अर्थशास्त्र

1949 में भारतीय रुपये का अवमूल्यन | अवमूल्यन के कारण | भारतीय रुपये के अवमूल्यन के परिणाम | 1966 में रुपये का पुनः अवमूल्यन | 1966 के अवमूल्यन के कारण | अवमूल्यन प्रभाव

1949 में भारतीय रुपये का अवमूल्यन | अवमूल्यन के कारण | भारतीय रुपये के अवमूल्यन के परिणाम | 1966 में रुपये का पुनः अवमूल्यन | 1966 के अवमूल्यन के कारण | अवमूल्यन प्रभाव

1949 में भारतीय रुपये का अवमूल्यन

द्वितीय विश्व युद्ध का यह परिणाम हुआ कि ब्रिटेन तथा पश्चिमी यूरोप के देशों के भुगतान शेष में काफी प्रतिकूलता आ गयी तथा इन्हें निरन्तर अमेरिका और कनाडा से ऋण लेने पड़े और स्टर्लिंग पौण्ड की विनिमय दर काफी कमजोर हो गयी। मुद्रा कोष की 1949 की रिपोर्ट के अनुसार, “आर्थिक तथा घाटे वाले देशों में अन्तर इतना अधिक हो गया कि उसे अवमूल्यन के सिवाय किसी अन्य तरीके से ठीक नहीं किया जा सकता था।”

ब्रिटेन में घाटे की मात्रा सबसे अधिक थी अत: इसमें सुधार करने के लिए ब्रिटेन ने 25 सितम्बर, 1949 में अपने पौण्ड का 30.5 प्रतिशत अवमूल्यन कर दिया जिसके कारण पौण्ड का डालर मूल्य 403 से घटकर 2.80 डालर हो गया।

ब्रिटेन का अनुसरण करते हुए भारत ने भी 18 सितम्बर, 1949 को रुपये की आबन्टन करने की घोषणा की जिसके फलस्वरूप रुपये की विनिमय दर डालर की तुलना में 30.225 सेण्ट से घटकर 21 सेण्ट रह गयी।

अवमूल्यन के कारण

(Causes of Devaluation)

1949 में भारतीय रुपये का अवमूल्यन निम्न कारणों से किया गया-

(1) रुपये का स्टर्लिंग से सम्बन्ध- 1947 में रुपये का स्टलिग से सम्बन्ध विच्छेद हो जाने पर भी भारत स्टर्लिंग क्षेत्र का सदस्य बना रहा। अत: इंग्लैण्ड एवं स्टलिंग क्षेत्र के देशों के साथ अपने आर्थिक सम्बन्धों को पूर्ववत् बनाए रखने के लिए भारत ने भी रुपये का अवमूल्यन कर दिया। अवमूल्यन न करने की स्थिति में भारत को स्टर्लिंग क्षेत्र के देशों के साथ व्यापार करने में कठिनाई होती।

(2) प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन– तत्कालीन परिस्थितियों में भारत का भुगतान शेष काफी प्रतिकूल था। इसका कारण यह था कि वस्तुओं के मूल्य ऊँचे होने से भारतीय निर्यात में कमी हो रही थी। यदि भारत रुपये का अवमूल्यन न करता तो भुगतान सन्तुलन की विषमता और भी बढ़ जाती।

(3) भारत के विदेशी व्यापार की स्टर्लिंग क्षेत्र पर निर्भरता- भारत को रुपये का अवमूल्यन इसलिए भी करना पड़ा क्योंकि भारत का 75 प्रतिशत व्यापार एवं निर्यात स्टर्लिंग क्षेत्रों पर निर्भर था।

(4) पौण्ड पावनों के मूल्य में स्थिरता- पौण्ड-पावनों (Sterling Balances) के मूल्यों को स्थिर रखने के लिए भी रुपये का अवमूल्यन किया गया। यदि रुपये का अवमूल्यन न किया जाता तो भारत को प्राप्त पौण्ड पावनों का मूल्य बहुत कम रह जाता तथा भारत को आर्थिक हानि होती।

(5) डालर की दुर्लभता- अन्य देशों के समान भारत में भी डालर दुर्लभ मुद्रा थी। इसकी पूर्ति बढ़ाने के लिए भारत ने अनेक उपाय किये तथा स्टर्लिंग पौण्ड पवनों को डालर में परिवर्तित किया। भारत ने मुद्रा कोष से 100 मिलियन डालर खरीदे तथा विश्व बैंक से 40 मिलियन डालर का ऋण लिया, किन्तु इतने पर भी डालर की समस्या हल न होती देखकर, भारत ने भी रुपये का अवमूल्यन कर दिया।

यद्यपि कुछ लोगों द्वारा अवमूल्यन का विरोध किया गया, किन्तु यदि गम्भीरता से देखा जाय तो कहना पड़ेगा कि 1949 की अवमूल्यन परिस्थितियों का परिणाम था। तत्कालीन वित्त मन्त्री जॉन मर्था के शब्दों में, “अवमूल्यन की नीति किसी तर्कसम्मत विश्वास पर आधारित नहीं थी वरन् घटनाओं के दबाव के कारण अपनायी गयी थी।”

भारतीय रुपये के अवमूल्यन के परिणाम

अनुकूल प्रभाव-1949 में किये गये रुपये के अवमूल्यन के निम्न अनुकूल परिणाम हुए-

(1) व्यापार शेष में सुधार- अवमूल्यन के फलस्वरूप भारत के व्यापार शेष में सुधार हुआ क्योंकि भारतीय निर्यात व्यापार सस्ता हो गया जिससे निर्यात व्यापार में वृद्धि हुई। सितम्बर 1949 और जून 1950 की अवधि में व्यापार शेष के घाटे में 172 करोड़ रुपये की कमी हो गयी।

(2) पौण्ड पावनों के व्यय के अधिक लाभ- अवमूल्यन के बाद भारत ने अपने पौण्ड पावनों का जितना भाग डालर के क्षेत्र में व्यय किया उसका मल्य 3.5 प्रतिशत कम हो जाने से उतना ही अधिक लाभ हुआ।

प्रतिकूल प्रभाव-

अवमूल्यन के प्रतिकूल प्रभाव इस प्रकार थे-

(1) विदेशी ऋणों के भार में वृद्धि- अवमूल्यन का एक प्रतिकूल प्रभाव यह हुआ कि भारत ने विश्व बैंक से ऋण लिया था उसका रुपयों में मूल्य बढ़ गया।

(2) आर्थिक विकास में बाधा- भारत को आर्थिक विकास के लिए भारी मात्रा में अमरीका से आयात करना पड़ता था किन्तु अवमूल्यन के फलस्वरूप अमरीका और डालर क्षेत्र के अन्य देशों से आयात महंगा हो गया जिससे आर्थिक विकास की कुछ परियोजनाओं को स्थगित करना पड़ा।

(3) आन्तरिक मूल्य स्तर में वृद्धि- अवमूल्यन के कारण देश में मुद्रा प्रसार की स्थिति पैदा हो गयी। सितम्बर 1949 में थोक कीमतों का सूचकांक 390 था जो 1951 में बढ़कर 458 हो गया।

(4) भारत-पाक सम्बन्धों में तनाव- पाकिस्तान ने 1949 में अपनी मुद्रा का अवमूल्यन नहीं किया जिससे भारत-पाक व्यापार लगभग ठप्प हो गया क्योंकि पाकिस्तानी माल पर भारत को 44 प्रतिशत मूल्य अधिक देना पड़ता था। एक प्रतिकूल प्रभाव यह हुआ कि पाकिस्तान पटसन के निर्मित माल में भारत का प्रतिस्पर्धी बन गया।

भारत के अवमूल्यन से प्रत्याशित लाभ प्राप्त नहीं हो सके क्योंकि एक तो जापान और पाकिस्तान द्वारा अवमूल्यन न किये जाने से भारत के इन देशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध अच्छे नहीं रह गये। दूसरे, भारत को स्टर्लिंग क्षेत्र से मशीनें एवं अन्य वस्तुएं जल्दी प्राप्त नहीं हो सकी क्योंकि इस क्षेत्र के देशों के सामने भी आर्थिक पुनर्निर्माण की समस्या थी। साथ ही अमेरिका से आयात करने पर भी भारत को हानि हुई।

1966 में रुपये का पुनः अवमूल्यन

जून 1966 में भारतीय रुपये का स्वर्ण से सम्बन्धित विदेशी मुद्रा के सन्दर्भ में 36.5 प्रतिशत अवमूल्यन कर दिया गया। यह एकाएक नहीं हुआ क्योंकि 17 फरवरी, 1966 को योजना मन्त्री श्री अशोक मेहता ने राज्यवित्त मन्त्री श्री बी० आर० भगत की ओर से यह वक्तव्य विदेशी समाचार पत्रों में जारी किया था कि भारत रुपये के अवमूल्यन पर विचार कर रहा है।

अवमूल्यन के फलस्वरूप अमेरिकी डालर की कीमत जो पहले 4.76 रुपये थी, बढ़कर 7.50 रुपये हो गयी तथा इंग्लैण्ड के पौण्ड की कीमत 13.3 रुपये से बढ़कर 21 रुपये हो गयी। इसका यह अर्थ था कि नयी अधिकृत विनिमय दरों के कारण अवमूल्यन 57.5 प्रतिशत हो गया।

रुपये के समता मूल्य में परिवर्तन करने का निर्णय देश की तत्कालीन परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए किया गया क्योंकि यह देश की अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक माना गया। पिछले 15 वर्षों से आर्थिक विकास के कारण देश के संसाधनों विशेष रूप से बाह्य प्रसाधनों पर भारी दबाव पड़ रहा था। 1965 में भारत में आये विश्व बैंक के प्रतिनिधि बर्नार्ड बेल ने भी रुपये का अवमूल्यन करने की सिफारिश की थी। अमरीका की ओर से भी अवमूल्यन के लिए दबाव था क्योंकि उसने रुपये का अवमूल्यन करने पर ही भारत को चौथी योजना के लिए सहायता देने का वचन दिया था।

1966 के अवमूल्यन के कारण

(1) निर्यात प्रोत्साहन की विफलता- अवमूल्यन का एक प्रमुख कारण यह था कि भारत के भुगतान शेष में काफी असन्तुलन था। कुछ उपायों के अपनाने पर भी निर्यात प्रायः स्थिर थे। प्रथम योजना में निर्यातों का प्रतिशत हमारी कुल आय का 6.1 था जो तीसरी योजना में घटकर 4.3 प्रतिशत रह गया। यहां तक कि भारत के पारम्परिक निर्यातों-जूट और चाय के निर्यातों को बढ़ाने के लिए भी प्रोत्साहन की आवश्यकता थी।

(2) आयातों में लगातार वृद्धि- एक ओर तो निर्यात स्थिर थे तथा दूसरी ओर आयातों में भारी वृद्धि हो रही थी जिसका मुख्य कारण देश के आर्थिक विकास के लिए मशीनों, कच्चे माल और पूंजीगत वस्तुओं का भारी मात्रा में आयात करना था। 1961-62 में कुल आयात 1720 करोड़ रुपये का था जो 1965-66 में बढ़कर 2200 करोड़ रु० से भी अधिक हो गया।

(3) आन्तरिक कीमत स्तर में वृद्धि- देश में मुद्रा प्रसार की स्थिति विद्यमान थी और इसीलिए हमारे निर्यात नहीं बढ़ पा रहे थे। 1962-63 और 1965-66 की अवधि में कीमतों में 29 प्रतिशत की संचयी वृद्धि हुई। इसका परिणाम यह हुआ कि उत्पादन केवल घरेलू बाजार के लिए ही होने लगा क्योंकि लागतों में वृद्धि होने से निर्यात, प्रतियोगिता में टिक नहीं सके।

(4) भुगतान शेष में घाटा- स्थिर निर्यात और बढ़ते हुए आयातों के कारण भारत की विदेशी विनिमय की आवश्यकता का आकार बढ़ता जा रहा था 1961-62 में यह अन्तर 477 करोड़ रु० का था जो 1964-65 में बढ़कर 740 करोड़ रु० हो गया। इसकी पूर्ति अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से ऋण लेकर की गयी। श्री एस० केशव आयंगर के शब्दों में, “विदेशों से सहायता के बावजूद भी, देश के विदेशी विनिमय रिजर्व पर भारी दबाव पड़ रहा था जो स्वर्ण को छोड़कर,द्वितीय योजना के प्रारम्भ में 785 करोड़ रु० की तुलना में मार्च 1966 में घटकर 182 करोड़ रु० रह गया।”

(5) रुपये का अधिमूल्यन- इसके पर्याप्त कारण मौजूद थे कि रुपये में अधिमूल्यन हो गया था। प्रथम तो, सतत् रूप से भुगतान शेष की कठिनाई इसका प्रभाव था। दूसरे, विदेशी विनिमय में दो बाजार विद्यमान थे-एक तो अधिकृत बाजार था जिसमें विनिमय मूल्य Rs. 5 = $ 1 था तथा समुद्र पार के कई क्षेत्रों में यह मूल्य Rs.7.50 = $ 1 था। अर्थात् अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में रुपये का मूल्य कम हो रहा था तथा उसकी तुलना में भारत में रुपये का मूल्य अधिमूल्यित था।

(6) बहुविनिमय दर की प्रणाली- 1966 के पहले भारत ने निर्यातों को प्रोत्साहित करने एवं आयातों को नियन्त्रित करने में कई उपायों का सहारा लिया था जिससे रुपये की अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में बहुविनिमय दरें स्थापित हो गयी थीं और ये दरें निर्यातकों के पक्ष में थीं। किन्तु अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का सदस्य होने के नाते भारत के लिए बहु विनिमय दरों की प्रणाली को अपनाना स्थानीय रूप से सम्भव नहीं था। इसीलिए रिजर्व बैंक ने भारत के अवमूल्यन के निर्णय को उचित ठहराया।

अवमूल्यन प्रभाव-एक आलोचनात्मक मूल्यांकन

1966 में भारतीय रुपये का अवमूल्यन एक विवादग्रस्त विषय रहा है। कुछ लोगों ने इसका समर्थन किया तथा अन्य लोगों ने विरोध किया। समर्थकों का मत था कि अवमूल्यन से आयात प्रतिबन्धित होंगे तथा निर्यातों को प्रोत्साहन मिलेगा जिससे विदेशी विनिमय के संकट का हल होगा। यह भी तर्क दिया गया कि इससे अमरीका और अन्य अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से भारत को आर्थिक सहायता मिलेगी।

संक्षेप में, अवमूल्यन के पक्ष में निम्न तर्क दिये गये-

(1) विदेशियों को भारतीय माल सस्ता होने से निर्यातों में वृद्धि होगी।

(2) विदेशी माल महंगा होने के कारण एक और तो आयात नियन्त्रित होंगे तथा दूसरी ओर आयात प्रतिस्थापन से देश में उद्योगों को प्रोत्साहन मिलेगा।

(3) देश की कठिनाइयों को देखते हुए अवमूल्यन ही एकमात्र विकल्प है।

(4) चौथी योजना को कार्यान्वित करने के लिए विदेशी सहायता पर्याप्त मात्रा में मिलेगी।

(5) स्वर्ण की तस्करी कम होगी क्योंकि सोने के घरेलू मूल्य और विदेशी मूल्य में अन्तर समाप्त हो जायेगा।

(6) अवमूल्यन से सरकार को आय होगी क्योंकि नियांत करों में परिवर्तन होगा, विदेशों से मिलने वाली सहायता का मूल्य रुपयों में बढ़ जायेगा तथा निर्यात प्रोत्साहन पर व्यय नहीं करना पड़ेगा।

तत्कालीन वित्तमन्त्री नै अवमूल्यन का समर्थन करते हुए कहा था कि “अधिकांश लोगों ने अवमूल्यन की आलोचना की है किन्तु उनका मूल उद्देश्य आलोचना करना ही है। वास्तव में, अवमूल्यन आर्थिक सन्तुलन को समाप्त करने हेतु किये जाने वाले प्रयास का एक अंग है। गत वर्षों में शासन ने हर उपलब्ध विधि का प्रयोग निर्यात बढ़ाने के लिए किया है, किन्तु अपेक्षित स्तर तक निर्यात नहीं बढ़ सके अतः सपये का अवमूल्यन का निर्यात को बढ़ाने का अवसर प्रदान किया गया है।”

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Pankaja Singh

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