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आदिकाल के वीरगाथा साहित्य का परिचय | आदिकाल की प्रमुख रचनाओं का संक्षिप्त परिचय

आदिकाल के वीरगाथा साहित्य का परिचय | आदिकाल की प्रमुख रचनाओं का संक्षिप्त परिचय

आदिकाल के वीरगाथा साहित्य का परिचय

  1. उपलब्ध सामग्री-

सामान्यतया ग्यारहवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी तक के काल को ‘हिंदी साहित्य का आदिकाल’ या ‘आरंभिक काल’ कहा जाता है। शुक्ल जी ने इस काल की अपभ्रंश और देशभाषा काव्य की निम्नलिखित बारह पुस्तकें विवेचन योग्य समझी थी- विजयपाल रासों, हमीर रासो, कीर्तिलता, कीर्तिपताका, खुमान रासो, बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो, जयचंद प्रकाश, जयमयङ्कजसचंद्रिका, परमाल रासो (आल्हा का मूल रूप), खुसरो की पहेलियाँ और विद्यापति की पदावली। “इन्हीं बारह पुस्तकों की दृष्टि से आदिकाल का लक्ष्य- निरूपण और नामकरण हो सकता है, इनमें से अंतिम दो तथा बीसलदेव रासो को छोड़कर सब ग्रंथ वीरगाथात्मक हैं। अतः आदिकाल का नाम वीरगाथा काल ही रखा जा सकता है।”

  1. ग्रंथों की अप्रामाणिकता-

इसके अतिरिक्त अपभ्रंश की कुछ पुस्तकें ऐसी हैं, जिन्हें साहित्यिक इतिहास में विवेचन योग्य माना जा सकता है: ‘संदेश-रासक’ ऐसी ही सुंदर रचना है। मित्र-बंधुओं ने ‘संदेश-रासक’ जैसे कुछ अन्य ग्रंथों को भी इस काल के अंतर्गत माना है। परंतु शुक्ल जी उनमें से बहुत-सी पुस्तकों को विवेचन योग्य नहीं मानते, क्योंकि उनकी दृष्टि से उनमें से कुछ पीछे की रचनाएँ कुछ नोटिस मात्र हैं तथा कुछ जैन-धर्म उपदेशों से संबंध रखती हैं। परंतु नवीनतम शोधों से ज्ञात हुआ है कि शुक्ल जी का वर्णित उपर्युक्त बारह पुस्तकों में से पीछे की रचनाएँ हैं, कई के मूल रूप में ही निश्चय नहीं है, कई नोटिस मात्र है। अतः इन्हें भी आदि काल के विवेचन का आधार नहीं माना जा सकता और अपभ्रंश की रचनाओं को तो हिंदी साहित्य का अंश माना ही नहीं जा सकता।

  1. धार्मिक काव्य की समस्या-

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत है कि जैन धर्म भावना से प्रेरित कई रचनाएँ इतनी सरल हैं कि वे ‘हमीर रासो’ और विजयपाल रासो के समान हिंदी साहित्य के लिए स्वीकार हो सकती है। धार्मिक प्रेरणा या आध्यात्मिक उपदेश यदि उनमें सरलता है, तो काव्यत्व के लिए बाधक नहीं समझी जानी चाहिए, इसलिए स्वयंभू, चतुर्मुख, पुष्पदंत और धनपाल जैसे अपभ्रंश के जैन कविया में की कृतियों की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। यदि धार्मिक दृष्टिकोण को हम काव्य के लिए बाधक मान लें तो हमें अपनी भक्ति-साहित्य से भी हाथ धोना पड़ेगा। परंतु साथ ही, हमें यह भी देखना चाहिए कि आलोच्य ग्रंथों में साम्प्रदायिक या धार्मिक दृष्टिकोण की प्रधानता है या साहित्यिक दृष्टिकोण का निरूपण। शुद्ध धार्मिक ग्रंथों को साहित्य में स्थान नहीं दिया जा सकता। परंतु काव्य सौंदर्य से युक्त धार्मिक ग्रंथ साहित्य के ही अंग माने जायेंगे। परंतु असली समस्या तो यह है कि अपभ्रंश की रचनाओं को हिंदी के अंतर्गत कैसे स्वीकार कर लिया जाय? उपर्युक्त सभी कवियों की रचनाएँ अपभ्रंश की ही रचनाएँ हैं।

  1. प्रामाणिकता की छानबीन-

अब शुक्ल जी द्वारा उल्लिखित और स्वीकृत बारह रचनाओं की प्रामाणिकता की विवेचना कर ली जाय, क्योंकि इनमें से अनेक अप्रमाणिक सिद्ध हो चुकी हैं। दलपति विजय के ‘खुमान रासो’ में प्रतापसिंह तक का वर्णन देखकर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अनुमान कर लिया था कि इसका वर्तमान रूप “विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी में प्राप्त हुआ होगा।” यद्यपि उसकी मूल रचना आरंभिक युग में हुई थी। बाद में उसमें परिवर्द्धन होता रहा। इधर अमरचंद नाहटा ने दलपति को परवर्ती कवि सिद्ध कर दिया है। मोतीलाल मेनारिया का मत है- “हिंदी के विद्वानों ने इसका (दलपति का) मेवाड़ के रावल खुम्माण का समकालीन होना अनुमानित किया है, जो गलत है। वास्तव में इसका रचना काल संवत् 1730 और 1760 के मध्य है।” इस प्रकार ‘खुमान रासो’ अठारहवीं शताब्दी का ग्रंथ प्रमाणित होता है। नरपति नाल्ह के ‘बीसलदेव रासो’ के विषय में भी संदेह प्रकट किया गया है। मेनारिया जी ने नाल्ह को सोलहवीं शताब्दी का नरपति नामक कवि माना है। शुक्ल जी को कई पद मिले और उन्होंने उन्हें ‘हमीर रासो’ के पद मान लिया। क्यों और कैसे माना, इसका कोई कारण उन्होंने नहीं बताया। परंतु राहुल जी ने उन्हीं पदों को ‘जंज्ल’ कवि लिखित माना है। पदों में स्पष्ट रूप से ‘जज्जल भणई’ अर्थात् ‘जज्जवल कहता है की भणिति है। द्विवेदी जी इस ग्रंथ को नोटिस मात्र मानते हैं।

  1. धार्मिक साहित्य की बहुलता-

आरंभिक काल के राज्याश्रित कवियों ने अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा करते समय उसमें धार्मिक पुट अवश्य दिया है। चंदबरदायी ने इसी कारण अपने ग्रंथ में दशावतार चरित्र का वर्णन किया है। कीर्तिलता के कवि विद्यापति ने भी इसका मोह नहीं छोड़ा है। उस युग में धार्मिक समझे जाने वाले साहित्य का संरक्षण अधिक सावधानी से किया जाता रहा था, इसलिए धर्मग्रंथों की संख्या अधिक मिलती है। प्रायः इन धर्म-ग्रंथों के आवरण में सुंदर कवित्व का विकास हुआ। तत्कालीन काव्यरूपों और काव्य-विषयों के अध्ययन के लिए इनकी उपयोगिता असंदिग्ध है। राहुल जी ने स्वयंभू कवि की रामायण की हिंदी को सबसे पुराना और उत्तम काव्य माना है। क्योंकि राहुल जी अपभ्रंश और पुरानी हिंदी में अंतर नहीं मानते थे। अतः आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, आरंभिक काल की सामग्री में इन इन पुस्तकों की गणना अवश्य होनी चाहिए है।

  1. वीरगाथा काल शीर्षक का औचित्य-

भट्ट केदार और मधुकर भट्ट कृत जयचंद प्रकाश और जयमयंक जशचंद्रिका’ नामक ग्रंथ भी उपलब्ध नहीं हैं। केवल उनका उल्लेख विधायच दयालदास कृत- ‘राठोडॉरी ख्यात’ में मिलता है। अतः यह दोनों भी नोटिस मात्र हैं। जगनिक का ‘आल्हखंड’ का मूल रूप भी अप्राप्त है। चंद्र का ‘पृथ्वीराज रासो’ भी अपने मूल और मौलिक रूप में प्राप्त नहीं हो रहा है। इससे प्रमाणित होता है कि जिन ग्रंथों के आधार पर शुक्ल जी ने इस काल का नाम वीरगाथा रखा था,उनमें से कुछ नोटिस मात्र हैं तथा कुछ या तो पीछे की रचनाएँ हैं या प्राचीन रचनाओं के परिवर्धित और विकृत रूप मात्र हैं। मेनारिया जी का मत है- “ये रासो ग्रंथ जिनको वीरगाथाएँ नाम दिया गया है और जिनके आधार पर वीरगाथा काल की कल्पना की गयी है, राजस्थान के किसी समय-विशेष की साहित्यिक प्रवृत्ति को भी सूचित नहीं करते, केवल चारण, भाट आदि कुछ वर्ग के लोगों की जन्मजात मनोवृत्ति को प्रकट करते हैं। “प्रभु-भक्ति का भाव इन जातियों के खून में है और ये ग्रंथ उस भावनाको अभिव्यक्त करते हैं। “मेनारिया जी के इस कथन को अतिशयोक्तिपूर्ण ही माना जा सकता है।

  1. ग्रंथों का संरक्षण कैसे हुआ-

हमारे आलोच्यकाल की पुस्तकें तीन प्रकार से सुरक्षित थीं- (1) राज्यश्रय पाकर और राजकीय पुस्तकालयों में सुरक्षित रह कर (2) सुसंगठित धर्म संप्रदाय का आश्रय पाकर और मठों, बिहारों आदि के पुस्तकालयों में शरण पाकर (3) जनता का प्रेम और प्रोत्साहन पाकर। अपभ्रंश तथा देशी भाषा की कुछ दूसरी जैन पुस्तकें सांप्रदायिक भंडारों में सुरक्षित हैं। कुछ पुस्तकें बौद्ध धर्म का आश्रय पाकर सुरक्षित रह गयी हैं। इसके अतिरिक्त योगियों के साहित्य का परिचय दो प्रकार से प्राप्त होता है-

(1) सूफी कवियों की कथा में नाना प्रकारकी सिद्धियों के वर्णन के रूप में, (2) सगुण या निर्गुण भक्त-कवियों की पुस्तकों में खंडनों और प्रत्याख्यानों के विषय के रूप में। इसी कारण आरंभिक कालीन हिंदी साहित्य विशेष सुरक्षित दशा में उपलब्ध नहीं है। “जिन पुस्तकों के आधार पर इस काल की भाषा प्रवृत्ति का कुछ आभास पाया जा सकता है, उनकी संख्या बहुत थोड़ी है। कुछ पुस्तकों की भाषा इतनी परिवर्तित हुई कि उनके विषय में कुछ भी विचार अनुचित मालूम पड़ता है।”

  1. चार प्रकार की भाषायें और उनकी रचनायें :

अपभ्रंश- भाषा की दृष्टि से आदि काल में चार भाषाओं की रचनायें मिलती हैं- अपभ्रंश, डिंगल, मैथिली और खड़ी बोली। अपभ्रंश का सबसे प्राचीन रूप तांत्रिक और ज्ञानमार्गी बौद्ध तथा जैनाचार्यों की रचनाओं में प्राप्त होता है। जैन आचार्य मेरूतुङ्ग, सोमप्रभु सूरि आदि के कुछ ग्रंथ ऐसे मिलते हैं जो बौद्ध ग्रंथों से उच्चकोटि के हैं। नाथ-पंथियों ने भी अपने मत के प्रचार के लिए राजस्थान तथा पंजाब की प्रचलित भाषाओं में अनेक ग्रंथ लिखे थे। इसकी भाषा अपभ्रंश, राजस्थानी तथा खड़ी बोली का मिश्रण है। विद्यापति ने भी अप्रभंश में दो छोटे-छोटे ग्रंथो- ‘कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका’ का निर्माण किया था। यह अपभ्रंश उस समय के कवियों की भाषा थी। उन कवियों ने काव्य-परंपरा के अनुसार साहित्यिक प्राकृत के पुराने शब्द तो ले ही लिए हैं, साथ ही विभक्तियाँ, कारक चिंह और क्रियाओं के रूप भी कई सौ वर्ष पुराने रखे हैं। सिद्धों की कृतियों में देश भषा मिश्रित अपभ्रंश का रूप मिलता है उसमें कुछ अरबी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। पुरानी हिंदी की व्यापक काव्य भाषा का ढाँचा-अपभ्रंश, ब्रज और खड़ी बोली के मिश्रित रूप वाला था। हिंदी जन-सामान्य की बोलचाल की भाषा थी जो धीरे-धीरे साहित्यमें प्रयुक्त होने लगी थी। भाषा की दृष्टि से जैन साहित्य में नागर अपभ्रंश का प्रभाव अधिक मिलता है। इसमें चरित्र रासक, चतुष्पदी, दोहा। आदि छंदों का प्रयोग अधिक हुआ है।

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Pankaja Singh

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