताया कि किसी देश का आकार जितना ही छोटा होगा और शेष विश्व का आकार जितना ही बड़ा होगा, अन्तर्राष्ट्रीय व्यपार से इस छोटे देश को उतना ही अधिक लाभ होगा। इससे भिन्न परिस्थितियों में विपरीत बातें होंगी। इस तर्क का आधार यह है कि छोटे देश के पास वस्तुओं के उपभोग की क्षमता कम होने के कारण विदेशी वस्तुओं के लिए उसकी माँग विदेशी वस्तुओं के विश्व-मूल्यों पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकती, जबकि उस देश की निर्यात वस्तुओं के मूल्य उस वस्तु सम्बन्धी विश्व माँग की स्थिति द्वारा निश्चित होगें। इस प्रकार उसकी वस्तुओं के मूल्य तो ऊँचे हो जायेंगे परन्तु वह अन्य देशों की वस्तुओं के मूल्यों को ऊँचा नहीं कर पायेगा। अत: उसे विदेशी वस्तुएँ सस्ती मिलेंगी। संक्षेप में, छोटे राष्ट्र के आयात कम एवं निर्यात अधिक होने से यह राष्ट्र लाभ प्राप्त करेगा।
  2. अन्य कारण (Other Factors)- अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से लाभ की मात्रा को निर्धारित करने वाले कुछ अन्य तत्व इस प्रकार हैं:

(अ) विक्रय संगठन क्षमता- जिस देश का विक्रय संगठन सुव्यवस्थित होता है व वैज्ञानिक आधार पर विक्रय होता है, उस देश को व्यापार से अधिक लाभ प्राप्त होगा। परिवर्तन सुविधाएँ भी व्यापार में लाभ बढ़ाने में सहायक सिद्ध होती है।

(ब) वस्तुओं का महत्व- मिल का विचार है कि यदि कोई देश एक वस्तु का निर्यात करके अपने सभी आयातों की पूर्ति करने में समर्थ हो तो विदेशी व्यापार से उसे सबसे अधिक लाभ प्राप्त हो सकता है।

(स) लागत व्यवहारों की प्रवृत्ति – उत्पादन की किसी निश्चित सीमा के अन्दर माँग और पूर्ति (लागतों) की रेखाओं का जितना अधिक झुकाव होगा, लाभ की मात्रा उतनी ही अधिक होगी।

(द) व्यापार की मात्रा-सामान्यतया विदेशी व्यापार का परिमाण जितना ही अधिक होगा, विदेशी व्यापार से उतना ही अधिक लाभ होगा। इसी कारण प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने व्यापार की मात्रा को बढ़ाने के लिए स्वतन्त्र व्यापार नीति पर विशेष जोर दिया जिससे इंग्लैण्ड को अधिकाधिक लाभ प्राप्त सके।

  1. व्यापार की शर्ते (Terms of Trade)- विदेशी व्यापार से किसी देश को कितना लाभ प्राप्त होगा, इस बात का निर्धारण करने में व्यापार की शर्तों का बहुत प्रभाव पड़ता है। आयात और निर्यात के बीच विनिमय दर को ही व्यापार की शर्ते कहा जाता । व्यापार की शर्तों से हमें यह ज्ञात होता है कि कोई देश निर्यात की गयी वस्तुओं की एक इकाई से आयात में कितनी वस्तुएँ प्राप्त कर सकता है। व्यापार की शर्ते मुख्यतया दो बातों पर निर्भर करती है- (अ) व्यापार की जाने वाली वस्तु की प्रकृति और (ब) एक देश द्वारा दूसरे देश की वस्तुओं के लिए की जाने वाली माँग की लोच। किसी देश में दूसरे देश की वस्तुओं की माँग जितनी बेलोचदार या लोचदार होगी, उसी प्रकार उसकी व्यापार की शर्ते भी प्रतिकूल या अनुकूल होंगी। प्रो. टॉजिग के अनुसार, “उस देश को सबसे अधिक लाभ होता है जिसकी वस्तुओं की माँग विदेशों में अधिक होती है किन्तु विदेशी वस्तुओं के लिए उस देश में कम माँग होती है।”
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Pankaja Singh

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