आधुनिक भारत के निर्माण में स्वामी दयानन्द सरस्वती का योगदान | समाज एवं धर्म के क्षेत्र में दयानन्द सरस्वती का योगदान
आधुनिक भारत के निर्माण में स्वामी दयानन्द सरस्वती का योगदान
आर्य समाज के संस्थापक-
स्वामी दयानन्द सरस्वती आर्य समाज के संस्थापक थे। डा० सत्यकेतु विद्यालंकार ने लिखा है कि “प्राचीन हिन्दू धर्म में नवजीवन का संचार करने और हिन्दू जाति की सामाजिक दशा में सुधार करने के लिए उन्नीसवीं सदी में जिन विविध आन्दोलनों का सूत्रपात हुआ, उनमें आर्य समाज का स्थान सबसे अधिक महत्त्व का है। जो कार्य बंगाल में राजा राममोहन राय (सन् 1772-1833) ने किया, वही उत्तरी भारत में स्वामी दयानन्द (सन् 1824-1883) ने किया।“ आर्य समाज ने नवीन भारत के निर्माण में जो योग दिया है, उसे स्वामी दयानन्द सरस्वती का योगदान मानना ही उचित होगा।
स्वामी दयानन्द का क्रान्तिकारी व्यक्तित्व-
स्वामी दयानन्द को साधारणतया एक धर्म सुधारक तथा समाज सुधारक माना जाता है। इस दोनों क्षेत्रों में उनके विचार निःसन्देह क्रान्तिकारी और पुरानी चली आ रही परम्पराओं के विरोधी थे। घोर मूर्ति-पूजक परिवार में जन्म लेकर उन्होंने मूर्ति-पूजा का खंडन किया। जात-पांत और छुआछूत का उन्होंने विरोध किया। जिन लोगों को बल या लोभ द्वारा मुसलमान या ईसाई बना लिया गया था, उन्हें शुद्धकरके फिर हिंदू बनाने का उन्होंने नया मार्ग खोला। उन्होंने स्त्रियों और पुरुष, दोनों की शिक्षा पर जोर दिया। उन्होंने शूद्रों को वेदाध्ययन का अधिकारी माना। इतना ही नहीं, उन्होंने वर्ण- व्यवस्था को जन्म पर आधारित न मान कर गुण और कर्म पर आधारित माना। उन दिनों के रूढ़िवादी हिन्दू समाज में यह एक बड़ी क्रान्तिकारी बात थी। दयानन्द जी ने विधवा-विवाह का समर्थन किया। परन्तु इसमें सबसे बड़ी बात यह है कि स्वामी दयानन्द का कार्यक्षेत्र केवल धर्म और समाज सुधार तक ही सीमित नहीं था, अपितु राजनीति में भी उनका सक्रिय दखल था। अपने ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में उन्होंने छठे समुल्लास में राजधर्म का विस्तार से वर्णन किया है। इससे स्पष्ट है कि राजनीति में उनकी विशेष रुचि थी। उनका कहना था कि “अच्छे से अच्छा विदेशी राज्य भी बुरे से बुरे स्वदेशी राज्य से बुरा है।” इस पृष्ठभूमि में हम स्वामी दयानन्द की उपलब्धियों पर विचार कर सकते हैं।
स्वामी दयानन्द के समय का भारत-
जिस समय स्वामी दयानन्द ने भारतीय रंग-मंच पर पदार्पण किया, इस समय देश की राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक दशा अत्यन्त शोचनीय थी। राजनीतिक दृष्टि से देश अंग्रेजों के अधीन था, जो उसे दासता की बेड़ियों में जकड़कर उसका सब प्रकार से शोषण कर रहे थे। न केवल देश का धन विदेश में जा रहा था, अपितु अंग्रेजों का सांस्कृतिक प्रभुत्व भी इस देश पर जमता जा रहा था। अंग्रेजों की नौकरी पाने के लिए युवक अंग्रेजी पढ़ते, ईसाई बनते और हर भारतीय वस्तु (धर्म, संस्कृति और इतिहास) को क्षुद्र तथा हेय समझने लगते थे। हिन्दू समाज जड़ हो गया था। अन्धविश्वासों, कुरीतियों, जात- पात, निरर्थक कर्मकाण्ड आदि ने उसकी जीवनी शक्ति को सीख लिया था। निम्न वर्ग के लोग बड़ी संख्या में इस्लाम तथा ईसाइयत की ओर आकृष्ट हो रहे थे-किसी धार्मिक आस्था के कारण नहीं, अपितु लौकिक उन्नति तथा सामाजिक प्रतिष्ठा के कारण। जिस दलित हिन्दू को सवर्ण हिन्दू अछूत समझते थे, वह मुसलमान या ईसाई बनते ही उनका समकक्ष बन जाता था। यह बहुत बड़ा प्रलोभन था। फिर एक बार विधर्मी बनते ही स्वर्ग में वापस लौटने का मार्ग सदा के लिए बन्द हो जाता था। इस कथन में अतिशयोक्ति नहीं है कि “यदि स्वामी दयानन्द न हुए होते, हिन्दुओं की संख्या अंगुलियों पर गिनने लायक ही रह जाती।”
एक ओर तो हिन्दू धर्म इस्लाम और ईसाइयत के प्रबल प्रहारों से जर्जर हो रहा था, दूसरी और उसकी अपनी कुरीतियाँ उसे मृत्यु की ओर घसीट रही थीं। शिक्षा का नितान्त अभाव था। पुरुष ही अनपढ़ थे, फिर स्त्रियों की तो बात ही क्या? बाल-विवाह खूब होते थे। विधवा विवाह निषिद्ध थे। इससे समाज में एक अस्वस्थ दशा उत्पन्न हो गई थी। अन्धविश्वास खूब थे। जात-पांत और अस्पृश्यता ने समाज को बुरी तरह खंडित कर दिया था। सब की ओर से कोई संगठित प्रयत्न सम्भव नहीं था। स्वामी दयानन्द ने इन सब बुराइयों के विरुद्ध एक ऐसे मंच पर आवाज उठाई, जो इस देश में सबसे प्रभावशाली था-धार्मिक मंच।
अंग्रेजी से अनभिज्ञ-
राजा राममोहन राय पाश्चात्य शिक्षा तथा सभ्यता से इतने अधिक प्रभावित हो गये थे कि उनका विचार बन गया था कि इस देश का उद्धार केवल अंग्रेजी शिक्षा द्वारा और अंग्रेजी रीति-नीति के अनुकरण द्वारा ही हो सकता है। अब भी सामान्यतः यही समझा जाता है कि अपनी दुर्दशा से भारत का उद्धार अंग्रेजी शिक्षा और विचारों के परिणामस्वरूप ही हुआ है। परन्तु स्वामी दयानन्द अंग्रेजी तो जानते ही नहीं थे; वह अंग्रेजी शिक्षा को देश के लिए आवश्यक भी नहीं मानते थे। उनकी सुधारवादी विचारधारा का मूल स्रोत था वेद और प्राचीन भारतीय संस्कृति । उनका संदेश था; “वेदों की ओर लौटो।” अंग्रेजी भाषा तथा पाश्चात्य विचारधारा से अनुभिज्ञ होते हुए स्वामी दयानन्द ने इतने प्रगतिशील विचार प्रस्तुत किये, यह आश्चर्य की ही बात है। आधुनिक भारत को स्वामी दयानन्द की देन निम्नलिखित हैं:
(1) अन्धविश्वासों का खंडन-स्वामी दयानन्द के समय अनगिनत अन्धविश्वास हिन्दू समाज में प्रचलित थे। मूर्ति-पूजा भी उनमें से एक थी। अन्ध श्रद्धालु मूर्ति को भगवान का प्रतीक नहीं, स्वयं भगवान ही मानते थे। स्वामी दयानन्द ने अन्धविश्वासों का विरोध किया। उन्होंने कहा कि प्रत्येक बात को बुद्धि और तक की कसौटी पर कसने के बाद ही सही मानना चाहिए। स्वामी दयानन्द और आर्य समाज की देश को एक प्रमुख देन अन्ध श्रद्धा का विरोध और तर्क-बुद्धि का विकास है।
(2) समाज का स्वस्थ संगठन अर्थात् अछूतोद्वार– स्वामी दयानन्द ने हिन्दू समाज की व्याधि को पहचाना और उसका सही इलाज किया। एक ओर तो उन्होंने शुद्धि का विधान करके अहिन्दुओं के हिन्दू बनने का मार्ग खोल दिया। उन्होंने हिन्दू धर्म को इतना उदार बनाया कि वह अन्य धर्मावलम्बियों को भी अपने अन्दर ग्रहण कर सके। दूसरी ओर उन्होंने अस्पृश्यता और छुआछूत के विरुद्ध जबरदस्त आन्दोलन शुरू किया। महात्मा गाँधी में बहुत पहले ही आर्य समाज अछूतोद्धार का कार्य कर रहा था। शुद्धि और दलितोद्धार के फलस्वरूप हिन्दुओं को जनसंख्या का घटना रुक गया। डा हरिदत्त वेदालंकार ने लिखा है कि “आर्य समाज का सबसे महत्वपूर्ण कार्य शुद्धि था।”
(3) एकेश्वरवाद- हिन्दू धर्म के लिए एकेश्वरवाद कोई नई वस्तु नहीं थी। ऋग्वेद तक में लिखा है : “एकं सद् विप्राः बहुधा वदन्ति” अर्थात् वह ईश्वर एक ही है; उसी के विद्वानों ने अनेक नाम रख लिए हैं। फिर शंकराचार्य का अद्वैतवाद तो एकेश्वरवाद ही था। परन्तु स्वामी दयानन्द से पहले सनातन धर्म. एकेश्वरवाद को भूल कर विविध देवी-देवताओं की उपासना में लगा था। इस्लाम और ईसाइयत, दोनों ही एक ईश्वर को मानते थे। स्वामी दयानन्द ने प्राचीन वैदिक एकेश्वरवाद को पुनः जीवित किया। इससे हिन्दू समाज को एक दृढ मेरुदंड मिल गया। आज जो देश में एक ईश्वर की संकल्पना इतनी प्रचलित है, उसमें आर्य समाज का भी काफी हाथ रहा है।
(4) स्त्री-शिक्षा- मध्य काल में कोई स्मृतिकार लिख गयेः “स्त्री शूद्रौ नाधीयाताम्”, अर्थात् स्त्रियाँ और शूद्र अध्ययन न करें। इसका परिणाम यह हुआ कि स्त्रियों का पढ़ना- पढ़ाना बन्द हो गया। स्त्रियाँ समाज का लगभग आधा भाग होती हैं। जिस समाज का आधा भाग अशिक्षित हो, उसका क्या हाल होगा? जहाँ माताएं अशिक्षित हो, वहाँ सन्तानों से क्या आशा की जा सकती है? स्वामी दयानन्द ने स्मृतियों को अप्रमाणिक और वेदों को प्रामाणिक मान कर यह व्यवस्था दी कि क्या पुरुष, क्या स्त्री, क्या ब्राह्मण, क्या शूद्र, सबको उचित शिक्षा दी जानी चाहिए। आर्य समाज ने शिक्षा के क्षेत्र में विशेष रूप से स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया।
(5) बाल-विवाह आदि कुरीतियों का विरोध- स्वामी दयानन्द ब्रह्मचर्य के प्रबल समर्थक थे। वह बाल-विवाह को देश की दुर्दशा का प्रधान कारण मानते थे। उन्होंने जिस आश्रम-व्यवस्था का आग्रह किया, उसमें प्रत्येक युवक को कम से कम 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्यपूर्वक जीवन बिताने के बाद ही विवाह करना होता था। उन्होंने कहा कि लड़कों और लड़कियों की शिक्षा के लिए अलग शिक्षा संस्थाएँ होनी चाहिए, और विवाह से पहले दोनों को ही ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। आर्य समाज ने बाल-विवाह के विरुद्ध प्रबल आन्दोलन किया।
(6) दयानन्द का समाजवाद-समाजवाद शब्द का चलन अपेक्षाकृत नया है। परन्तु स्वामी दयानन्द ने जो व्यवस्था की है, उसमें समाजवाद की भावना पूरी तरह विधमान है। उन्होंने लिखा है कि यह जाति-नियम और राजनियम होना चाहिए कि सात वर्ष की आयु होने पर सब बच्चों को शिक्षणालयों में भेज दिया जाये, जिससे सबको योग्यता प्राप्त करने का समान अवसर प्राप्त हो सके। शिक्षणालयों में सब विद्यार्थियों का (धनी और निर्धन सबका) भोजन, वेश तथा अन्य सब रहन-सहन ठीक एक जैसा होना चाहिए और शिक्षा समाप्त होने पर सब को उनकी योग्यता के अनुसार कर्य दिया जाना चाहिए। इससे अधिक और किस समाजवाद की कल्पना हम आज कर सकते हैं? स्वामी दयानन्द की इस धारणा को कार्यान्वित करने के लिए स्वामी श्रद्धानन्द ने इसी पद्धति पर गुरुकुल कागड़ी को स्थापना की थी, जहाँ सभी छात्र अपनी जात-पात, तथा आर्थिक स्थिति से अनभिज्ञ रह कर ठीक एक- सा जीवन बिताते हुए शिक्षा प्राप्त करते थे।
(7) अपनी प्राचीन संस्कृति से अनुराग- यदि कहीं राजा राममोहन राय की मन- चाही हो गई होती, तो भारत पूरी तरह पाश्चात्य संस्कृति में डूब गया होता। परन्तु स्वामी दयानन्द ने बताथा कि हमारी प्राचीन संस्कृति संसार की किसी भी संस्कृति से घट कर नहीं है। हम बहुत समय तक संसार के गुरु रह चुके हैं। हमें पाश्चात्य सभ्यता से इस प्रकार अभिभूत हो जाना शोभा नहीं देता। स्वामी दयानन्द के इस आत्मविश्वासपूर्ण स्वाभिमान से देशवासियों में अपने प्राचीन इतिहास और गौरव के प्रति अनुराग जागा। मैकाले की पाठ्य-पुस्तकों को पढ़ कर भारत के अतीत को तुच्छ समझने वाले लोगों की आँखें खुली। राष्ट्रीय आत्म-सम्मान की भावना को बढ़ाने में स्वामी दयानन्द का प्रमुख हाथ रहा।
(8) राष्ट्र भाषा हिन्दी का प्रचार- स्वामी दयानन्द स्वयं गुजराती थे और उनकी मातृभाषा गुजराती थी। फिर भी उन्होंने अपने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ आदि ग्रन्थ हिन्दी भाषा में लिखे, क्योंकि उनका विचार था कि हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है, जो इस देश के विभिन्न भागों में अन्य किसी भी भाषा की अपेक्षा अधिक समझी जाती है। इस प्रकार हिन्दी सारे देश में आर्यसमाजियों की धार्मिक भाषा बन गई। इस तथ्य ने हिन्दी को राष्ट्र भाषा के पद पर आसीन कराने में सहायता की। स्वामी दयानन्द हिन्दी भाषा के निर्माताओं में से थे।
(9) स्वराज्य की भावना- डा० हरिदत्त वेदालंकार ने लिखा है कि aadhunik bhaarat ke nirmaan mein svaamee dayaanand sarasvatee ka yogadaan” में स्वराज्य मन्त्र का उच्चारण करने वाले पहले भारतीय ऋषि दयानन्द थे।” उन्होंने देश में स्वराज्य की भावना जगाई।
स्वामी दयानन्द द्वारा स्थापित आर्य समाज इस देश की समाज सुधारक संस्थाओं में अग्रणी रहा। ब्राह्य समाज का प्रचार तो थोड़े क्षेत्र में ही हुआ था, परन्तु आर्यसमाज का प्रचार सारे भारत में व्यापक रूप से हुआ। आर्य समाज ने हिन्दुओं में नया आत्मविश्वास जगाया; कुरीतियों पर कुठाराघात किया; शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की; इस्लाम और ईसाइयत का डट कर मुकाबला किया और देश में राजनीतिक जागृति भी उत्पन्न की।
श्री अरविन्द ने स्वामी जी के विषय में लिखा है कि “वह परमात्मा की इस अद्भुत सृष्टि के एक अद्वितीय योद्धा और मनुष्य तथा मानवीय संस्थाओं का संस्कार करने वाले एक विचित्र शिल्पी थे।” श्री बी० एन० लूनिया के शब्दों में, “वह प्राचीन और अर्वाचीन के बीच के हमारे युग-सेतु के एक महत्वपूर्ण आधार-स्तम्भ हैं एवं राममोहन राय जौर गाँधी के बीच की युग-संधि के सबसे महान् राष्ट्र निर्माता व संस्कृति तथा धर्म के प्रधान आचार्य हैं।” रूसी विद्वान् ब्लावत्स्की का विचार है कि “स्वामी दयानन्द से बढ़ कर भारत में संस्कृत का विद्वान्, तत्ववेत्ता, वक्ता और कुरीतियों का विरोधी शंकराचार्य के बाद कोई नहीं हुआ।”
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