अर्थशास्त्र

1991 के अवमूल्यन के कारण | अवमूल्यन के सम्भावित परिणाम अथवा प्रभाव

1991 के अवमूल्यन के कारण | अवमूल्यन के सम्भावित परिणाम अथवा प्रभाव

जुलाई 1991 का अवमूल्यन एवं इसके प्रभाव

(Devaluation of July 1991 and its effects)

एक जुलाई, 1991 को प्रमुख विदेशी मुद्राओं की तुलना में भारतीय रुपये का 8.5 प्रतिशत से 17 प्रतिशत तक अवमूल्यन कर दिया गया। इसका तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि रुपये की विनिमय दर डालर की तुलना में 9.5 प्रतिशत पौण्ड की तुलना में 8.5 प्रतिशत, जर्मन मार्क की तुलना में 9.1 प्रतिशत तथा जापानी येन की तुलना में 97 प्रतिशत घट गई। इसके दो दिन बाद तीन जुलाई, 1991 को पुनः कुल मिलाकर भारतीय रुपये का 22.5 प्रतिशत अवमूल्यन कर दिया गया। इस अवमूल्यन के फलस्वरूप रुपये की विनिमय दर में निम्न प्रकार से कमी हुई-

मुद्रा रुपये के मूल्य में 28 जून, 1991 की तुलना में कमी (प्रतिशत) विदेशी मुद्रा के मूल्य में 28 जून की तुलना में प्रतिशत वृद्धि
पौण्ड 17.38 21.04
डालर 18.74 23.07
जर्मन मार्क 17.21 20.78
येन (जापान) 18.25 22.33

उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि यद्यपि रुपये का अवमूल्यन पौण्ड से 17.38 प्रतिशत एवं डालर की तुलना में 18.74 प्रतिशत हुआ, किन्तु विदेशी मुद्राएं जिनसे हम सामान आयात करते हैं, अधिक महंगी हो गई अर्थात् डालर 23.7 प्रतिशत व पीण्ड 21.04 प्रतिशत महंगा हो गया। इसके फलस्वरूप जहां पहले 14.36 रुपये में एक पौण्ड तथा 21.04 रुपये मैं एक डालर मिलना था, अवमूल्यन के फलस्वरूप पौण्ड एवं डालर की कीमत क्रमश: 41.99 रुपये एवं 25.18 रुपये हो गई।

अवमूल्यन के कारण-

रिजर्व बैंक के अनुसार यह अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राओं की कीमतों में हुए परिवर्तनों के अनुसार किया गया सामान्य समायोजन ही। इसके अनुसार अवमूल्यन के सिवाय और कोई विकल्प नहीं था। आइए, हम इस बात का विवेचन करें कि वह आर्थिक संकट क्या है जिसके कारण हमें अवमूल्यन का सहारा लेना पड़ा। इस सम्बन्ध में निम्न बिन्दु महत्वपूर्ण है-

(1) प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन- अवमूल्यन का सबसे महत्वपूर्ण कारण हमारा प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन था तथा हमारा विदेशी मुद्रा काय निरन्तर घटता जा रहा था हमारा विदेशी मुद्रा कोष मार्च 1990 45,787 करोड़ रु०का था जो जलाई 1991 मंचटकर मात्र 2,500 करोड़ रुपया रह गया जो मात्र 11 दिन के आयात के लिए भी पर्याप्त नहीं था। ऐसी स्थिति में विदेशी मुद्रा प्राप्त करना जरूरी था जो निर्यात बढ़ने से सम्भव था।

(2) विदेशी व्यापार में घाटा- भारत में विदेशी व्यापार में लगातार घाटा भी अवमूल्यन का एक कारण था। जहाँ 1989-90 में व्यापार घाटा 7,731 करोड़ रु० का था वह 1990-91 में बढ़कर 10,664 करोड़ रु. का हो गया जो हमारे सकल राष्ट्रीय उत्पाद का तीन प्रतिशत था । इस घाटे को कम करने के लिए निर्यात बढ़ाना आवश्यक समझा गया जो कि अवमूल्यन से सम्भव था क्योंकि विदेशियों को हमारा सामान सस्ता पड़ता है तथा आयात घटते हैं क्योंकि हमें विदेशी सामान महंगा पड़ता है।

(3) देश पर बढ़ता हुआ विदेशी कर्ज- भारत पर विदेशी कर्ज बढ़ता जा रहा था। एक अनुमान के आधार पर वर्तमान में भारत पर विदेशी कर्ज का भार 1 लाख 40 हजार करोड़ रु. है। इस पर 1980-81 में कर्ज अदायगी निर्यात आय की 8 प्रतिशत थी जो 1990-91 में बढ़कर 30 प्रतिशत हो गई। स्थिति यहां नक आ पहुंची कि ब्याज का भुगतान करने के लिए हमारे पास विदेशी मुद्रा नहीं थी। अत: हमे 49 टन सोना विदेश में गिरवी रखना पड़ा। अत: निर्यात बढ़ाने के लिए अवमूल्यन आवश्यक समझा गया।

(4) अन्य कारण- देश में आर्थिक संकट के कई अन्य कारण रहे हैं जिसके कारण अवमूल्यन का सहारा लिया गया। एक कारण तो यह था कि खाड़ी युद्ध के कारण व्यापार में लगातार अवरोध उपस्थित हुआ। पश्चिमी देशों से मिलने वाली सहायता में कमी तथा अनिवासी भारतीयों द्वारा भेजी जाने वाली तथा पर्यटन और अन्य सेवाओं से प्राप्त होने वाली विदेशी मुद्रा में कमी, इत्यादि। अनुमान है कि इन सब कारणों से लगभग 5,180 करोड़ रु० का घाटा हुआ जिसमें से 3,625 करोड़ रु. पेट्रोल आयात करने के लिए अतिरिक्त भुगतान करना पड़ा।

(5) अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का दबाव- कुछ अर्थशास्त्रियों का यह अनुमान है कि सरकार द्वारा अवमूल्यन अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबाव में आकर किया गया तथा विदेशी मुद्रा से निपटने के लिए एवं मुद्रा कोष से ऋण लेने के प्रयास में हम अपनी नीतियों को मुद्रा कोष के निर्देशों के अनुसार ढाल रहे हैं। किन्तु सरकार ने मानने से इन्कार किया कि अवमूल्यन और आर्थिक सुधार वह मुद्रा कोष के दबाव में लागू कर रही है।

अवमूल्यन के सम्भावित परिणाम अथवा प्रभाव

अवमूल्यन के प्रभावों को निरपेक्ष रूप से नहीं आंका जा सकता क्योंकि सरकार ने इसके साथ ही व्यापार नीति, मौद्रिक नीति एवं राजकोषीय नीति में भी परिवर्तन कर दिया। अत: इन सबको मिलाकर अवमूल्यन के प्रभावों को समझा जा सकता है। अवमूल्यन के प्रभाव निम्न प्रकार हैं-

(1) निर्यातों में वृद्धि- यह आशा की गई कि अवमूल्यन से हमारे निर्यातों में वृद्धि होगी क्योंकि विदेशियों को हमारा माल सस्ता पड़ेगा। किन्तु निर्यात सहायता बन्द करने तथा निर्यात के लिए किये जाने वाले आयात के प्रबन्ध में नीति बदलने से निर्यातों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की सम्भावना है। हमारे प्रतियोगी व गैर-परम्परागत निर्यात बढ़ने की कोई उम्मीद नहीं है, हाँ, हीरे- जवाहरात जैसी वस्तुओं का निर्यात थोड़ा बढ़ सकता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि अवमूल्यन से निर्यातों में नाममात्र की वृद्धि ही सम्भावित है। हमारे निर्यात न बढ़ने के कई मूल कारण हैं जैसे माल की गुणवत्ता श्रेष्ठ न होना, विपणन में विफलता, विकसित देशों द्वारा संरक्षण एवं ऊंची लागत आदि।

(2) आयात महंगे- अवमूल्यन के कारण हमें आयात के लिए अब ज्यादा कीमत चुकानी पड़ेगी। इनसे तेल और पेट्रोलियम उत्पादों, खाद्य तेल, उर्वरक, अखबारी कागज, स्टील, तांबा एवं पूंजीगत वस्तुओं की आयात महंगा होगा। अनुमान है कि ये आयात 20 से 22 प्रतिशत महंगे होंगे। यदि आयात महंगे होने के कारण कुछ घटते भी हैं, तो सरकार को कस्टम से होने वाली आय घट जायेगी और बजट बढ जायेगा।

(3) विदेशी ऋण में वृद्धि- अवमूल्यन का तीसरा प्रभाव यह होगा कि विदेशी ऋण जो अवमूल्यन के पहले 1,310 अरब रुपये का था, बढ़कर 1,620 आब रुपये का हो जायेगा। इसी अनुपात में हमारे ब्याज व अन्य भुगतान भी बढ़ जायेंगे। अनुमान है कि 1991-92 में मूलधन एवं ब्याज का भुगतान 7 अरब 30 करोड़ अरब 300 करोड़ डालर का करना होगा जो कुल निर्यात का 47 प्रतिशत होगा एवं अवमूल्यन के कारण यह प्रतिशत बढ़कर 58 हो जायेगा।

(4) महंगाई में वृद्धि- अवमूल्यन का चौथा प्रभाव यह होगा कि अर्थव्यवस्था में महंगाई का दौर शुरू हो जायेगा जिसके प्रमाण दिखाई देने लगे हैं। सोना 30 प्रतिशत महंगा हो गया है। दालें, मसाले, खाद्य तेल, पेट्रोलियम आदि महंगे हो गये हैं। महंगाई.जो वर्तमान में 16 प्रतिशत के आसपास है, ऐसा अनुमान है कि 20 प्रतिशत तक पहुंच जायेगी।

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Pankaja Singh

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