इतिहास

अकबर की धार्मिक नीति | धार्मिक सहिष्णुता की नीति के कारण | अकबर के धार्मिक विचारों का विकास

अकबर की धार्मिक नीति | धार्मिक सहिष्णुता की नीति के कारण | अकबर के धार्मिक विचारों का विकास

अकबर की धार्मिक नीति

मुगलकालीन इतिहास में अकबर की धार्मिक- नीति का विशेष महत्व है। उसने धार्मिक सहिष्णुता की नीति को अपनाया था। वह सभी मुसलमान शासकों की अपेक्षा अधिक सहिष्णु था। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए डॉ० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने लिखा है, ” 200 वर्ग में भी अधिक (1526-1748) से मुगल काल केवल अकबर के 40 वर्ष के शासन काल (1565-1605 ई०) में हिन्दुओं की पूरी स्वतन्त्रता रही।”

धार्मिक सहिष्णुता की नीति के कारण

यहाँ यह प्रश्न उठता है कि अकबर मुसलमान था तो उसे भी अन्य मुसलमान शासकों की तरह कट्टर मुसलमान होना चाहिये था। धार्मिक नीति में वह सहिष्णु पयों था। उसके निम्नलिखित कारण थे-

(1) पैतृक प्रभाव- अकबर के ऊपर उसके माता पिता का बहुत प्रभाव पड़ा और उसके वंशज धार्मिक कट्टरता और भोली-भाली जनता का रक्तपात करने की प्रवृत्ति से सदैव दूर थे। उसका पिता हुमायूँ और पितामह बाबर दोनों में पर्याप्त धार्मिक सहिष्णुता विद्यमान थी और अकबर को वह गुण उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त हुआ था। अकबर की माता हमीदा बानू बेगम भी अत्यन्त उदार और सहिष्णु थी। कहा जाता है कि वह सूफीमत से प्रभावित थी। श्री एन० सी० मेहता के अनुसार, “बाबर के आगमन से ही मुगल नोति सभी सूत्रों को एक सूत्र में बांधकर राधा विभिन्न मतावलम्बियों को एकता का रसास्वादन कराकर समस्त भारत को एक राष्ट्र के सूत्र में परिणति करने की थी।”

(2) शिक्षकों एवं संरक्षकों का प्रभाव- अकबर पर उसके शिक्षकों और संरक्षकों का पर्याप्त प्रभाव पड़ा था। अकबर के शिक्षक अब्दुला लतीफ और संरक्षक बैरम खाँ थे। यह दोनों शिया धर्मावलम्बी थे और इनमें धार्मिक सहिष्णुता पर्याप्त मात्र में विद्यमान थी। यह सूफी मत से प्रभावित थे।

(3) सूफी सिद्धान्तों का प्रभाव- सूफी सिद्धान्तों के प्रभाव से भी अकबर ने उदार एवं सहिष्णु नीति को अपनाया था। सूफी धार्मिक आडम्बरों में विश्वास नहीं करते थे और चरित्र की पवित्रता पर बल देते थे। अकबर के दरबार में शेख मुबारक और उसके दो पुत्र फैजी और अबुल फजल विद्यमान थे जो सूफी सिद्धान्तों को मानने वाले थे जिनका प्रभाव अकबर पर पड़ा था। अकबर पर सूफी प्रभाव के विषय में एक इतिहासकार ने बड़े स्पष्ट शब्दों में लिखा है, “सूफियों ने उसके मस्तिष्क में उदार और उदात्त विचारों का समावेश कर दिया था और उसे इस्लामिक कट्टरता के मार्ग से अलग करके दैवीय वास्तविकता की खोज करने की भावना का संचार उसमें कर दिया था।”

(4) राजपूतों का प्रभाव- अकबर के राजपूतों से बड़े निकटतम सम्बन्ध थे। राजपूतों की छत्र-छाया में ही उसका जन्म हुआ था। उसका विवाह राजपूत कन्याओं से हुआ था और उसकी सभा एवं सेना में बहुत अधिक मात्रा में राजपूत विद्वान् थे । वैवाहिक सम्बन्धों के कारण धार्मिक दृष्टि से वह और भी अधिक उदार हो गया।

(5) भक्ति आंदोलन का प्रभाव- भारत में चलने वाले भक्ति-आन्दोलन का प्रभाव भी अकबर पर पड़ा। भक्तों ने धार्मिक आडम्बरों से ऊपर रहकर पवित्र धर्म को ग्रहण करना और मानव मात्र में ईश्वर के दर्शन करने का प्रयास किया। अकबर जैसे कुशाग्र बुद्धि वाले व्यक्ति पर उस भक्ति का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।

(6) राजनीतिक महत्वाकांक्षा- अकबर एक महत्वाकांक्षी सम्राट था वह जानता था कि विशाल साम्राज्य की स्थापना करने और सम्पूर्ण भारत पर एकछत्र शासन करने के लिए हिंदुओं का सहयोग आवश्यक है। हिन्दुओं को सन्तुष्ट करने के लिए ही उसने धार्मिक उदारता की नीति अपनाई।

(7) धार्मिक नेता बनने की भावना- अकबर देश का राजनीतिक नेता तो था पर वह धार्मिक नेता भी बनना चाहता था। इस समय धर्म पर मुल्लाओं का विशेष अधिकार था और राजनीति धर्म से प्रभावित रहती थी। यही कारण था कि बहुधा राजा मुल्लाओं के हाथ की कठपुतली बन जाता था । मुल्लाओं के आपसी संघर्ष के स्वरूप अनेक राजनीतिक कठिनाइयां उत्पन्न हो जाती थीं। इन सबके ऊपर अधिकार करने के लिए अकबर स्वयं ही धार्मिक नेता बनना चाहता था।

(8) धार्मिक तथा जिज्ञासु प्रवृत्ति- अकबर धार्मिक विषयों पर बहुत अधिक चिन्ता करता था और किसी निश्चित निष्का पर पहुंचने का प्रयत्न करता था। उसके सम्बन्ध में बदायूंनी ने लिखा है, “वह कभी-कभी सबेरे दुख से भरा हुआ और प्रार्थना करता, एक पुरानी इमारत के एक बड़े पत्थर पर अपने महल के निकट एक शान्तिपूर्ण स्थान पर अपने सीने पर सिर झुकाये और प्रात:कालीन हवा का सेवन करता बैठा रहता था।”

अपनी धार्मिक एवं जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण ही उसने फतेहपुर सीकरी में इबादतखाने की स्थापना करवाई थी।

इन सभी कारणों ने अकबर में परिवर्तन किया था। आरम्भ में वह कट्टर सुन्नी था परंतु विभिन्न प्रभावों के फलस्वरूप उसमें पूर्ण परिवर्तन हो गया था। उसने स्वयं लिखा है, “20 वर्ष की आयु पूरी करने पर में आन्तरिक कटुता का अनुभव करने लगा था और अपनी अन्तिम यात्रा के लिए किसी आध्यात्मिक समाधान के अभाव में अत्यन्त खिन्न हो चला था।”

अकबर के धार्मिक विचारों का विकास

(अ) आरम्भिक विकास- 1556 से 1561 ई० तक बैरम खां राज्य का सर्वेसर्वा था तथा धार्मिक क्षेत्र में अकबर कुछ नहीं कर सकता था। 1561 ई० में बैरम खां के पतन के पश्चात् उसने कट्टर नीति का ही पालन किया। 1562 ई. में धार्मिक सहिष्णुता का सूत्रपात हुआ। 1562 ई० में ही उसने अम्बर के राजा बिहारी मल की पुत्री जोधाबाई से विवाह किया था जिससे उसने यह पाया कि जब हिन्दू तीर्थ-स्थानों पर जाते हैं तो उन्हें कर देना पड़ता है। उसने सोचा कि कर लगाकर भगवान की पूजा में बाधा उत्पन्न करना हितकर नहीं है। अतएव उसने तीर्थयात्रा कर समाप्त कर दिया। 1564 ई० में उसने हिन्दुओं को सन्तुष्ट करने के लिए जजिया कर भी समाप्त कर दिया। इस कर से हिन्दुओं को घोर घृणा थी।

उसने अनेक हिन्दुओं को उच्च पदों पर नियुक्त किया। राजा टोडरमल उसके अर्थमंत्री थे। राजा मानसिंह को उसने 7,000 का मनसब दिया। उसके 12 दीवानों में से आठ गैर-मस्लिम थे।

इस प्रकार हम देखते है कि 1562 ई० से 1575 ई० तक अकबर ने अनेक ऐसे कार्य किए जिससे उसकी धार्मिक सहिष्णुता का परिचय मिलता है। पर ठीक कि इस समय वह अन्य धर्मावलम्बियों के प्रति उदार था, परन्तु साथ ही यह नहीं भूलना चाहिए कि वह सुन्नी मत का अनुयायी था। वह इस्लाम धर्म का प्रार्थनाओं को प्रतिदिन करता था और प्रतिदिन मुस्लिम सन्तों जैसे सलीम चिश्ती की मजार पर जाता था। 1575 ई. में जब वह फैजी और अबुल फजल जैसे विद्वानों के प्रभाव में हुआ था तो उसके धार्मिक विश्वासों में महान परिवर्तन हुआ तब से उसने धार्मिक कट्टरता का पूर्ण परित्याग कर दिया।

(ब) विभिन्न धमों के नेताओं से विचार विमर्श- 1575 ई० में उसने फतेहपुर सीकरी में एक ‘इबादतखाना’ बनवाया उसमें लगभग 500 व्यक्तियों के बैठने का स्थान था। प्रारम्भ में यह ‘इबादतखाना’ केवल सुन्नियों के लिए ही था, परन्तु इस्लाम धर्म के आपसी वाद विवाद से अकबर के हृदय पर बड़ी ठेस लगी। धीरे धीरे उसका इस्लाम से विश्वास कम हो गया था। सर वूल्जे हेग ने लिखा है, “विभिन्न सम्पदायों के आपसी संघर्ष और धार्मिक कट्टरता की असहनीय हिंसा ने अकबर को शनैः शनैः इस्लाम से अलग कर दिया।”

अकबर ने ‘इबादतखाने’ में विभिन्न धर्मानुयायियों का एक सत्संग बुलाया जिसमें इस्लाम एवं हिन्दू धर्म के अनुयायी ही नहीं बुलाये गये थे बल्कि जैन, ईसाई, जोस्टर धर्म के मानने वाले भी बुलाए गये थे। मख्मूद-उल-मुल्क और अबदुन्नबी इस्लाम धर्म का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। परषोत्तम और देवी हिन्दू धर्म के नेता थे। हरि विजय सूरि और विजय सेन सूरि जैन धर्म के मानने वाले थे और दस्तूर मेहरजी जोरेस्टर धर्म के अनुयायी थे। अकबर ने इस सम्मेलन को बड़े सुन्दर शब्दों में सम्बोधित किया। उसने कहा कि मेरा उद्देश्य सत्य को प्राप्त करना है । मैं किसी सच्चे धर्म को मानना चाहता हूँ। आप लोगों को सत्य को नहीं छिपाना है।

यद्यपि अकबर ने अनेक प्रयास किये कि सम्मेलन का वातावरण खराब न हो परन्तु मुल्लाओं ने आपस में ही लड़ना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े गन्दे शब्दों का प्रयोग किया। अकबर को इससे बड़ी ठेस लगी परंतु वह यह जान गया कि विभिन्न धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों में कोई अन्तर नहीं है। केवल उनके बाह्य रूप में ही अन्तर है।

(स) अकबर के धार्मिक विचारों पर प्रभाव- अकबर के धार्मिक विचारों के प्रभाव पर विभिन्न धर्मों के महान् व्यक्तियों का प्रभाव पड़ा है। 1565 ई० में अकबर ने अबदुन्नबी व मख्दूम-उल-मुल्क को अपना धर्मगुरु बनाया था। इस काल में अकबर ने यह जाना कि न तो इस्लाम ही एक मात्र सत्य धर्म है और न विद्वानों की सहायता से यह ज्ञात हो सकता है कि इस्लाम धर्म क्या है? फलतः उसने अन्य धर्मानुयायियों की ओर भी निहारना शुरू किया। वह अनेक ब्राह्मणों के प्रभाव में आया जिनमें परपोत्तम तथा देवी का नाम उल्लेखनीय है। इन ब्राह्मणों के प्रभाव के फलस्वरूप वह हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कारों का आदर करने लगा और आत्मा की अमरता और आवागमन के सिद्धान्त में विश्वास करने लगा। बीरबल के प्रभाव के फलस्वरूप उसने सूर्य पूजा प्रारम्भ की और वह पश्चिम की ओर मुंह करके पूजा करने के बजाय पूर्व की ओर मुंह करके पूजा करना और चिंतन करने लगा। बीरबल के प्रभाव से ही उसने यज्ञोपवीत और तिलक के महत्व को स्वीकार किया। शेख ताजउद्दीन देहलवी का भी उस पर प्रभाव पड़ा। उसने उसे समझाया कि उसे इस्लाम-ए-कामिल समझना चाहिए और उसके सामने सिजदा करना ठीक नहीं है। अतएव सम्राट ने रोजा, नमाज की पाबन्दी का भी परित्याग कर दिया। वह पारसी विद्वानों के प्रभाव में आया। पारसी विद्वान् दस्तूर मेहरजी राना ने उसे समझाया कि उसके दरबार में अग्नि सदैव जलती रहनी चाहिए। इसाइयों के प्रभाव के फलस्वरूप उसमें नैतिकवाद और विनम्रता की भावना आई। जैनाचार्य हरि विजय सूरि, विजय सूरि, तथा भानुभद्र उपाध्याय का प्रभाव भी उस पर पड़ा। इन आचार्यों के प्रभाव के फलस्वरूप ही उसे जीव हत्या से घृणा हो गई।

अपने जीवन के उत्तरकाल में वह अबुल फजल से विशेष रूप से प्रभावित हुआ। अबुल फजल बड़ा ही बुद्धिवादी और समन्वयवादी विद्वान् था। ईश्वर में उसकी असीम आस्था थी। उसके और अकबर के विचारों में बहुत अधिक साम्य था।

(द) धर्माचार्य बनने की कामना- जब अकबर ने यह देखा कि विभिन्न धर्मों के मूलभूत सिद्धान्त एक हैं और अन्दर केवल उनके बाह्य रूप में है तो उसने इंग्लैण्ड के हेनरी अष्टम की भांति स्वयं धर्म का अध्यक्ष बनना चाहा। इस सम्बन्ध में उसने निम्नलिखित कदम उठाये-

(1) खुतबा पढ़ना- 22 जून, 1579 ई० को उसने एक महान् कदम उठाया। उसने जामा मस्जिद के मुख्य इमाम को हटा दिया और स्वयं समस्त राजनीतिक और धार्मिक अधिकार प्राप्त कर लिए। उसने फतेहपुर सीकरी में स्वयं खुतबा पढ़ा। फैजी के अनुसार खुतबा इस प्रकार था, ‘ईश्वर ने मुझे साम्राज्य दिया है और एक बुद्धिमत्तापूर्ण हृदय एवं भुजायें। धर्म तथा न्याय में उसने मेरा पथप्रदर्शन किया है और न्याय को छोड़कर समस्त बातों के मेरे मन से हटा दी हैं। उसकी प्रशंसा करना मेरी बुद्धि से परे है। उसकी शक्ति महान् है।’ अल्लाह अल्लाहो अकबर ।

(2) अधिकार-पत्र- सितम्बर 1579 ई० में अकबर ने एक और महत्वपूर्ण कदम उठाया। उसकी प्रेरणा से शेख मुबारक ने एक पत्र प्रेषित किया जिसके द्वारा सम्राट को सभी राजनीतिक और धार्मिक अधिकार प्राप्त हुए। अब वह मुस्लिम कानून का अन्तिम स्रोत था। इस पत्र पर मख्दुम-उल-मुल्क, शेख अब्दुन्नबी और शेख मुबारक आदि ने अपने हस्ताक्षर कर दिये। डा० स्मिथ ने इसे अधिकार-पत्र के नाम से पुकारा है।

इस अधिकार-पत्र के द्वारा अकबर इमाम-ए-आदिल’ बन गया। राजनीतिक और धार्मिक सभी मामलों में उसका निर्णय अन्तिम समझा जाने लगा। अकबर की धार्मिक नीति में इस अधिकार में पत्र का विशेष महत्व है। उसकी तुलना हेनरी अष्टम के ‘ऐक्ट आफ सुपरमेसी’ से की गई है। लेनपूल ने लिखा है अकबर ने यह पाया कि उसके दरबार के कट्टर मुसलमान उस पर किसी न किसी रूप में धार्मिक पुस्तक का हवाला देकर, परम्परा का हवाला देकर या अन्य प्रकार से अपनी सत्ता साबित करने का प्रयास कर रहे हैं, अतएव इंग्लैण्ड के हेनरी अष्टम की भांति उसने यह निश्चय किया कि वह स्वयं ही धर्म का अध्यक्ष होगा और उसके नीचे कोई भी पोप जैसा मुल्ला मोहम्मद मजादी आदि ने सम्राट के विरुद्ध मुसलमानों को भड़काने का प्रयास किया।

(2) दीनइलाही की स्थापना (1581)- इबादतखाने के वाद-विवाद से अकबर यह समझ गया था कि सभी धर्मों के मूलभूत सिद्धान्त एक ही है। केवल उनके बाह्य रूप में अन्तर है। उसने धार्मिक रूढ़ियों और सत्ता से असन्तुष्ट होकर तर्क को ही धर्म का मूल बनाया। उसने ऐसे धर्म की स्थापना की जिसमें सभी धर्म की अच्छी बातों का समावेश था। उसका उद्देश्य एक ऐसे धर्म की स्थापना था जो हिन्दू और मुसलमान दोनों को ही मान्य हो। अबुल फजल का मत है, अकबर समस्त राष्ट्र का धार्मिक नेता बन चुका था और इसलिए उसके लिए यह आवश्यक था कि वह लोगों की सत्य की प्यास को बुझाने के लिए एक ऐसे धर्म की स्थापना करे जो सभी को मान्य हो । डा० ईश्वरी प्रसाद ने दीनइलाही के विषय में लिखा है, ‘दीनइलाही धर्म में सभी अच्छी बातों का समावेश होना चाहिए। उसमें धर्म, दर्शन और प्रकृति पूजा का समन्वय था। उसमें धर्म की ठेकेदारी का स्थान न था। सम्राट स्वयं ही धर्म का प्रमुख था।

दीनइलाही के सदस्य- यद्यपि दीनइलाही धर्म का प्रचलन अकबर ने ही किया परन्तु उसने किसी को इस धर्म को मानने के लिए बाध्य नहीं किया। इसका परिणाम यह हुआ कि धर्म के अनुयायियों की संख्या बहुत कम थी। अकबर के दरबारियों में ही कुछ इस धर्म के अनुयायी नहीं थे। राजा मानसिंह और राजा भगवान दास इस धर्म के अनुयायी नहीं थे। अबुल फजल का मत है कि धर्म के अनुयायी 18 थे। बीरबल ही एक ऐसा हिन्द था जिसने इस धर्म को अपनाया था। सदस्यों की संख्या कम होने के कारण यह था कि मुसलमानों ने इस धर्म को इस्लाम विरोधी और हिन्दुओं ने इसे इस्लाम का परिवर्तित रूप समझा।

दीनइलाही के सदस्य चार कोटियों में विभाजित थे। पहली कोटि में वे सदस्य आते थे जो धर्म के लिए अपनी सम्पत्ति का परित्याग करने को तत्पर थे, द्वितीय कोटि में वे सदस्य आते थे जो सम्राट के लिए अपनी सम्पत्ति और जीवन का परित्याग करने को तत्पर थे। तृतीय कोटि में वे आते थे जो धर्मानुयायी सम्राट के लिए अपनी सम्पत्ति, जीवन और मान तीनों चीजें देने के लिए तैयार थे और चतुर्थ कोटि में वे सदस्य आते थे जो अपनी सम्पत्ति, जीवन, मान और धर्म सभी कुछ सम्राट के लिए अर्पित कर देने के लिए तत्पर थे।

(1) दीन इलाही के सिद्धान्त- दीनइलाही के निम्नलिखित सिद्धान्त थे-

(1) ईश्वर एक है और अकबर उसका पैगम्बर है। इस प्रकार दीनइलाही में एकेश्वरवाद को स्थान दिया गया था।

(2) इस धर्म के अनुयायी को मांस न खाने तथा सबकी भलाई करने का व्रत लेना होता था।

(3) धर्मानुयायियों को सम्राट के सामने सिजदा (साष्टांग प्रणाम) करना होता था। सूर्य तथा अग्नि की उपासना अनिवार्य थी।

(4) धर्मानुयायियों को एक-दूसरे से मिलने पर ‘अल्लाह हो अकबर तथा ‘जल्ले जलालहु’ कह कर एक-दूसरे का अभिवादन करना होता था।

(5) धर्मानुयायियों के लिए बहेलियों, मछुओं तथा कसाइयों के साथ भोजन करने का निषेध था।

(6) इस धर्म के धर्मानुयायियों के लिये वृद्ध, बांझ तथा कम उम्र की स्त्रियों के साथ सहवास करना वर्जित था।

(7) प्रत्येक अनुयायी को अपनी वर्षगांठ के दिन एक प्रीति-भोज देना होता था। जो भोज्य मृत्यु के बाद दिया जाता था वह व्यक्ति के जीवन-काल में ही दे दिया जाता था।

(8) रविवार का दिन अत्यन्त पवित्र माना जाता था और इसी दिन धार्मिक दीक्षा दी जाती थी।

(9) मृतक-शरीर को दफनाने के भी नियम थे। मृतक के शव के सिर को पूरब की ओर तथा पैरों को पश्चिम की ओर करके दफनाया जाता था।

(10) धर्मानुयायी को सम्राट के प्रति अपनी समस्त सम्पत्ति, जीवन, मान तथा धर्म को बलिदान कर देने के लिए तत्पर रहना होता था।

(2) दीनइलाही धर्म की स्थापना के ध्येय- दीनइलाही धर्म की स्थापना के निम्नलिखित ध्येय थे।

(क) समन्वय स्थापित करना- कुछ विद्वानों का मत है कि अक्बर समन्वयवादी था और दीनइलाही की स्थापना समन्वय स्थापित करने के लिए की गई थी। एकेश्वरवादी मुसलमान उस पर अपने धर्म की प्रतिच्छाया समझते थे और शाकाहारी अहिंसावादी हिन्दू अपने धर्मे की । अग्नि और सूर्य की पवित्रता के फलस्वरूप पारसी उसमें अपने धर्म को छाया देखते थे और रविवार को पवित्र मानने वाले ईसाई अपने धर्म की । इस प्रकार सभी धर्मों का समन्वय दीन में किया गया था।

(ख) धार्मिक सहिष्णुता स्थापित करना- वास्तव में अकबर कोई धर्म- प्रचारक न था और न धर्म का प्रचारक बनना ही चाहता था। उसका उद्देश्य केवल धार्मिक सहिष्णुता उत्पन्न करना था। उसका उद्देश्य धर्म के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाकर प्रजा के हृदय में एक दूसरे के प्रति प्रेम उत्पन्न करना था जिससे उसमें समानता की भावना व्याप्त हो सके।

(ग) राजनीतिक उद्देश्य- इस धर्म को चलाने में अकबर का राजनीतिक उद्देश्य भी था। वह इस धर्म के द्वारा प्रजा में राज्य-भक्ति की भावना उत्पन्न करना चाहता था। साष्टांग प्रणाम की प्रथा द्वारा सम्राट को देवत्व प्रदान करने का प्रयत्न किया गया था। यह कार्य इसलिये किया गया था कि प्रजा सम्राट को ईश्वर का प्रतिनिधि समझे और विद्रोह न करे।

परन्तु इन समस्त उपदेशों में भारतवासियों में एकता स्थापित करना इस धर्म के प्रचार का मूल उद्देश्य था।

(3) दीन-इलाही धर्म का पतन- जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है कि अकबर का दीनइलाही धर्म अधिक प्रचलित नहीं हुआ। अकबर के जीवनकाल तक ही इस धर्म का जीवन रहा और उसकी मृत्यु के पश्चात् इस धर्म का भी अन्त हो गया। इस धर्म की असफलता के निम्नलिखित कारण थे।

(1) अकबर की मृत्यु के पश्चात् इस धर्म का कोई धार्मिक नेता न रहा।

(2) अकबर का यह दृष्टिकोण बिल्कुल गलत था कि जैसे उसने प्रदेशों को जीता है वैसे ही वह लोगों के हृदय को भी जीत लेगा।

(3) कट्टरपंथी मुसलमानों ने इस धर्म का विरोध किया और इस्लाम विरोधी बतलाया।

(4) धर्म के प्रचलन में अकबर का उद्देश्य मूलतः धर्म-प्रचार न होकर राजनीतिक सफलता प्राप्त करना था।

(5) अकबर एक महान् सम्राट था, परन्तु उसमें धर्म-प्रचारक की प्रतिभा न थी। उसके चापलूसों ने उसकी व्यर्थ प्रशंसा की थी।

(6) अकबर ने अपनी उदार-नीति के फलस्वरूप दीनइलाही धर्म को बढ़ाने के लिए प्रतिबन्ध नहीं लगाया। भारत में ही इस्लाम धर्म प्रतिबन्धों के कारण ही पनपा था और प्रतिवन्धों के अभाव में ही दीनइलाही सफल न हो सका।

(7) दीनइलाही धर्म अत्यन्त सूक्ष्म और दार्शनिक था। अतएव वह साधारण जनता की बुद्धि से परे था।

(8) अबुलफजल को असामयिक मृत्यु के फलस्वरूप इस धर्म को बहुत बड़ा धक्का लगा। यदि अबुलफजल कुछ समय और जीवित रहता तो शायद दीनइलाही धर्म पनप सकता था।

(4) दीनइलाही धर्म की आलोचना- कुछ इतिहासकारों ने दीनइलाही धर्म की बड़ी तीखी आलोचना की है। इन आलोचकों में बदायूंनी सर्वप्रमुख है। उसने अकबर को इस्लाम विरोधी बताया है। उसने उसके विषय में लिखा है, “मुसलमानों के साथ अकबर ने बड़े धार्मिक अत्याचार किये और ऐसे नियम लागू किये जिससे मुसलमानों को बड़ा कष्ट हुआ है।”

बदायूंनी ने अकबर पर अनेक आरोप लगाकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि उसमें और उसके धर्म दीनइलाही में अनेक बातें इस्लाम विरोधी हैं, उसके प्रमुख आरोप हैं-

(क) सामूहिक रूप से नमाज पर रोक ।

(ख) नमाज के समय रेशमी वस्त्रों और आभूषणों का प्रयोग अनिवार्य ।

(ग) मुसलमानों का विरोध।

(घ) मुस्लिम त्यौहारों का क्रम तोड़ना।

(ङ) मुस्लिम प्रार्थनाओं को सीमित करना।

(च) दाढ़ी बनवाने की स्वीकृति देना।

(छ) मोहम्मद, अहमद तथा मुस्तफा आदि नामों को बदलवाना।

(ल) मस्जिद तथा इबादतखानों को अस्तबल बनवाना।

(स) मुल्लाओं तथा शेखों को निर्वासित करना।

(ज) गो-हत्या का निषेध।

परन्तु यदि हम किंचित गहनता से विचार करें, तो बदायूंनी के आरोप उचित नहीं प्रतीत होते। सत्य तो यह है कि बदायूंनी कट्टर सुन्नी था और उसके विचार बड़े ही संकीर्ण थे। अतएव उसका कथन निष्पक्ष नही माना जा सकता।

कुछ आधुनिक इतिहासकारों ने भी दीनइलाही धर्म की तीखी आलोचना की है। अकबर जैसे महान् सम्राट के लिये इस प्रकार के विचार प्रकट करना उसके साथ अन्याय करना होगा। इसमें किंचित मात्र भी संदेह नहीं है कि अकबर ने अपने इलाही धर्म के प्रचलन में ऐतिहासिक अनुभवों की ही अवहेलना की थी। जिस भारत भूमि में वैदिक धर्म के सम्मुख बौद्ध, जैन और पारसी धर्म न टिक सके, उसमें एक नये धर्म की स्थापना करना उचित न था। परन्तु इसके साथ ही यह नहीं भूलना चाहिए कि अकबर का मूल उद्देश्य धर्म-प्रवर्तन नहीं बल्कि राजनीतिक एकता स्थापित करना था। धर्म-प्रवर्तन तो राजनीतिक एकता स्थापित करने का एक बहाना मात्र था। अकबर ने यह कार्य उच्च उद्देश्य से प्रेरित होकर किया था। वह यह भी स्वीकार करता है कि वह राजनीतिक एकता की स्थापना से प्रभावित था। एक प्रसिद्ध इतिहासकार ने लिखा है,” पारस्परिक विचार-विमर्श तथा वाद-विवाद से प्रारम्भ होकर एक नवीन धर्म की उद्घोषणा समस्त प्रणाली इस बात की सुनिश्चित प्रमाण है कि सम्राट की वास्तविक इच्छा अपनी प्रजा के लिये एक सामान्य धर्म को प्रारम्भ करने तथा इस प्रकार राजनीतिक एकता की वृद्धि करने की थी।

वास्तव में अकबर का दीनइलाही उसकी अज्ञानता और दुर्बुद्धि का सूचक न होकर उसके ज्ञान और बुद्धि का उज्ज्वल उदाहरण है। दीनइलाही उसकी सार्वजनिक सहिष्णुता और राष्ट्रीयता आदर्शवाद का स्पष्ट प्रमाण है। डा. ताराचंद के शब्दों में अकबर का दीनइलाही एक निरंकुश शासक का क्षणिक उद्वेग नहीं था जिसके पास आवश्यकताओं से अधिक शक्तियां थीं वरन् उन तत्वों का परिणाम था जो भारतभूमि में विकसित हो रहे थे तथा कबीर आदि की शिक्षाओं द्वारा व्यक्त किये जा रहे थे। परिस्थितियों ने उस प्रयत्न को विफल कर दिया परन्तु दैव अब भी उसी लक्ष्य की ओर इंगित करता है।

धार्मिक दृष्टिकोण से दीनइलाही का महत्व चाहे अधिक न हो परन्तु राजनीतिक दृष्टिकोण से उसका बड़ा महत्व है। किसी भी देश की एकता के लिये धार्मिक एकता अत्यन्त आवश्यक है। यदि अकबर ने इस तथ्य को समझ कर नये धर्म का प्रचलन किया तो यह उसकी राजनीतिज्ञता, दूरदर्शिता तथा विचार-व्यापकता का ही परिचायक है।

यह सत्य है कि दीनइलाही सफल न हो सका परन्तु इस धर्म के द्वारा अकबर ने लोगों में राष्ट्रीय जागृति उत्पन्न करने और सहिष्णुता की भावना जामत करने का प्रयास किया जिसे इन्हें स्थायी सुख और शान्ति प्राप्त हो सके। यही कारण है कि उसकी मृत्यु कके पश्चात् भ इस धर्म की भावना लोगों में बनी रही।

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Pankaja Singh

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