1857 के क्रान्ति का स्वरूप | 1857 के क्रान्ति के परिणाम | 1857 के क्रान्ति को भारतीय स्वाधीनता का युद्ध कहे जाने के कारण | 1857 का आन्दोलन भारत की स्वाधीनता का प्रथम संग्राम था | भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम
1857 के क्रान्ति का स्वरूप
प्रस्तावना-
सन् 1857 ई० में उत्तरी एवं मध्य भारत में एक शक्तिशाली एवं जनप्रिय आन्दोलन फूट पड़ा जिसने ब्रिटिश साम्राज्य की भारत में जड़ें ही हिला दीं। इसका प्रारम्भ तो कम्पनी की फौज के कुछ भारतीय सिपाहियों से हुआ था लेकिन शीघ्र ही इसने बहुत बड़ी संख्या में लोगों तथा एक बहुत बड़े क्षेत्र को अपने लपेटे में ले लिया। करोड़ों किसान, कारीगर तथा सिपाही एक वर्ष से भी अधिक समय तक बहादुरी से अंग्रेजों से लोहा लेते रहे और अपने साहस और बलिदान से उन्होंने भारतीय इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय जोड़ दिया।
(1) 1857 के विप्लव का संगठन-
1857 ई० का क्रान्ति एक संगठित विद्रोह नहीं था। आम जन असन्तोष के कारण एक छोटी चिनगारी ने यदि इस विद्रोह का इतना विस्तार कर दिया तो वह संगठित कार्य नहीं हो सकता। कुछ लोगों ने इस विप्लव को आरम्भ किया और फिर बाद में अन्य लोगों तथा वर्गों का सहयोग इसमें मिलता गया और यह एक बहुत बड़े आकार का जन-आन्दोलन बन गया। कुछ क्रान्तिकारियों ने देश की अशांतमय परिस्थितियों का लाभ उठाकर एक सशस्त्र क्रान्ति द्वारा भारत से अंग्रेजों को निकालने की योजना बनाना शुरू किया था।
(i) क्रान्ति के संगठन की पृष्ठभूमि के निर्माता- क्रान्ति के संगठन की पृष्ठभूमि के निर्माण का कार्य कुछ असन्तुष्ट नेताओं जैसे नाना साहब, तात्या टोपे, बादशाह बहादुरशाह, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई तथा कुँवरसिंह आदि लोगों ने आरम्भ किया था। अंग्रेजों ने तो नाराज होकर नाना साहब की पेंशन बन्द कर दी थी और नाना साहब ने पेंशन की पुनः प्राप्ति के लिये अपने मन्त्री अजीमुल्ला खाँ को इंग्लैण्ड भेजा। इंग्लैण्ड में अजीमुल्ला खाँ की भेंट सतारा राज्य के वकील ‘रंगाबापू’ से हुई। दोनों ने एक सशस्त्र क्रान्ति की योजना बनाई और भारत आ गये। भारत में नाना साहब से मिलकर यहाँ की जनता में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की भावना को प्रारम्भ कर दिया। इस क्रान्ति का नेतृत्व करने के लिये उन्होंने मुगल बादशाह बहादुरशाह को चुना। उन्होंने दिल्ली, लखनऊ, झाँसी, मैसूर व अवध के असन्तुष्ट राजाओं, नवाबों तथा जमींदारों से पत्र-व्यवहार किया। फिर तो यह एक विशाल संगठन बन गया। क्रान्तिकारियों ने अपने विचारों के प्रसार का माध्यम कमल का फूल और रोटी बनाया। सेना में कमल के फूल और रोटी को घुमाया गया। नाना साहब तथा उनके मन्त्री अजीमुल्ला खाँ ने तीर्थयात्रा के बहाने सारे भारत में भ्रमण किया। हिन्दू मुसलमान दोनों ने ही अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति में सहयोग देने का वचन दिया। 31 मई, 1857 क्रान्ति की तिथि निर्धारित की गई।
(ii) क्रान्ति के संगठन में सहयोग देने वाली परिस्थितियां– सन् 1857 के प्रारम्भिक दिनों तक लगभग सभी भारतीय प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ब्रिटिश शासन को चुनौती देने को तैयार हो गये थे। सम्पूर्ण देश में जन-साधारण में उत्तेजना एवं असन्तोष व्याप्त था जिसका रूप को विद्रोह के समय भारत के कुछ भागों द्वारा एक खुले एवं स्पष्ट युद्ध का होना जिसमें कि लाखों लोगों तथा हजारों सैनिकों ने भाग लिया था, मिलता है। देश में कुछ स्थानों पर ऐसी परिस्थितियाँ थीं जहाँ कि सशस्त्र विद्रोह हो सका तथा कुछ स्थानों पर ऐसी परिस्थितियाँ थीं कि केवल नागरिक उपद्रव होकर ही रह गये। इस प्रकार इस अनियमित एवं अव्यवस्थित संगठन का प्रभाव तो सारे देश में पड़ा था जिससे भारत के प्रत्येक क्षेत्र में अंग्रेज शासकों की नींद हराम हो गई थी और विद्रोह का भय बना हुआ था। जहाँ कहीं यह असन्तोष विद्रोह के रूप में नहीं फूटा तो कम से कम वहाँ अशान्ति तो बनी ही रही थी। केवल मात्र पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त मध्यम वर्ग ने इस विद्रोह को समर्थन नहीं दिया। परन्तु उनकी संख्या बहुत कम थी वह भी प्रेसीडेन्सी की राजधानियों तक ही सीमित थी।
(iii) अव्यवस्थित संगठन के कारण 1857 की क्रान्ति समय से पूर्व- क्रान्तिकारियों ने क्रान्ति की तिथि 31 मई,1857 निर्धारित की थी, परन्तु क्रान्ति अव्यवस्थित तथा अनुशासित नहीं थी। अतः यह क्रान्ति समय से पहले ही आरम्भ हो गई। कारतूसों में चर्बी लगी होने की चर्चा से सैनिकों का धैर्य ही जाता रहा। सबसे पहले बैरकपुर छावनी बंगाल के सैनिकों ने चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग करने से इन्कार कर दिया। इस पर अंग्रेजों ने उनके वस्त्र छीन लिये तथा पिच्चासी सैनिकों को सेवा से बर्खास्त कर दिया और कुछ को कारावास का दण्ड देकर हथकड़ियाँ पहना दीं। इसी दण्ड पर जोश में आकर 29 मार्च, 1857 को मंगल पाण्डे नामक एक सैनिक ने एक अंग्रेज अफसर की हत्या कर दी। जब दूसरे अफसर ने उसको पकड़ने की कोशिश की तो उसकी भी उसने हत्या कर दी। उसको पकड़ कर बन्दी बना दिया गया और अभियोग चलाकर 8 अप्रैल, 1857 को उसको फाँसी दे दी गई। इसके पश्चात तो यह विद्रोह फैलता ही गया।
(2) विद्रोह का स्वरूप-
सन् 1857 के विद्रोह या क्रान्ति के स्वरूप के सम्बन्ध में विद्वानों तथा इतिहासकारों में काफी मतभेद है। अलग-अलग विद्वानों ने इसको अलग-अलग दृष्टिकोण से देखा है तथा इसको अलग-अलग नाम दिये हैं।
(1) 1857 का विप्लव- एक सैनिक विद्रोह-कुछ विद्वानों की धारणा है कि यह क्रान्ति न होकर केवल एक सैनिक विद्रोह था। अंग्रेज इतिहासकारों ने 1857 के विस्फोट को केवल सैनिकों का विद्रोह ही बताया है। इसे सिपाही विद्रोह का नाम भी इसीलिए दिया क्योंकि उस समय के भारत सचिव, अर्ल स्टेनले ने ब्रिटिश पार्लियामेंट को 1857 की घटनाओं की रिपोर्ट देते समय उसे केवल सिपाही विद्रोह का नाम दिया था। फिर तो अनेक अंग्रेज लेखकों ने इसका अनुसरण किया और इसे एक सिपाही विद्रोह ही कहा। उनका कहना था कि यह केवल थोड़े से असन्तुष्ट सैनिकों का विद्रोह था जिसे थोड़े-से असन्तुष्ट राजाओं, नवाबों था जमींदारों की सहानुभूति तथा सहायता प्राप्त हुई। यह भारत के थोड़े से क्षेत्र में फैला तथा सैनिकों की सहायता से घोड़े से समय में ही इसका दमन कर दिया गया। अतः ये विद्वान् 1857 की घटनाओं को राष्ट्रीय आन्दोलन या स्वतन्त्रता संग्राम या जनता की क्रान्ति नहीं मानते। इस विद्रोह द्वारा खोई हुई स्वतन्त्रता प्राप्त करने की कोई संगठित योजना नहीं थी। भारतीय सेना का एक बहुत बड़ा अंग अंग्रेजों का स्वामिभक्त बना रहा और इन्होंने विद्रोह का दमन करने में अंग्रेजों का साथ दिया। गोरखा और सिखों ने अंग्रेजों का पूरा साथ दिया।
सर जान लारेन्स के अनुसार “यह केवल एक सैनिक विद्रोह था जिसका तत्कालीन कारण कारतूस वाली घटना थी। इसका कोई सम्बन्ध किसी पूर्वगामी षड्यन्त्र से नहीं था, यद्यपि बाद में कुछ असन्तुष्ट व्यक्तियों ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये इससे लाभ उठाया।”
आलोचना- अधिकांश भारतीय इतिहासकार 1857 के विद्रोह को सैनिकों का विद्रोह नहीं मानते। इन विद्वानों का कहना है कि उस समय तीन प्रान्तीय सेनाओं में से केवल एक ने विद्रोह किया था और किसी भी समय चौथाई भारतीय सैनिकों से अधिक ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह नहीं किया। इसके अतिरिक्त 1857 के विद्रोह में सैनिकों के अतिरिक्त असैनिकों ने भी बड़ी संख्या में भाग लिया था। सैनिकों के दमन के पश्चात् भी नागरिकों ने विद्रोह का झण्डा ऊँचा रखा। अनेक स्थानों पर जनता ने पहले विद्रोह किया और बाद में सेना ने। अतः 1857 के विद्रोह को केवल सैनिक विद्रोह कहना उचित नहीं है।
(ii) विद्रोह एक षड्यन्त्र के रूप में- कुछ विद्वानों के अनुसार यह विद्रोह एक षड्यन्त्र था। कुछ के अनुसार यह सिपाहियों का षड्यन्त्र था, कुछ ने इसके पीछे रूस तथा ईरान का हाथ बताया और कुछ ने इसे बहादुरशाह नाना साहब और लक्ष्मीबाई का षड्यन्त्र कहा है। जेम्स औट्रम का मत है कि 1857 का विद्रोह भारतीय मुसलमानों का षड्यन्त्र था जो अंग्रेजी सत्ता को नष्ट करके पुनः मुस्लिम सत्ता को स्थापित करना चाहते थे। वे दिल्ली के मुगल बादशाह बहादुरशाह को पुनः गद्दी पर बिठाना चाहते थे। औट्रम के अनुसार अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये भारतीय मुसलमानों ने हिन्दुओं के असन्तोष से पूरा लाभ उठाने का प्रयल किया। मुसलमान इस कारण नाराज थे कि अंग्रेजों ने मुस्लिम सत्ता का अन्त करके अपना शासन स्थापित कर लिया था। अतः भारतीय मुसलमान मुगल-सम्राट बहादुरशाह के नेतृत्व में सारे भारत पर मुस्लिम सत्ता पुनः स्थापित करना चाहते थे।
आलोचना– अधिकांश भारतीय इतिहासकार 1857 के विद्रोह को भारतीय मुसलमानों का षड्यन्त्र नहीं मानते। वास्तव में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही अंग्रेजों के अत्याचारपूर्ण शासन से असन्तुष्ट थे। दोनों ही जातियाँ अंग्रेजी शासन को भारत के लिए विनाशकारी मानती थी। यही कारण है कि हिन्दुओं और मुसलमानों ने बिट्रिश शासन से मुक्ति पाने के लिये मिल- जुल कर संघर्ष किया था। इस विद्रोह का नेतृत्व करने वाले नाना साहब, झाँसी की रानी, तात्या टोपे आदि हिन्दू ही थे। अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि बहादुरशाह जफर, नाना साहब और लक्ष्मीबाई आदि के बीच जो पत्र व्यवहार हुआ, वह नियोजित षड्यन्त्र का भाग न होकर, चर्बी वाले कारतूसों के सम्बन्ध में था। अतः इसे मुसलमानों का षड्यन्त्र कहना उचित नहीं है।
(iii) क्रान्ति का सामन्ती रूप- कुछ विद्वानों के अनुसार 1857 की क्रान्ति का स्वरूप सामन्तवादी था। कुछ स्वार्थी और असन्तुष्ट सामन्तों और जमींदारों ने इस विद्रोह में प्रमुख रूप से भाग लिया था। डॉ० ताराचन्द के अनुसार “यह विद्रोह मध्य युगीन विशिष्ट वर्गों का अपनी खोई हुई सत्ता को प्राप्त करने का अन्तिम प्रयास था।”
आलोचना- 1857 के विद्रोह को सामन्तों का विद्रोह करना उचित नहीं है। इस विद्रोह में सामन्तों, जमींदारों के अतिरिक्त अन्य वर्गों के लोगों ने भी उत्साहपूर्वक भाग लिया था। यह कहना भी उचित नहीं है कि सभी सामन्तों और जमींदारों ने केवल अपने स्वार्थों और हितों की पूर्ति के लिये इस विद्रोह में भाग लिया था। प्रो० एस०बी० चौधरी के अनुसार यह विद्रोह केवल सामन्तीय विद्रोह नहीं था।
(iv) सन् 1857 की क्रान्ति भारतीय स्वतन्त्रता का पहला संग्राम- उपर्युक्त तथ्यों से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि 1857 के विद्रोह को केवल सिपाही विद्रोह कहना बिल्कुल गलत है। अनेक भारतीय इतिहासकारों जैसे वीर सावरकर, अशोक मेहता आदि ने इसको ‘भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम’ की संज्ञा प्रदान की है। उनका कहना है कि इस आन्दोलन में हिन्दुओं तथा मुसलमानों ने समान रूप से भाग लिया और दोनों ही जातियों के नेताओं ने क्रान्तिकारियों का नेतृत्व ग्रहण किया और कन्धे से कन्धा मिलाकर युद्ध किया। विद्रोहियों को समस्त भारतीयों की हार्दिक सहानुभूति प्राप्त थी और जिन लोगों ने क्रान्ति में हिस्सा नहीं लिया वे अपनी परिस्थितियों से विवश होकर तटस्थ बने रहे, परन्तु हृदय से वे भी चाहते थे कि भारत में अंग्रेजी राज्य उन्मूलित हो जाये। उन दिनों जब यातायात के साधनों में इतनी अधिक वृद्धि नहीं हो पाई थी, भारत जैसे विशाल देश में क्रान्ति को सर्वव्यापी बनाना सम्भव नहीं था। किसी भी क्रान्ति का सूत्रपात जन-साधारण से आरम्भ नहीं होता, बल्कि मध्यम वर्ग के पढ़े-लिखे लोग इसका सूत्रपात करते हैं और क्रान्ति की कुछ प्रगति हो जाने पर जनता उसमें कूद पड़ती है। 1857 के विद्रोह में उच्च वर्ग तथा मध्यम वर्ग के लोग निश्चित रूप से सम्मिलित हुए थे और यदि क्रान्ति का सफलतापूर्वक संचालन होता तो साधारण जनता भी इसमें अवश्य कूद पड़ी होती और यह क्रान्ति का रूप धारण कर लेती। इस तरह जब हम क्रान्ति के अन्तः स्थल में जाकर भारतीयों के विचारों और उनकी भावनाओं को देखते हैं तब यह विद्रोह हमें राष्ट्रीय क्रान्ति के रूप में दिखाई देता है। इसी कारण इसे भारतीय स्वाधीनता के प्रथम सशस्त्र संग्राम के रूप में याद किया जाता है।
पण्डित नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘भारत एक खोज’ में लिखा है-“वह केवल एक सैनिक विद्रोह नहीं था। वह भारत में शीघ्र फैल गया तथा उसने जन-विद्रोह और भारतीय स्वाधीनता के संग्राम का रूप धारण कर लिया।”
जस्टिस मेकार्थी के शब्दों में, “वह युद्ध एक राष्ट्रीय और धार्मिक युद्ध है।”
इतिहासकार इन्स ने लिखा है- “कम से कम अवध निवासियों के संग्रामों को हमें स्वाधीनता का युद्ध मानना पड़ेगा।”
लन्दन टाइम्स का विशेष प्रतिनिधि सर विलियम हरवर्ड रसल जो सन् 1857 की क्रान्ति के समय भारत में मौजूद था, उसके विषय में लिखता है, “वह एक ऐसा युद्ध था जिसमें लोग अपने धर्म के नाम पर बदला लेने के लिये और अपनी आशाओं को पूरा करने के लिये उठे थे। उस युद्ध में सम्पूर्ण राष्ट्र ने अपने ऊपर से विदेशियों के जुए को फेंक कर उसकी जगह देशी नरेशों की पूरी सत्ता और देशी धर्मों का पूरा अधिकार फिर से कायम करने का संकल्प कर लिया था।”
अशोक मेहता का कथन है कि “1857 के विद्रोह का स्वरूप राष्ट्रीय था, यद्यपि विद्रोह के मुख्य पात्र सैनिक थे। यह भी सत्य है कि सैनिकों के अतिरिक्त लाखों नागरिकों ने भी इस विद्रोह में भाग लिया था। मारे गए नागरिकों की संख्या भी उतनी ही बड़ी थी, जितनी मारे गए सैनिकों की थी। वे लोग इस संघर्ष में अपने देश को स्वतन्त्र कराने के लिये ही सम्मिलित थे, अपने कष्टों को दूर करने के लिये नहीं।”
1857 के क्रान्ति को भारतीय स्वाधीनता का युद्ध कहे जाने के कारण
(1) यह क्रान्ति एक निश्चित आधार पर की गई थी। इसका प्रमुख उद्देश्य अंग्रेजों को भारत से निकालना था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये भारतीय सेना में लाल कमल का फूल- घुमाकर क्रान्ति का सन्देश दिया गया था कि हमको स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए रक्त बहाना होगा।
(2) इस क्रान्ति में हिन्दू और मुसलमान दोनों ने ही मिलकर काम किया था। इसमें साम्प्रदायिकता को कोई स्थान नहीं दिया गया था।
(3) मुगल सम्राट बहादुरशाह के द्वारा राजपूत राजाओं के नाम लिखित पत्र भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के द्वारा अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने की बात की पुष्टि करता है। मुगल सम्राट ने लिखा था कि, “मेरी यह हार्दिक इच्छा है कि किसी भी प्रकार अंग्रेजों को भारत से बाहर निकाल दिया जाए। मेरी इच्छा भारत पर शासन करने की नहीं है। अगर आप सभी देशी राजा दुश्मन को देश से बाहर निकालने के लिये लोहा लें, तो में अपनी सारी शाही शक्ति और अधिकार देशी नरेशों के किसी संघ के हाथ सुपुर्द कर देने को तैयार हूँ।”
इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक
- 1857 के विप्लव के कारण | भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम | 1857 की क्रान्ति के कारण
- 1857 की क्रान्ति | 1857 के क्रान्ति की असफलता के कारण | 1857 के क्रान्ति के परिणाम | 1857 के क्रान्ति की असफलता
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