उद्यमिता और लघु व्यवसाय

आधारभूत संसाधनों से सम्बद्ध समस्याएं | आधारभूत संसाधनों से सम्बन्धित तकनीकी उपाय | Problems Relating to the Infrastructural Resources in Hindi | Technical Measured Relating to the Infrastructural Resource in Hindi

आधारभूत संसाधनों से सम्बद्ध समस्याएं | आधारभूत संसाधनों से सम्बन्धित तकनीकी उपाय | Problems Relating to the Infrastructural Resources in Hindi | Technical Measured Relating to the Infrastructural Resource in Hindi

आधारभूत संसाधनों से सम्बद्ध समस्याएं

(Problems Relating to the Infrastructural Resources)

संरचनात्मक व आधारभूत संसाधनों की प्राप्ति व उपादेयता से सम्बद्ध विभिन्न प्रकार की समस्याओं का उल्लेख किया जाना आवश्यक है जो प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप में इन संसाधनों के विविध पहलुओं के लिए बाधक घटकों व समस्याओं को उत्पन्न करती है। इनसे सम्बन्धित कुछ समस्याएं इस प्रकार हैं-

(i) आधारभूत संसाधनों के बारे में सामान्य उद्यमियों को पूर्ण जानकारी नहीं होती है। विशेषतः इनकी मांग व पूर्ति, बाजार का रुख व एकाधिकारी प्रवृत्तियों आदि के बारे में विशेष जानकारी का अभाव पाया जाता है।

(ii) हमारे उद्यमियों में उद्यमशीलता, उद्यमीय प्रवृत्तियों व क्षमताओं का अभाव पाये जाने के कारण उनकी आधारभूत संसाधनों के प्रति रुचि व प्राथमिकता का उत्पन्न होना असम्भव हो जाता है।

(iii) औद्योगिक संस्थानों में कुशल प्रबन्ध व संचालन के अभाव के कारण इन संसाधनों के विदोहन के लिए सुविचारित नीतियों, कार्य योजनाओं व प्रविधियों का निर्धारण व क्रियान्वयन सम्भव नहीं हो पाता।

(iv) ऐसे संसाधन से सम्बन्धित नवीनतम प्रौद्योगिकी एवं तकनीकी जानकारी के अभाव के कारण इनके प्रति अपनाई गई तकनीकी व व्यावहारिक नीतियों का समुचित क्रियान्वयन सम्भव नहीं हो पाता।

(v) ऐसे संसाधनों की प्राप्ति व उपयोग हेतु सामान्य उद्यमियों के पास पर्याप्त पूँजीगत संसाधनों का अभाव पाया जाता है।

(vi) इन आधारभूत संसाधनों से सम्बन्धित शैक्षिक उन्नयनता को बढ़ावा देने के लिए प्रौद्योगिकी व तकनीकी शिक्षा तथा प्रशिक्षण सुविधाओं की अपर्याप्तता पायी जाती है।

(vii) हमारे देश में संसाधनों के अनुपात में जनाधिक्य की समस्या के कारण इनके आवंटन व इनसे प्राप्त प्रतिफलों व उत्पादों की समुचित व्यूहरचनाओं के प्रति कोई सुधारात्मक कदम नहीं उठाये जा सकते।

(viii) रोजगार के पर्याप्त साधनों के अभाव के कारण भी आधारभूत संसाधनों का समुचित उपयोग नहीं हो पाता।

(ix) विभिन्न औद्योगिक संस्थानों में अत्यधिक अनुत्पादक खर्चों, हानिप्रद स्थितियों व पर्याप्त पूँजी निर्माण के अभाव के कारण भी इन संसाधनों से सम्बन्धित समस्याएं उत्पन्न हो जाती है।

(x) औद्योगिक समाज में पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरुकता व सामाजिक चेतना के अभाव के कारण इन संसाधनों के प्रति व्यावहारिक व सकारात्मक रुख नहीं बनाया जा सकता है।

आधारभूत संसाधनों से सम्बन्धित तकनीकी उपाय

(Technical Measured Relating to the Infrastructural Resource)

औद्योगीकरण की अवस्थाओं में आधारभूत संसाधनों की प्राप्ति, उपलब्धता, विदोहन व उपयोग आदि को प्रत्येक स्तर पर तकनीकी, वित्तीय व निर्माणी दृष्टिकोण से श्रेष्ठ बनाने के क्रम में कुछ तकनीकी उपाय निम्न प्रकार है-

(I) लागत उत्पादन सम्बन्ध (Cost Production Relation)- औद्योगिक क्षेत्रों में आधारभूत संसाधनों की प्राप्ति व उपयोग की उपलब्धता के लिए इनकी लागत व उत्पादन में पर्याप्त तकनीकी सम्बन्ध पाया जाता है। ऐसे सम्बन्धों को अल्प व दीर्घकालीन रूपों में अध्ययन किया जाना आवश्यक है। आधारभूत सुविधाओं या उत्पादन के साधनों को स्थिर व परिर्वतनशील साधनों में विभक्त कर इस व्यावहारिक तथ्य को महत्ता दी जाती है कि स्थिर संसाधनों को अल्पकाल में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। इसके विपरीत परिवर्तनशील संसाधनों की मात्रा में अल्पकाल में कमी या वृद्धि सम्भव हो सकती है।

अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोण से उद्यमियों द्वारा आधारभूत संरचनात्मक सुविधाओं व संसाधनों पर किये जाने वाले व्ययों का प्रभाव उस उद्योग की स्थिर व परिवर्तनशील लागतों पर पड़ता है। अल्पकाल में यदि मांग के अनुरूप उत्पादन बढ़ता है तो प्रति इकाई स्थिर लागतें कम हो जाती हैं, यदि उत्पादन की मात्रा घटती है तो प्रति इकाई स्थिर लागतें बढ़ जाती हैं। इसी प्रकार, उत्पादन की मात्रा के घटने व बढ़ने पर परिवर्तनशील लागते भी उसी के अनुरूप परिवर्तित होती है। दीर्घकाल में दोनों लागतें परिवर्तित होती रहती हैं। अतः सामान्यतः उद्यमियों को लागत उत्पादन सम्बन्धों के अन्तर्गत निम्न बातों पर ध्यान देना आवश्यक है-

(i) प्रारम्भिक स्तर पर उन आधारभूत संसाधनों के अधिकतम उपयोग पर ध्यान देना चाहिये जिनसे स्थिर लागतें प्रभावित होती है,

(ii) उद्यमियों द्वारा कम-से-कम अल्पकाल में अपने उत्पादन का मूल्य औसत लागत के बराबर रखना चाहिये।

(iii) उद्यमियों द्वारा अल्प व दीर्घकालीन समय अवधियों में उत्पादन की अप्रयुक्त क्षमता के उपयोग पर ठोस निर्णय लेना चाहिये,

(iv) यह निर्णय लिया जा सकता है कि उद्यमी पुराने संसाधनों को काम में ले या नये साधनों को प्राप्त करें।

उपर्युक्त के आधार पर स्पष्ट है कि कोई भी उद्यमी अपने उपक्रम में स्थिर व परिवर्तनशील लागतों को सन्तुलित व न्यूनतम लाने का प्रयास कर सकते हैं तथा संस्थापित क्षमता के अधिकतम उपयोग पर पर्याप्त ध्यान दे सकते हैं।

(II) अवसर लागत (Opportunity Cost)- औद्योगिक क्षेत्रों में प्रत्येक उत्पादक व उद्यमी का उद्देश्य विभिन्न आधारभूत संसाधनों को कम-से-कम लागत पर अधिकतम उत्पादन द्वारा अपने लाभ को अधिकतम करना होता है। इस उद्देश्य की पूर्ति तभी सम्भव है जबकि उत्पादन के विभिन्न साधनों का अनुकूलतम संयोग हो जाये।

सामान्यतया अवसर लागत उस लागत को कहते हैं, जो एक उत्पादन के साधन के किसी वैकपिक प्रयोग से प्राप्त हो सकती है। प्रो० बेनहम के शब्दों में, “मुद्रा की वह मात्रा जो कि कोई इकाई सर्वश्रेष्ठ वैकल्पिक प्रयोग में प्राप्त कर सकती है, उसे हस्तान्तरण आय कहते हैं। चूंकि एक उत्पादन के साधन के अनेक वैकल्पिक प्रयोग होते हैं। अतः अवसर लागत वह अधिकतम राशि है जिसे कोई उत्पादन का साधन अन्य किसी उत्पादन के कार्य से प्राप्त कर सकता है। उदाहरणार्थ, एक श्रमिक को किसी चीनी मिल में 100 रुपये मिलते हैं परन्तु कपड़ा मिल से उसे 140 रुपये मिलते हैं तो 140 रुपये उस श्रमिक की अवसर लागत है। अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोण से यह उत्पादन के विभिन्न साधनों को उनके वैकल्पिक प्रयोगों में इस प्रकार वितरित करने में सहायक होती है कि वे अपनी अधिकतम आय प्राप्त कर सकें।”

उक्त उपाय की सरल व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि विभिन्न साधनों में से एक साधन अनेक उत्पादन क्रियाओं में से जब किसी विशेष उत्पादन क्रिया में प्रयोग किया जाता है तो वह दूसरी उत्पादन क्रिया में प्रयुक्त होने का अवसर खो देता है, यही विकल्प की लागत अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोण से अवसर लागत कहलाती है। इस लागत को हस्तान्तरण आय या अवसरजनित लागत या उस साधन को वर्तमान प्रयोग में बनाये रखने के लिये दिया जाने वाला वह न्यूनतम मूल्य या भुगतान है, जो यदि उसे नहीं दिया जाये तो वह अन्यन्त्र कहीं उचित विकल्प की खोज कर लेगा।

अतः आधारभूत संसाधनों की प्राप्ति व उपयोग की श्रेष्ठ के सन्दर्भ में अवसर लागत की अवधारणा के अनुरूप उद्यमियों द्वारा कुछ महत्वपूर्ण निर्णय इस प्रकार लिये जा सकते हैं-

(i) उद्यमियों द्वारा इन संसाधनों की सीमित, सामाजिक व विशिष्ट उपलब्धता व आपूर्ति को ध्यान में रखते हुये यह निर्णय लिया जाना अपेक्षित है कि इनकी आपूर्ति कब व किन स्रोतों से लाभदायी रहेगी,

(ii) संसाधनों की प्राप्ति सम्बन्धी निर्णयों में उद्यमियों द्वारा संसाधनों की विशिष्ट गुणवत्ता, क्षमता, योग्यता निष्पादन स्तर व कार्य क्षमता को ध्यान में रखते हुये अपनी सीमित वैकल्पिकता व तुलनात्मकता की व्यवहार्यता का समुचित मूल्यांकन किया जा सकता है।

(iii) अवसर लागत की अवधारणा इस मान्यता पर आधारित है कि श्रम संसाधनों को परअधिकतम व पूर्ण रोजगार के अवसर उपलब्ध हो जायेंगे। इससे उनमें कार्य के प्रति अधिकतम सन्तुष्टि व रोजगार सृजन के नये अवसरों की उन्मुखता की ओर रुझान भी बढ़ेगा।

(iv) उद्यमियों द्वारा संसाधनों के विशिष्टिकरण व गुणवत्ता में सुधार के लिये अनेकानेक उपायों व विधियों का प्रयोग किया जाना सम्भव हो जाता है।

(v) अवसर लागत की मान्यता है कि इससे संसाधनों में गतिशीतला पायी जाती है। अतः कोई भी उद्यमी अपने साधनों की विशिष्ट पहचान, उत्पादन कार्य में भूमिका, आर्थिक महत्ता व मूल्यों की सापेक्षिकता को ध्यान में रखते हुये श्रेष्ठ निष्पादन व मूल्य स्तरों का निर्धारण कर उन्हें अधिक उपादेयी बन सकता है,

(vi) अवसर लागत के माध्यम से उद्यमियों द्वारा विनियोग के वैकल्पिक अवसरों व पूँजीगत साधनों की विकल्पता का अध्ययन कर दीर्घकाल में पूँजी निर्माण प्रक्रिया को प्रभावी बनाया जा सकता है।

(III) बर्बादी पर नियन्त्रण (Control Over Wastages)-आधारभूत संसाधनों की प्राप्ति व उपादेयता की श्रेष्ठता इनकी बर्बादी एवं होने वाले अनावश्यक व्ययों पर नियन्त्रण करने पर निर्भर करती है। ये संसाधन औद्योगिक इकाइयों में अलग-अलग रूपों में विभिन्न किस्मों, मात्राओं व क्षमताओं के अनुरूप प्राप्त किये जाते हैं। अतः इनके विभिन्न पहलुओं से सम्बद्ध मितव्ययिताओं की प्राप्ति व बर्बादी पर नियन्त्रण के लिए कुछ उपायों को निम्न रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है-

(i) औद्योगिक क्षेत्रों में संसाधनों की आपूर्ति व प्राप्ति के सम्बन्ध में सूचित नीतियों, प्रावधानों एवं तकनीकी उपायों को काम में लिया जाना चाहिए।

(ii) श्रम संसाधनों कं। चयन प्रक्रिया के अन्तर्गत श्रमिकों की योग्यता व रुचि को चयन प्रक्रिया में आधार मानते हुए रखा जाना चाहिए।

(iii) औद्योगिक इकाइयों द्वारा सामग्री प्रबन्ध व नियन्त्रण की विभिन्न तकनीकों का उपयोग किया जाना चाहिए।

(iv) मशीनों, उपकरणों व साज-समानों की क्षमता का सही आकलन किया जाकर इनकी समुचित देखभाल, मरम्मत व प्रयोग विधि विकसित करनी चाहिए।

(v) औद्योगिक इकाइयों में संसाधनों की बर्बादी पर रोक के लिए विभिन्न प्रबन्धकों, कर्मचारियों, सुपरवाइजरों व श्रमिकों को उत्तरदायी ठहराते हुए उनके कार्य निष्पादन की समुचित जांच की जानी चाहिए।

(IV) अधिकतम सामाजिक सन्तुष्टि (Maximum Social Satisfaction)- आधारभूत संरचनात्क संसाधनों की उपदेयता एवं गतिशीलता के विकास के लिए अधिकतम सामाजिक सन्तुष्टि एवं सामाजिक कल्याण को आधार बनाया जाना आवश्यक है। निष्कर्ष रूप में, इन संसाधनों से सामाजिक कल्याण को बढ़ावा मिले और साथ ही, सामाजिक कल्याण की वृद्धि से संसाधनों का पुनः सामाजिक हित में अधिकतम विदोहन हो, ऐसी मान्यता को व्यावहारिक रूप में स्वीकार कर मूर्तरूप में स्थायी स्वरूप प्रदान करना चाहिए।

नव-क्लसिकल अर्थशास्त्रियों में प्रमुखतः प्रो० पीगू ने अपनी आर्थिक कल्याण सम्बन्धों विचारधाराओं में स्पष्ट किया था कि समाज में रहने वाले सभी व्यक्तियों के उत्पाद व सेवा से प्राप्त होने वाली सन्तुष्टि के कुल योग को सामाजिक कल्याण की संज्ञा दी जा सकती है। उनका तर्क था कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति संसाधनों की प्राप्ति व इनके उपयोग से अधिकतम सामाजिक सन्तुष्टि प्राप्त करना चाहता है।

तकनीकी उपाय

(Technical Suggestion)-

वर्तमान के सन्दर्भ में, आधारभूत संसाधनों के निर्धारण, संचालन व उपदेयता की प्रक्रिया में समाज व उद्यमियों की परस्पर भूमिका परिलक्षित होती है। अधिकतम सामाजिक सन्तुष्टि व सामाजिक कल्याण के लिए उद्यमियों का तकनीकी दायित्व इस प्रकार है-

(i) उद्यमियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि समाज को संसाधनों के प्रयोग से प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में मानवीय संतुष्टि की प्राप्ति हो सके।

(ii) प्रो0 पीगू द्वारा प्रतिपादित अनुकूलतम सामाजिक व्यवस्था की अवधारणाओं को आधार मानते हुए संसाधनों के आवंटन न उपयोग की सामाजिक हित में न्यायोचित व्यवस्था की जानी चाहिए।

(iii) उद्यमियों द्वारा इन आधारभूत संसाधनों की संस्थापित क्षमता का पूर्णरूपेण उपयोग कर अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए अधिकतम कल्यणीकारी क्रियाओं को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

(iv) चूँकि अधिसंख्य संसाधनों का संग्रहण करना सम्भव नहीं होता, अतः इनके उत्पादन, मूल्य व वितरण पर न्यायोचित नियन्त्रण बनाये रखना आवश्यक है।

(v) विभिन्न अर्थशास्त्रियों जिनमें सेम्युलसन व लिटिन, बर्गसन आदि प्रमुख है, की अवधारणा रही है कि अर्थशास्त्र एवं नीतिशास्त्र को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। दोनों एक- दूसरे के पूरक हैं। इसी आधार पर उद्यमियों द्वारा अपने संसाधनों के विदोहन व उपयोग के लिए नीतिगत आधार पर समाज के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करना होता है।

(vi) उद्यमियों द्वारा लोकवित्त (Public Finance)- जिसमें सरकारी व्यय से सामाजिक कल्याण व सन्तुष्टि के स्तर को अधिकतम किया जाता है, की अवधारणाओं, सिद्धान्तों व उपायों को अपनाया जाना चाहिए ताकि संसाधनों का अधिकतम उपयोग किया सके।

(vii) उन सभी उद्यमियों, व्यवसायियों, संस्थाओं, इकाइयों व सरकारी एजेन्सियों जो ऐसे संसाधनों की आपूर्ति प्रदान करते हैं, का दायित्व उत्पन्न होता है कि वे ऐसे आधारभूत संसाधनों की श्रेष्ठ गुणवत्ता के साथ निरन्तर आपूर्ति बनाये रखें।

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Pankaja Singh

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