इतिहास

1857 की क्रान्ति | 1857 के क्रान्ति की असफलता के कारण | 1857 के क्रान्ति के परिणाम | 1857 के क्रान्ति की असफलता

1857 की क्रान्ति | 1857 के क्रान्ति की असफलता के कारण | 1857 के क्रान्ति के परिणाम | 1857 के क्रान्ति की असफलता

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1857 की क्रान्ति

प्रस्तावना-

1857 की क्रान्ति को अंग्रेजों ने लगभग दो वर्षों के भीतर पूर्णतः दबा दिया। भारतीयों का यह विद्रोह अंग्रेजों को भारत से निकाल बाहर करने का अन्तिम सशस्त्र प्रयास था। इसमें भारतीय सैनिकों, जिनकी संख्या अंग्रेज सैनिकों से कई गुना थी, ने प्रमुख रूप से भाग लिया था और उन्हें कई क्षेत्रों में नागरिकों का भी समर्थन प्राप्त हुआ था। फिर भी अंग्रेज विद्रोह का दमन करने में सफल रहे और भारतीयों को पराजय का मुंह देखना पड़ा। 1857 का विप्लव भारतीय इतिहास की एक प्रमुख घटना है, जिसके तात्कालिक व दूरगामी परिणाम निकले । इस विद्रोह की असफलता ने भारतीयों को बहुत-सी शिक्षायें भी दीं, जिनका उपयोग उन्होंने बाद में अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में किया। दूसरी ओर, भारतीयों के इस विद्रोह ने अंग्रेज शासकों को भी अपनी शासन पद्धति में सुधार करने को विवश किया, जिससे भविष्य में उन्हें इस प्रकार के विद्रोह का सामना न करना पड़े और भारत में उनका शासन स्थिर बना रहे।

1857 के विद्रोह की असफलता के कारण

1857 के विद्रोह की असफलता के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

  1. विद्रोह का सीमित क्षेत्र में ही फैलना-

1857 का विद्रोह भारत के कुछ ही क्षेत्रों तक सीमित रहा और इसने अखिल भारतीय आन्दोलन का रूप कभी धारण नहीं किया। विद्रोह के समय अधिकांश देश में पूर्ण शान्ति रही। यह विद्रोह केवल उत्तरी भारत तक ही सीमित रहा, दक्षिणी भारत, पंजाब, राजपूताना, महाराष्ट्र आदि में कुछ छुटपुट घटनाओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हुआ । सिक्खों तथा गोरखों ने अंग्रेजों का पूरा साथ दिया। हैदराबाद के निजाम ने यदि विद्रोहियों का साथ दे दिया होता, तो विद्रोह दक्षिणी भारत में फैल कर अंग्रेजों के लिये एक गम्भीर संकट उपस्थित कर देता। इसी प्रकार यदि सिन्धिया विद्रोहियों से मिल जाता तो उत्तरी भारत में भी अंग्रेजों की स्थिति और अधिक संकटपूर्ण हो जाती।

  1. विद्रोहियों के सीमित साधन-

अंग्रेजों की अपेक्षा विद्रोहियों के साधन अत्यन्त सीमित थे। विद्रोहियों के पास पर्याप्त मात्रा में हथियार नहीं थे और उन्हें तलवार, भाले आदि पर निर्भर करना पड़ता था, जबकि अंग्रेजों के पास बहुत बड़ी संख्या में बढ़िया रायफलें तथा तोपें थीं। अंग्रेजों ने तार तथा डाक व्यवस्थाओं का भी विद्रोह दबाने में काफी लाभ उठाया।

  1. अंग्रेजों की अनुकूल परिस्थितियाँ-

1857 में अंग्रेजों का परिस्थितियों ने भी साथ दिया। उस समय तक क्रीमिया और चीन के युद्धों में अंग्रेज सफलता प्राप्त कर चुके थे और भारत पर उनका प्रभाव स्थापित हो गया था, जिससे वे रूस और फारस की ओर से निश्चिन्त रहे। अफगानिस्तान के दोस्त मुहम्मद से भी अंग्रेजों के उस समय मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। इस प्रकार, चारों ओर से निश्चिन्त होकर अंग्रेज अपना पूरा बल इस विद्रोह के दमन में लगा सके।

  1. शिक्षित वर्ग की उदासीनता-

समाज के शिक्षित वर्ग के सहयोग व नेतृत्व के अभाव में कोई विद्रोह या आन्दोलन सफल नहीं हो सकता है। 1857 के विद्रोह में न तो भारत के शिक्षित वर्ग ने भाग लिया और न इसका समर्थन व नेतृत्व ही किया। भारत के शिक्षित वर्ग को विद्रोहियों के अनेक कार्यक्रम व नीतियाँ पसन्द नहीं आई, जैसे अंग्रेजी व वैज्ञानिक शिक्षा, रेल, डाक, तार आदि का विरोध । इस शिक्षित वर्ग को विद्रोह का नेतृत्व सामन्तों के हाथ में होने में भी अखरा, क्योंकि वे उन्हें प्रतिक्रियावादी समझते थे। उन्हें भय था कि सफल होने पर ये सामन्त पुरानी व्यवस्था ही देश पर और विधि के शासन का अन्त हो जायेगा। भारत का शिक्षित वर्ग बाद में राष्ट्रीय आन्दोलन का नेता बना, किन्तु 1857 में यह वर्ग विद्रोह के प्रति उदासीन ही रहा। वास्तव में यह वर्ग पाश्चात्य सभ्यता शिक्षा, विज्ञान, साहित्य, शासन पद्धति आदि की अच्छी बातें ग्रहण करते हुए अंग्रेजों से राजनीतिक आधार पर लड़ना चाहता था।

  1. क्रान्ति का समय पहले से आरम्भ होना-

क्रान्तिकारी नेताओं के अनुसार 31 मई, 1857 को विद्रोह का प्रारम्भ किया जाना था। परन्तु चर्बी वाले कारतूसों के कारण मंगल पाण्डेय नामक सैनिक ने 29 मार्च, 1857 को विद्रोह कर दिया। 10 मई, 1857 को मेरठ में विद्रोह शुरू हो गया। इस प्रकार निर्धारित तिथि से पहले ही विद्रोह प्रारम्भ हो गया। जिससे अग्रेजों को सम्भलने का अवसर मिल गया और क्रान्तिकारियों की समस्त योजनाएँ अस्त-व्यस्त हो गई।

  1. योग्य सेनापतियों का अभाव-

क्रान्तिकारियों के पास योग्य सेनापतियों का अभाव था। यद्यपि रानी झांसी, नाना साहब, तात्या टोपे आदि वीर योद्धा थे परन्तु उनमें योग्य एवं अनुभवी सेनापतियों के गुणों का अभाव था। वे युद्ध के दाव-पेचों से अनभिज्ञ थे। दूसरी और अंग्रेज सेनापति लारेन्स, हैवलाक, निकलसन, औट्रम आदि बड़े योग्य और अनुभवी सेनापति थे। उन्होंने भीषण संकट के अवसर पर भी धैर्य, साहस, सूझबूझ से काम लिया और अपने सैनिकों का मनोबल बनाये रखा।

  1. सामान्य आदर्श का अभाव

1857 ई० के विद्रोह में क्रान्तिकारियों का सामान्य आदर्श नहीं था। डॉ० एम० एस० जैन का कथन है कि “अधिकांश विद्रोही नेताओं ने विद्रोह में अनिच्छा से भाग लिया था। बहादुरशाह कुँवरसिंह, नानासाहब, रानी लक्ष्मीबाई आदि नेता परिस्थितिओयं के अनुसार अपने आप को ढालते चले गए। इनमें से किसी ने भी इस विद्रोह की योजना नहीं बनाई थी। सैनिकों अथवा सामान्य जनता के विद्रोह आरम्भ कर देने के बाद भी कुछ समय तक नेता अंग्रेजों से अपने निजी लाभ और स्वार्थों की उचित व्यवस्था चाहते थे। निराशा मिलने पर ही उन्होंने विद्रोहियों का समर्थन किया।”

  1. भारतीय कृषक वर्ग की उपेक्षा-

1857 के विद्रोह का नेतृत्व जमींदारों, जागीरदारों, ताल्लुकेदारों आदि के हाथों में था परन्तु देश का कृषक वर्ग इस विद्रोहके प्रति उदासीन रहा। बहुसंख्यक कृषकों के समर्थन के बिना इस विद्रोह की सफलता संदिग्ध थी। ये कृषक अंग्रेजों के भूमि सुधारों से लाभान्वित हो चुके थे और सामन्तों के शोषण व अत्याचारों से भली-भाँति परिचित थे। अतः उन्होंने पुरानी व्यवस्था को लागू करने के विद्रोहियों के प्रयासों को सन्देह की दृष्टि से देखा और उनका साथ नहीं दिया इस प्रकार 1857 का विद्रोह जन-साधारण का एक आन्दोलन न बन सका और अंग्रेज इसका सरलता से दमन करने में सफल हो गये।

  1. सामान्य योजना तथा केन्द्रीय संगठन का अभाव-

क्रान्तिकारियों में किसी सामान्य योजना एवं केन्द्रीय संगठन का अभाव था। इसके अभाव में क्रान्तिकारियों को कुशल मार्ग- दर्शन नहीं मिल सका। डॉ० आर०सी०मजूमदार का कथन है कि “क्रान्ति की विफलता का एक महत्वपूर्ण कारण यह था कि क्रान्तिकारियों के पास सामान्य योजना तथा केन्द्रीय संगठन का अभाव था जो समस्त आन्दोलन को मार्ग-दर्शन प्रदान कर सकें।”

  1. विद्रोहियों में कुशल व योग्य नेतृत्व का अभाव-

विद्रोहियों में कुशल व योग्य नेतृत्व का अभाव भी उनकी असफलता का एक कारण था। मुगल सम्राट वृद्ध था और उससे विद्रोह के सफल संचालन की आशा करना दुराशामात्र सिद्ध हुई। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई स्त्री थी और उसने अपने राज्य तथा आस-पास के क्षेत्रों में ही विद्रोह का संचालन किया। नाना साहब संकीर्ण मनोवृत्ति का स्वार्थी नेता था, जिसमें सैनिक योग्यता का अभाव था। तांत्या  टोपे और कुँवरसिंह ने छापामार -मुठभेड़ों में तो कुछ सफलता प्राप्त की, किन्तु खुले युद्धों के सफल संचालन के वे योग्य न थे। विद्रोहियों में कोई समन्वय नहीं था और वे विभिन्न नेताओं के नेतृत्व में अलग-अलग स्थानों पर लड़ रहे थे। वे एक-एक करके परास्त हो गए। इनके अतिरिक्त, विद्रोहियों का सैनिक संगठन भी दोषपूर्ण था। उनके नेताओं ने आधुनिक अस्त्र- शस्त्रों की ओर भी ध्यान नहीं दिया। दूसरी ओर अंग्रेजी सेना में कुशल, योग्य और देशभक्त सेनापतियों की कोई कमी नहीं थी।

  1. राष्ट्रीय एकता एवं निश्चित उद्देश्यों का अभाव-

विद्रोहियों में राष्ट्रीय एकता तथा निश्चित उद्देश्यों का भी अभाव था। मुसलमानों और हिन्दुओं में विद्रोह के दिनों में ही कुछ हिंसक झगड़े हो गये थे। मुसलमानों ने बहादुरशाह को सम्राट घोषित कर दिया था और कुछ हिन्दुओं ने भी उसको अपना सम्राट मान लिया था। किन्तु राजपूत, मराठे, सिक्ख, जाट आदि देश में मुगल सत्ता को फिर से स्थापित हो जाना कभी सहन नहीं कर सकते थे। बहादुरशाह नाना साहब, लक्ष्मीबाई, कुँवरसिंह अवध के ताल्लुकेदार आदि अपने-अपने राज्यों व अधिकारों की पुनः प्राप्ति के विद्रोह में सम्मिलित हुए थे। उन्हें अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार करने में संकोच न था। दूसरी ओर अंग्रेजों ने पूरी तरह संगठित होकर और योजनाबद्ध तरीकों से विद्रोहियों का सामना किया और इसीलिए वे सफल हुए।

1857 के विद्रोह के परिणाम

1857 के विद्रोह के निम्नलिखित परिणाम निकले-

  1. प्रशासन पर प्रभाव-

1857 के विद्रोह की गम्भीरता को देखते हुए ब्रिटिश पार्लियामेंट ने भारत पर से ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन सदैव के लिये समाप्त कर दिया। भारत के शासन की बागडोर अब सीधे ब्रिटिश सम्राट के हाथों में चली गई। नवीन शासन व्यवस्था के अन्तर्गत ब्रिटिश केबिनेट में एक भारत मन्त्री होने लगा जिसकी सहायता के लिये एक भारतीय परिषद् की व्यवस्था की गई। भारत का गवर्नर जनरल अब वायसराय (सम्राट का प्रतिनिधि) कहलाने लगा।

  1. शासन-नीतियों में परिवर्तन-

विद्रोह के दमन के बाद, 1858 में महारानी विक्टोरिया का एक घोषणा-पत्र निकला, जिसमें भारत में ब्रिटिश शासन की भविष्य की आधारभूत नीतियों का उल्लेख किया गया। इस घोषणा-पत्र के अनुसार, राज्य हड़पने की नीति का परित्याग कर दिया गया और देशी राज्यों को उनके अधिकारों की सुरक्षा का आश्वासन दिया गया। छोटे जमींदारों को भी ऐसा ही आश्वासन दिया गया। इस घोषणा ने भारतीयों के मन से उनके धर्म तथा संस्कृति के विनाश के भय को दूर कर दिया और सरकारी नौकरियों के द्वार सबके लिये खोल दिए गए।

1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटेन सरकार ने भारतीयों के धार्मिक व सामाजिक मामलों में कम से कम हस्तक्षेप करने की नीति अपनाई। सरकार की नवीन नीतियों का उद्देश्य उन कारणों को दूर करना था जिन्होंने विद्रोह को जन्म दिया था। इसके साथ ही इन नीतियों का उद्देश्य देशी राज्यों, जमीदारों तथा शिक्षित भारतीयों का एक ऐसा समूह तैयार करना था, जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद का प्रबल समर्थक हो। अपनी इन नीतियों में ब्रिटिश सरकार काफी सीमा और समय तक सफल भी रही।

  1. प्रशासन के निम्न पदों पर भारतीयों को नियुक्त करना-

1858 की महारानी विक्टोरिया की घोषणा में यह आश्वासन दिया गया था कि भारतीयों को बिना किसी जाति तथा रंग-भेद के योग्यता के आधार पर उच्च पदों पर नियुक्त किया जायेगा। परन्तु इसका पालन नहीं किया गया। अव भारतीयों को प्रशासन में क्लर्कों तथा सहायकों के निम्न पदों पर ही नियुक्त किया जाने लगा। अंग्रेज यह चाहते थे कि ये सरकारी कर्मचारी ब्रिटिश शासन के प्रति स्वामिभक्त और निष्ठावान बने रहें। अतः अंग्रेजों की इस नीति से भारत का अहित हुआ।

  1. हिन्दू-मुस्लिम मतभेदों में वृद्धि-

विद्रोह के दौरान ही हिन्दुओं और मुसलमानों के पारस्परिक मतभेद उभर कर सामने आ गए। यद्यपि दोनों का लक्ष्य अंग्रेजी शासन को समाप्त कर अंग्रेजों को भारत से निकालने का था, फिर भी अनेक हिन्दू विद्रोहियों ने भारत में सत्ता की पुनः स्थापना का प्रयास पसन्द नहीं किया। मुसलमानों ने बड़ी आतुरता से बहादुरशाह को भारत का सम्राट घोषित कर दिया और विद्रोह में पूरे जोश के साथ भाग लिया। इसका परिणाम यह निकला कि विद्रोह की असफलता के बाद अंग्रेजों का दमन-चक्र मुसलमानों पर ही अधिक चला और उन्हें ही विद्रोह के लिये उत्तरदायी ठहराया गया। 1858 के बाद अंग्रेजों ने मुसलमानों को शंका की दृष्टि से देखना शुरू कर दिया। इन सब कारणों से अंग्रेजों ने मुसलमानों को सरकारी नौकरियों, व्यापार, शिक्षा आदि से दूर रखना शुरू कर दिया और फिर हिन्दू इन क्षेत्रों में बहुत आगे बढ़ गये ! सर सैयद अहमद खां के प्रयत्नों तथा हिन्दुओं में राष्ट्रीय जागृति उत्पन्न होने के कारण ब्रिटिश सरकार ने अपनी मुस्लिम-विरोधी नीतियों में परिवर्तन अवश्य कर दिया, किन्तु मुसलमान अपने पिछड़ेपन के लिये हिन्दुओं को ही दोष देते रहे तथा राष्ट्रीय आन्दोलन से प्रायः दूर रहे।

  1. भारतीयों तथा अंग्रेजों में कटुता-

1857 का क्रान्ति ने भारतीयों और अंग्रेजों के बीच कटुता उत्पन्न कर दी। अंग्रेजों ने क्रांति का दमन करने के लिये जो बर्बरतापूर्ण कार्य किये थे, उनसे भारतीय लोग बड़े नाराज थे। दूसरी ओर अंग्रेज भी भारतवासियों को विश्वासघाती समझने लगे। इस प्रकार दोनों जातियाँ एक दूसरे को सन्देह तथा घृणा की दृष्टि से देखने लगा।

  1. सैनिक नीति में परिवर्तन-

1857 के विद्रोह ने ब्रिटिश सरकार को सैनिक नीति पर बहुत प्रभाव डाला। भविष्य में विद्रोह की सम्भावना को ध्यान में रखते हुए सैनिक संगठन मजबूत किया गया, नई छावनियाँ स्थापित की गईं और सैनिक तथा अस्त्र-शस्त्रों में वृद्धि की गई। तोपखाने को पूर्णतया अंग्रेजी नियन्त्रण में रखा गया तथा भारतीय रियासतों के तोपखाना समाप्त कर दिए गए। भारतीय रेलवे, डाक, तार, यातायात के अन्य साधनों आदि का तीव्र गति से विकास किया जाने लगा, जिससे भविष्य में विद्रोह को दबाने में सहायक हो। यूरोपियन सैनिकों की संख्या बढ़ाई गई। भारतीय सैनिकों की संख्या अब घटाकर पहले की आधी कर दी गई।

  1. ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति-

अंग्रेज शासकों ने अपने साम्राज्य को बनाये रखने के लिये फूट डालो और शासन करो’ की नीति को अपनाना उचित समझा। अतः उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालने का प्रयास किया। उन्होंने भारतीय नरेशों, जमींदारों तथा सामन्तों को विशेष पुरस्कार व उपाधियाँ आदि प्रदान की ताकि वे ब्रिटिश शासन के प्रति स्वामिभक्त बने रहें।

  1. राष्ट्रवाद को प्रोत्साहन-

1857 की क्रांति ने भारतीय राष्ट्रवाद को प्रोत्साहन दिया। इस क्रांति ने भारतीयों में राष्ट्रीय भावना का प्रसार किया और उन्हें एकता तथा संगठन का पाठ पढ़ाया। नाना साहब, झाँसी की रानी, बहादुरशाह आदि के त्याग और बलिदान से भारतीयों को प्रेरणा मिली और उनमें देशभक्ति, साहस आदि का संचार हुआ। इस प्रकार 1857 की क्रांति ने भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के लिये पृष्ठभूमि का कार्य किया।

  1. भारतीयों को लाभ-

1857 की क्रांति ने भारतीयों को कई प्रकार से लाभान्वित भी किया। ग्रिफिन के अनुसार, “भारत में 1857 के विद्रोह से अधिक सौभाग्यशाली घटना अन्य कोई नहीं घटी। इसने भारतीय गगन-मण्डल को अनेक शंकाओं से मुक्त कर दिया।’ विद्रोह के दमन के पश्चात् ब्रिटिश सरकार का ध्यान देश की आन्तरिक दशा सुधारने की ओर उन्मुख हुआ। भारत के इतिहास में यहीं से वैधानिक विकास का सूत्रपात हुआ और धीरे-धीरे भारतीयों को अपने देश के शासन में भाग लेने का अवसर मिलने लगा। वास्तव में, 1857 से भारत में आधुनिक युग का आरम्भ होता है।

  1. सामाजिक नीति में सतर्कता-

1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने सामाजिक नीति में सतर्कता का दृष्टिकोण अपनाया। उनमें बहुतों का यह विचार था कि उनकी समाज सुधार लागू करने की तथा ईसाई धर्म प्रचारकों के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण की नीति ने विद्रोह की भावना उत्पन्न करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। अतः अब ईसाई धर्म से सम्बन्धित स्कूलों को सहायता देना बंद कर दिया गया। इसी प्रकार सरकार ने हर क्षेत्र में सतर्कता की नीति को अपनाया।

निष्कर्ष-

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि 1857 के विद्रोह को केवल सैनिक विद्रोह नही कहा जा सकता क्योंकि इसमें असैनिक लोगों ने भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। यह विद्रोह अंग्रेजी सरकार की नीतियों व रवैये के विरोध में उपजा था। विद्रोहियों के पास विद्रोह की तथा विद्रोह के बाद के राजकीय व्यवस्था के स्वरूप की कोई सकारात्मक और व्यवहारिक योजना नहीं थी। इसलिए यह विद्रोह शीघ्र समाप्त हो गया, फिर भी इसका प्रशासन तथा समाज दोनों ही क्षेत्रों में व्यापक प्रभाव पड़ा।

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Pankaja Singh

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