इतिहास

जापानी सैन्यवाद | जापानी सैन्यवाद का विस्तार | रूस-जापान युद्ध 1905 | प्रथम विश्व युद्ध और जापान

जापानी सैन्यवाद | जापानी सैन्यवाद का विस्तार | रूस-जापान युद्ध 1905 | प्रथम विश्व युद्ध और जापान

जापानी सैन्यवाद

सातवीं शताब्दी तक जापान बहुत से छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था और ये सब छोटे राज्य एक जापानी सम्राट को अधीनता को स्वीकार करते थे। जापान में राजा के अधिकारियों और कर्मचारियों को अपना निर्वाह करने के लिए जागीर देने की प्रथा थी। इसके परिणामस्वरूप वहाँ जापान में सामन्त पद्धति का विकास हुआ। इस सामन्ती प्रथा के परिणामस्वरूप एक ऐसी श्रेणी का निर्माण शुरू हुआ, जिसका कार्य ही सैनिक सेवा था। बारहवीं शताब्दी में सम्राट योरीतोमा के समय से जापान में शक्तिशाली सामन्तों का काल आरम्भ होता है। इनका वैधानिक ढाँचा तथा मूल आधार 1232 ई० को ‘जोई संहिता’ (Code of Joei) के अनुसार निर्धारित किया गया था। इस समय से “शोगुन’ का पद एक महत्वपूर्ण सेनिक पद् माना जाने लगा, जो सेना का सर्वोच्च अधिकारी होता था। राजा इस शोगुन के माध्यम से ही शासन व्यवस्था चलाता था। 1630 ई० में तोकूगावा वंश का इमीयासू प्रथम शोगुन नियुक्त हुआ। इसी समय से जापान की सरकार का स्वरूप सैनिक बन गया। धीरे-धोरे जापान में एक ऐसी व्यवस्था का विकास हुआ, जो मध्यकालीन यूरोप के सामन्तवाद से मिलती-जुलती थी और इसी के समान अपने स्वरूप एवं आदशों में सैन्य प्रधान थी। इस व्यवस्था का ‘बाकुफू (Bakufu) नाम तथा इसके अध्यक्ष की ‘शोगुन’ (Shogun) उपाधि, दोनों ही मूलतः सैन्य है।

शोगुनों के अधीन सैनिक सामन्त या ‘दाइम्यो’ का पद था। दाइम्यो के साथ छोटे सरदार थे, जिनमें विशेष रूप से ‘समुराई’ या सैनिक वर्ग सम्मिलित था। इनको यह पदवी वंशानुगत होती थी। अधिकांश सैनिक किसी न किसी सामन्त या शोगुन के प्रति पूर्ण निष्ठा रखते थे। जापान में सैनिक वर्ग की नीति-संहित भी थी, जिसको ‘बूशोदो’ (Bushido) कहा जाता था।

राष्ट्रीय सेना का गठन- उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक शोगुन प्रथा इसी तरह चलती रही। 1868 ई० में ‘मेइजी’ ने शोगुन प्रथा का अन्त कर जापान का शासन सूत्र अपने हाथों में ले लिया था। इसके बाद सम्राट ने स्वयं प्रशासन को सुचारू रूप से चलाया। अगले 50 वर्षों में एक नये युग का सूत्रपात् हुआ, जिसने जापान को विश्व की एक बड़ी शक्ति बना दिया। सम्राट के द्वारा किये गये कार्य हो “मेइजी पुनःस्थापना” के मूल तत्व थे। सामन्त पद्धति का अन्त करते ही जापान की सरकार ने नई सेना का संगठन किया। अब तक जापान की सेना का गठन समुराई लोगों द्वारा ही होता था और ये समुराई विभिन्न सामंतों की सेवा में रहकर सैनिक कार्य किया करते थे। साधारण जनता को यह अवसर नहीं दिया जाता था कि वे सेना में भर्ती हो सके। किन्तु मेइजी ने सामन्ती सेना के स्थान पर राष्ट्रीय सेना का गठन किया, जिसमें योग्यता के अनुसार पद प्राप्त होते थे। 1872 में जापान में अनिवार्य सैनिक सेवा को आरम्भ किया गया, जिसके अनुसार सभी वर्ग के लोगों के लिए सैनिक सेवा अनिवार्य थी। अनिवार्य सैनिक सेवा में अधिकतर सैनिक कृषक वर्ग के तथा छोटे अधिकारी छोटे-छोटे जमींदार घरानों के थे। किन्तु जल सेना का संगुठन् इतने प्रजातांत्रिक ढंग पर नहीं हुआ था। अधिकतर नौसैनिक अधिकारी सम्भ्रान्त परिवारों से तथा सैनिक विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों में रहने वाले परिवारों से लिये गये थे। थल सेना की तरह वे किसी समूह विशेष से सम्बन्धित नहीं थे। इससे जापान के जीवन में एक क्रांतिकारी परिवर्तन आया।

इस प्रकार उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में सैनिक मनोवृत्ति का विकास हो चुका था मेइजी शासन काल में जापान की सैनिक शक्ति में अत्यधिक वृद्धि हुई क्योंकि इस समय तक जापान में व्यापारिक उत्पादन में वृद्धि हो चुकी थी। अतः अतिरिक्त माल को बेचने तथा बढ़ती हुई आबादी को बसाने के लिए सैनिक शक्ति का सहारा लिया गया। जापान ब्रिटिश नाविक शक्ति के समकक्ष अपनी शक्ति को बढ़ाना चाहता था।

नवीन सैनिक शक्ति का परीक्षण एवं चीन-जापान युद्ध- जापान चीन का पड़ोसी राज्य था। इसलिए उसकी दृष्टि में चीन पर आधिपत्य स्थापित करने का उसका स्वतः सिद्ध अधिकार था। चीन का जो अधीनस्थ प्रदेश जापान के सबसे नजदीक था, वह कोरिया का राज्य था। मेइजी युग के पुनस्थापना के पश्चात् जापान कोरिया से वैसा ही व्यवहार करने लगा था, जैसा व्यवहार पैरों ने जापान के साथ किया था। जापान इस पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहता था। कोरिया पर आक्रमण करने के कई कारण थे- (1) जापान अपनी नवीन सैनिक शक्ति का परीक्षण करना चाहता था, (2) उस समय कोरिया के शासक कमजोर, अयोग्य और निकम्मे थे, साथ ही उनमें आपसी संघर्ष भी चल रहा था, (3) इसके अतिरिक्त कोरिया 99 प्रतिशत विदेशी व्यापार जापान के साथ होता था। वह धीरे-धीरे नौसेना और स्थल सेना तैयार कर पोर्टआर्थर पर एक विशाल नौसैनिक अड्डा बनाना चाहता था। जब 1884 तथा 1894 में कोरिया में विद्रोह हुए, तो उन्हें दबाने के लिए उसने चीन से सहायता मागी थी। चीन ने एक सेना कोरिया भेजी थी। जापान ने चीन पर संधि का उल्लंघन करने के आरोप में एक जापानी सेना कोरिया में भेज दी। जापान कोरिया के प्रश्न पर चीन से संघर्ष चाहता था। वह इस संघर्ष के बल पर यूरोप के देशों को यह बतला देना चाहता था कि पूर्वी एशिया की राजनीति में उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। 1894 में कोरिया केवल जापान और चीन की ही चिन्ता का विषय नहीं था। वह यूरोपीय देशों की प्रतिद्वन्द्विता और एशियाई विरोधों का केन्द्र बन गया था। इंग्लैण्ड की नीति का मुख्य उद्देश्य रूस को कोरिया में पैर जमाने तथा बर्फ रहित बन्दरगाह प्राप्त करने से रोकना था। चीन, जापान की इस प्रगति को रोकना चाहता था। अतः जब जापान ने कोरिया में वित्तीय, प्रशासकीय और सैनिक सुधारों के लिए संयुक्त चीन-जापानी कार्यवाही का प्रस्ताव रखा तो चीन ने इस प्रस्ताव का विरोध किया क्योंकि वह नहीं चाहता था कि जापान कोरिया में कोई हस्तक्षेप करे। अतः कोरिया के प्रश्न पर चीन-जापान युद्ध । अगस्त, 1894 को आरम्भ हो गया।

शिमोनोस्की की संधि- कोरिया के प्रश्न पर चीन-जापान युद्ध नौ माह तक चला। जल और थल दोनों स्थानों पर जापान की विजय हुई । जापान की सेना सुसंगठित, सुशिक्षित, आनुशासित और आधुनिकतम हथियारों से लैस थी। इसके विपरीत चीनी सेना अव्यवस्थित थी। ऐसी स्थिति में चीन को बाध्य होकर संधि के लिए प्रार्थना करनी पड़ी । दोनों देशों के बीच शिमोनोस्की की संधि के द्वारा युद्ध का अन्त हुआ। इस संधि में निम्नलिखित बातें तय की गई:-

(i) चीन ने कोरिया की स्वाधीनता को मान लिया।

(ii) चीन को फारमोसा द्वीप, पेसकाडोत्स तथा लियाओतुंग प्रायद्वीप जापान को देना पड़ा। लियाओतुंग प्रायद्वीप में ही पोर्ट आर्थर का महत्वपूर्ण बन्दरगाह था।

(iii) चीन ने युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में 45 करोड़ रुपया (30 करोड़ तायल) जापान को देना स्वीकार किया तथा,

(iv) चीन ने जापान के व्यापार के लिए सांसी, चुंगकिंग, शू चाठ, हंगचाऊ, के शहर खोल दिये।

ऐंग्लो-जापानी संधि जापान का अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर महत्व- चीन-जापान युद्ध के बाद जापान के राजनीतिज्ञों में दो प्रकार के विचार कार्य कर रहे थे। एक पक्ष रूस के साथ संधि करके अपने देश को स्थिति मजबूत करना चाहता था, तो दूसरे मत के लोग इंग्लैण्ड के साथ संधि करने के पक्ष में थे। रूस तथा ब्रिटेन दोनों ही ऐशिया में साम्राज्य प्रसार का कार्य कर रहे थे। रूस बाल्कन प्रायद्वीप में अपना प्रभाव बढ़ा रहा था और उसी कारण क्रीमिया का युद्ध हुआ था। ब्रिटेन अपने भारतीय साम्राज्य तथा चीन के आर्थिक स्वार्थ के कारण रूस का प्रभाव एशिया में रोकना चाहता था । इस कारण जापान की तरह ब्रिटेन भी किसी एशियाई शक्ति के साथ समझौता करने के पक्ष में था ताकि एशिया में उसकी शक्ति सुरक्षित रह सके। अतः 1902 में जापान और ब्रिटेन के बीच एक संधि हुई, जिसके अनुसार दोनों  पक्षों ने चीन को अखण्डता और पूर्वी एशिया की स्थिति को यथावत बनाये रखनए का आश्वासन दिया। जापान ने चीन में इंग्लैण्ड के हितों और इंग्लैण्ड ने कोरिया में जापान के हितों को स्वीकार कर लिया। यह भी निश्चित किया गया कि दोनों में से किसी एक पर अन्य देश के आक्रमण होने पर दूसरा देश् तटस्थ रहेगा। किन्तु यदि आक्रमण करने वाली शक्तियां एक से अधिक हों, तो दोनों देश एक-दूसरे की मदद करेंगे। जापान के लिए इस संधि का अर्थ था कि अगर कभी उसका रूस से युद्ध हुआ और फ्रांस या जर्मनी ने या दोनों ने रूस का साथ दिया, तो इंग्लैण्ड जापान का साथ निभायेगा। प्रारम्भ में यह संधि 5 वर्ष के लिए की गई और सुदूर पूर्व तक ही सीमित रही।

इस संधि के द्वारा जापान यूरोपीय देशों के समान स्तर का देश समझा जाने लगा। यह पहला अवसर था, जिसमें किसी पश्चिमी शक्ति ने एशियाई शक्ति के महत्व को स्वीकार कर उससे समानता के आधार पर संधि की थी। अब जापान रूस के प्रति आक्रामक नीति अपना कर उससे बदला ले सकता था। इस संधि से जापान को अन्तर्राष्ट्रीय महत्व प्राप्त हुआ।

रूस-जापान युद्ध (1905)

रूस-जापान युद्धवस्तुतः आंग्ल-जापानी संधि का परिणाम था। बॉक्सर विद्रोह के बाद रूस मंचूरिया में किसी न किसी बहाने अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता था। अन्य साम्राज्यवादी देशों ने इसका विरोध किया। रूस से सबसे अधिक खतरा ब्रिटेन तथा जापान को था। 1902 की संधि के कारण रूस ने अपनी मंचूरिया सम्बन्धी नीति में कुछ परिवर्तन किये। 1902 के मंचूरिया समझौते के अनुसार रूस ने मंचूरिया से अपनी सेना हटाने का वादा किया, लेकिन वह इस वादे को पूरा करने के लिए तैयार नहीं था। वह सिर्फ मंचूरिया के एक कोने से अपनी सेना हटा कर दूसरे कोने में इकट्ठा कर देता था। कुछ दिनों पश्चात् रूस ने अपनी सेनाएं हटाने से इनकार कर दिया। उसने चीन से यह मांग भी की कि वह रूस को मंचूरिया में आर्थिक एकाधिपत्य स्थापित करने की अनुमति दे देवे ।

यह युद्ध जापान की दूसरी बड़ी सैनिक सफलता थी। युद्ध आरम्भ होने से पूर्व जापान ने जितनी आशा की थी, उससे अधिक लाभ प्राप्त हुआ। इंग्लैण्ड के लिए खुशी की बात थी कि उसका शत्रु रूस पराजित हुआ। इस युद्ध के बाद जापान की गणना संसार के शक्तिशाली राष्ट्रों में होने लगी। जापान की विजय से एशियावाद के नारे का जन्म हुआ-‘एशिया एशियावालों के लिए है। इस युद्ध का प्रभाव रूस पर भी पड़ा। रूसी निरंकुश शासन का खोखलापन् विश्व के सामने प्रकट हो गया। अब रूस का, चीन की ओर विस्तार रुक गया। हंस कोहनय ने ‘ए हिस्ट्री ऑफ नेशनलिज्म इन द ईस्ट’ में जापान की इस विजय के सम्बन्ध में लिखा है, “जापान जैसे छोटे देश ने सैनिक शक्ति में रूस जैसे अत्यन्त शक्तिशाली राष्ट्र को भी पराजित कर दिया, जो सदियों से निरन्तर एक के बाद दूसरे एशियाई देश को पराजित करने में संलग्न था। इस वास्तविकता ने एशिया की राजनीतिक विचारधाराओं में एक क्रान्ति उत्पन्न कर दी क्योंकि पहली बार ही ऐसा आभास मिला कि यूरोपीय देशों की विजयपूर्ण प्रगति का मार्ग अवरुद्ध हो गया।

प्रथम विश्व युद्ध और जापान-

प्रथम महायुद्ध के पूर्व जापान के साम्राज्य में दक्षिणी सखालीन, रिक्युक्यु द्वीप, लियाओंतुंग, कोरिया तथा दक्षिणी मंचूरिया के प्रदेश सम्मिलित हो चुके थे। प्रथम विश्व युद्ध जापान के लिए एक अच्छा अवसर था। जापान ने 1914 से पूर्व तक अपूर्व आर्थिक प्रगति कर ली थी। फारमोसा ने चीनी तम्बाकू और रूई कच्चे माल के रूप में प्राप्त होती थी। 1910 में जापान ने कोरिया पर अधिकार करके उसे अपने अधीन कर लिया था। जापान में पूजीवादी प्रवृत्ति बढ़ रही थी। वे चीन में भी अपना आर्थिक सामाज्य स्थापित करने का स्वप्न देख रहे थे। प्रथम विश्व युद्ध में जापान को यह अवसर प्राप्त हुआ क्योंकि 1917 तक अमेरिका को छोड़कर कोई भी यूरोपीय देश जापान की शक्ति का विरोध करने की स्थिति में नहीं था।

जुलाई, 1914 में महायुद्ध आरम्भ हुआ। जापान भी इसमें सम्मिलित होना चाहता था। अतः उसने 15 अगस्त, 1914 को जर्मनी को चेतावनी दी कि वह सिंगटाओं और शान्तुंग प्रान्त के सभी जर्मन अधिकार डेढ़ माह में जापान को सौंप दें क्योंकि जापान उन्हें चीन को लौटाना चाहता था। यदि एक सप्ताह में जर्मनी ने इसे स्वीकार नहीं किया, तो जापान युद्ध की घोषणा कर देगा। जर्मनी ने जापान की धमकी का विरोध किया। फलस्वरूप 23 अगस्त, 1914 को जापान ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की और वह मित्र राष्ट्रों से मिल गया। जापान ने तुरन्त सिंगटाओं में अपनी सेना भेज दी। जापानी सेना चीनी क्षेत्र से होकर सिंगटाओं पहुंची। यद्यपि चीन ने अपनी तटस्थता की घोषणा कर दी थी परन्तु सारी सैनिक कार्यवाही चीनी क्षेत्र में ही हो रही थी और चीन अपनी निर्बलता के कारण जापान का विरोध करने की स्थिति में नहीं था। जापान ने सिंगटाओ के अतिरिक्त शान्तुंग प्रदेश में भी जर्मन रेलों और खानों पर अधिकार कर लिया।

प्रथम विश्व युद्ध से जापान को बहुत लाभ हुआ। जापान ने इस युद्ध के विस्तृत क्षेत्र में भाग न लेकर अपने को सुदूर-पूर्व में ही सीमित रखा। इसलिए युद्ध में होने वाली हानियों से भी वह बचा रहा। इसके अतिरिक्त युद्ध में यूरोपीय देशों को युद्ध सामग्री और हथियार बेचकर उसने अपने उद्योगों का विकास करके पर्याप्त मात्रा में लाभ भी कमाया। किन्तु जापान की यह औद्योगिक प्रगति इंग्लैण्ड के लिये चिन्ता का विषय बन गयी क्योंकि उद्योग के क्षेत्र में अब उसे पूर्व का इंग्लेण्ड कहा जाने लगा था।

जापान और अमेरिका के बढ़ते मतभेद (1894-1921)-

सन् 1894 के बाद अमेरिका के साथ जापान के सम्बन्धों में परिवर्तन हो रहा था। जापान में पैरी के आगमन के बाद से दोनों देशों का एक दूसरे के प्रति मित्रतापूर्ण रुख रहा। जापान को कभी इस बात पर संदेह नहीं हुआ कि अमेरिका को सुदूर-पूर्व में किसी भी तरह की प्रादेशिक महत्वाकांक्षा है। बॉक्सर युद्ध के पश्चात् दोनों देों ने मंचूरिया में ‘मुक्त द्वार नीति को कायम रखने के लिए परस्पर सहयोग दिया। रूस के विरुद्ध युद्ध में जापान के साथ अमेरिका की पूर्ण सहानुभूति थी। अमेरिका ने जापान को धन कर्ज के रूप में भी दिया था। अमेरिका के राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट ने जहाँ तक सम्भव था अपनी सरकार के समर्थन का आश्वासन दिया। इसके बदले में जापान अमेरिका को पश्चिम का ऐसा शक्तिशाली देश समझता था, जिससे उसे किसी तरह के भय की आशंका नहीं थी। किन्तु जापान और अमेरिका के बीच 1905 के अन्त में मतभेद आरम्भ हो चुके थे। जापान की जनता का एक वर्ग पोर्टस्माउथ की अप्रिय संधि की शतों के लिए अमेरिका को उत्तरदायी समझता था। यह संधि रूस के साथ चल रहे युद्ध की समाप्ति पर हुई थी। सम्भवतः उनकी यह मामूली सी नाराजगी शीघ्र ही समाप्त हो जाती अगर उन्हीं दिनों कुछ और कारण उत्पन्न न होते। दोनों देशों के बीच मतभेद के प्रमुख कारण इस प्रकार थे-

(1) जापानियों के अप्रवास पर नियंत्रण- प्रशान्त सागर के तटवर्ती अमेरिकी राज्यों में अपने विकास कार्यों के लिए सस्ते मजदूरों की आवश्यकता थी। अमेरिकी कांग्रेस ने चीन के अकुशल मजदूरों का बहिष्कार कर दिया था और यूरोप के देशों के लिए नये अप्रवासियों ने अभी इतनी दूर समुद्र पार आना आरम्भ नहीं किया था। जापान के अकुशल मजदूरों को अमेरिका के पश्चिमी तटवर्ती प्रदेश पर जापान की अपेक्षा अधिक मजदूरी पर रोजगार के लिए उन्मुक्त क्षेत्र प्राप्त हो गये थे। अतः बड़ी संख्या में मजदूरों की टोलियाँ व्यापारियों तथा व्यावसायिकों के साथ या उनके पीछे पीछे प्रशान्त महासागर के तटवर्तीग प्रदेशों में विशेष रूप से कैलिफोर्निया में प्रविष्ट हुई। 1898 के बाद टनोंने अमेरिका में भी पहुंचना आरम्भ कर दिया था।

(2) जापान व अमेरिका के परस्पर विरोधी आर्थिक स्वार्थ- जापान व अमेरिका के बीच संघर्ष का एक अन्य कारण सुदूर-पूर्व में दोनों देशों के हितों में विरोध होना था। अमेरिका ने 1898 में फिलीपीन पर अधिकार कर लिया और हवाई द्वीप को भी अपने प्रदेश में मिला लिया था। कुछ समय बाद अमेरिका ने चीन के ‘मुक्त द्वार के सिद्धान्त का पोषण शुरू कर दिया, जिससे जापान के संदेह को और अधिक पुष्टि मिली।

(3) मित्रराष्ट्रों का पूर्वी साइबेरिया अभियान- प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद कुछ वर्षों में अमेरिका और जापान के बीच मतभेदों के कुछ और कारण सामने आये, जिसने दोनों देशों के बीच चल रहे अशान्त वातावरण को और अधिक अशान्त बना दिया। मित्रराष्ट्रों के साइबेरिया अभियान ने दोनों देशों में एक-दूसरे के प्रति ईर्ष्या और संदेह की भावना पैदा कर दी। जापान इसलिए सशंकित था कि उसने अपने प्रदेश के निकटवर्ती एशियाई प्रदेश में अमेरिका के सक्रिय हस्तक्षेप के विरुद्ध नाराजगी प्रकट की थी और अमेरिका इसलिए शंकाकुल था कि जापान के सैन्य अधिकारियों ने उन पर अविश्वास किया और वे इस अभियान से लाभ उठाकर साइवेरिया के कुछ भाग पर स्थायी आधिपत्य जमाना चाहते थे।

(4) येप द्वीप का मामला- अमेरिका की सरकार ने प्रशान्त महासागर में स्थित येप द्वीप पर जापानी आधिपत्य का विरोध किया। यह द्वीप एक महत्वपूर्ण अकेला केन्द्र या तथा कैरोलाइन द्वीप समूह का अंग था, जिस पर पेरिस में राष्ट्रसंघ के एक प्रदेश के रूप में उसे शासन करने का अधिकार प्राप्त हुआ था। अमेरिकी सरकार का दावा था कि राष्ट्रपति विल्सन ने इस सम्बन्ध में कुछ विशिष्ट व्यवस्था की थी, इलिए इसका अन्तर्राष्ट्रीयकरण होना चाहिए। साइवेरिया में अमेरिकी रियायत के समाचार ने जापान में क्रोध की लहर फैला दी और जापान में अमेरिका के प्रति जो थोड़ा-बहुत सद्भाव वाकी था, वह भी अमेरिका द्वारा चीन में अधिकाधिक व्यापारिक विस्तार से चीन सरकार के साथ बेतार के तार की व्यवस्था सम्बन्धी करार से और चीन को आर्थिक सहायता प्रदान करने के लिए अमेरिका द्वारा संचालित संगठन की स्थापना से, समाप्त हो गया। दोनों ही देशों में बहुत से लोगों का विचार था कि निकट भविष्य में दोनों देशों के बीच युद्ध अवश्यम्भावी है।

वाशिंगटन-सम्मेलन (1921-22)

अमेरिका और जापान के बीच आपसी संघर्ष तथा प्रशान्त प्रदेश में विरोधी नीतियों और नौसैनिक युद्ध सामग्री में वृद्धि के परिणामस्वरूप सम्भावित युद्ध को रोकने के लिए अमेरिकी सरकार ने एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया। यह सम्मेलन 11 नवम्बर, 1921 को आरम्भ हुआ और 6 फरवरी, 1922 को समाप्त हुआ। इसमें 9 देशों- ब्रिटेन, फ्रांस, जापान, चीन, बेल्जियम, इटली, नीद्रलैंड, पुर्तगाल, तथा अमेरिका के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस सम्मेलन ने कुछ देशों के पारस्परिक संघर्षों के कारणों को दूर कर दिया। इससे न केवल जापान और अमेरिका के बीच मतभेद दूर हुए अपितु जापान एवं चीन के आपसी विवादों का भी निपटारा करने में मदद मिली।

चीन-जापान सम्बन्ध (1922-31)-

वाशिंगटन सम्मेलन के समय से ही जापान-चीन सम्बन्धों में सुधार हुआ। इस समय देश पर अपेक्षाकृत अधिक उदार सरकार का शासन था, इसलिये वह विदेशों में नम्र नीति का अनुसरण कर रही थी। वाशिंगटन समझौते के अनुसार जापान ने शान्तुंग प्रदेश में अधिकृत सम्पत्तियों को चीन को लौटा दिया और इसी समझौते द्वारा निर्धारित तिथि तक चीन में स्थापित सभी जापानी डाकखाने बन्द कर दिये। 1922 में पूर्व की भांति जापान ने चीनी लोगों के विरुद्ध कोई हिंसात्मक प्रदर्शन नहीं किये। लेकिन चीन के प्रति उसकी दिलचस्पी में अभी कमी नहीं आई थी। वह मंचूरिया के पट्टे पर अभिग्रहित प्रदेश का तेजी से विकास कर रहा था। अन्य देशों के समान जापान ने भी बॉक्सर विद्रोह में अपने हिस्से की हर्जाने की बची राशि अदा कर दी तथा कुछ अन्य देशों के समान उसने इसे कुछ ऐसी वस्तुओं में परिवर्तित करवा लिया, जिससे उसे किसी तरह की हानि होने की सम्भावना नहीं थी। बल्कि उससे चीन में उसके प्रभाव में ही कुछ वृद्धि होती है। मई 1925 में शंघाई में जापानियों द्वारा अधिकृत एक मिल में हड्ताल के कारण झगड़ा हुआ। श्रमिकों के समर्थन में कुछ विद्यार्थी अन्तर्राष्ट्रीय उपनिवेश में 30 मई को पुलिस को गोली के शिकार हुए। इससे सारे देश में क्रोध की लहर फैल गई। इसके साथ ही सम्पूर्ण चीन में ब्रिटेन तथा जापान के लोगों का बहिष्कार किया गया।

तनाका-स्मरणपत्र- अप्रैल, 1927 में बैरन तनाका जापान का प्रधानमंत्री बना। वह जापान की सैनिक शक्ति को बढ़ाने के पक्ष में था। जुलाई, 1927 में जापानी सेनाध्यक्षों एवं वित्त तथा युद्ध विभाग के प्रतिनिधियों के एक सम्मेलन में प्रसिद्ध ‘तनाका स्मरण-पत्र’ की रचना हुई, जिसे 25 जुलाई 1927 को जापानी सम्राट की सेवा में प्रस्तुत किया गया। स्मरणपत्र में स्पष्ट कहा गया था कि जापान के राष्ट्रीय अस्तित्व के लिये न केवल मंचूरिया, मंगोलिया और चीन की विजय को ही आवश्यकता है बल्कि सम्पूर्ण एशिया और दक्षिण सागरीय देशों की विजय की भी आवश्यकता है। इस कार्य को करने के लिए रक्त एवं लौह’ की नीति को अपनाने की सलाह दी गयी। इस घोषणा पत्र का उद्देश्य यूरोपियन साम्राज्यवाद से एशिया की रक्षा करना था किन्तु अन्त में यह साम्राज्यवाद का अस्त्र सिद्ध हुआ।

मंचूरिया काण्ड- 1931 से जापानी ने साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण करना आरम्भ कर दिया था। कोरिया में अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के बाद जापान का दूसरा स्वाभाविक लक्ष्य मंचूरिया था। तुनाका स्मरण पत्र में सष्ट लिखा गया था कि “चीन पर विजय प्राप्त करने के लिए पहले हमें मंचूरिया और मंगोलिया जीत लेना चाहिए। संसार जीतने के लिए हमें चीन जीतना पड़ेगा।” जापान मंचूरिया में अपने आर्थिक और सैनिक अधिकार स्थापित करना चाहता था। चीनी राष्ट्रवादी भी मंचूरिया पर अधिकार करना अपनी राष्ट्रीय एकता की पूर्ति और रक्षा के लिए आवश्यक समझते थे। चीन के राष्ट्रवादी यह कभी नहीं चाहते थे कि मंचूरिया का 3 लाख 80 हजार वर्ग मील का अत्यन्त उपजाऊ भूभाग तथा कोयला, लोहा, सोना आदि महत्वपूर्ण खनिजों का क्षेत्र जापानियों के प्रभुत्व में चला जाये। इससे पूर्व भी जापान दो बार यहाँ प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयल कर चुका था। किन्तु इन प्रयलों में उसे हानि ही उठानी पड़ी किन्तु दक्षिणी मंचूरिया रेल कम्पनी पर जापान का नियंत्रण था और रेलवे क्षेत्र की देखभाल जापानी सिपाहियों द्वारा होती थी। चीन जापान के इस एकाधिकार को समाप्त करना चाहता था। अतः उसने जापानी रेलवे लाइन के समानान्तर रेल की पटरियाँ बिछाने की योजना बनाई, जिसका जापान ने विरोध किया। इसके अतिरिक्त चीन ने हुलुताओं में एक प्रथम श्रेणी का बंदरगाह बनवाना शुरू किया जो बाद में जाकर डेरियन तथा ब्लाडीवास्टक से मुकाबला कर सकता था। चीन के इस प्रयास को सफलता का अभिप्राय था-दक्षिण मंचूरिया रेलवे कम्पनी का विनष्ट हो जाना। जापान इस हानि को कभी सहन नहीं कर सकता था।

मुकदेन घटना- इस समय तक चीन में राष्ट्रीयता की भावना विकसित हो चुकी थी, उनका उद्देश्य मंचूरिया में रूस तथा जापान के विस्तार को रोकना था। 1929 में चीन ने रूस की गतिविधियों को और अधिक सीमित करने का असफल प्रयास किया। 1931 को ग्रीष्म ऋतु में मंचूरिया एवं कोरिया में चीनियों तथा कोरियावासियों, जो जापान के अधीन थे, के बीच संघर्ष हुआ। सितम्बर 1931 में अचानक जापानियों ने हमला कर दिया। मुकदेन के निकट दक्षिण मंचूरियाई रेल मार्ग पर एक विस्फोट हुआ जो इस हमले का पूर्व संकेत था। कुछ सप्ताह पश्चात् चांग-शुए ल्यांग की सेनाओं की हार होने लगी और वह मंचूरिया छोड़कर भाग गई। चांग-शुए-ल्यांग के शासन के स्थान पर जापानियों ने अपने संरक्षण में स्थानीय अधिकारियों को ही सरकार बनाने के लिए प्रोत्साहित किया।

मांचूकुओं की स्थापना- 18 फरवरी, 1932 को मंचूरिया में, एक पृथक्, राज्य की स्थापना कर दी गई। इस नये राज्य का नाम ‘मांचकुओं रखा गया। मंचूरिया के तीनों पूर्वी प्रान्त तथा जहोल के प्रदेश को इस नये राज्य में शामिल किया गया। जापान के लोगों का मानना था कि मंचूरिया चीन का अंग नहीं है, वह उसका विजित प्रदेश है तथा ‘मांचूकुओं को एक पृथक् एवं स्वतंत्र राज्य के रूप में परिवर्तित करके उसकी राष्ट्रीय स्वतंत्रता की स्थापना की जा रही है। 9 मार्च, 1932 को मांचूकुओं के लिए संविधान का निर्माण किया गया। शासन विधान का प्रधान सम्राट यू-यी को बनाया गया। 15 सितम्बर, 1932 को जापान ने औपचारिक रूप से इस राज्य को मान्यता प्रदान कर दी। 1934 में इस नये राज्य को साम्राज्य की संज्ञा दी गयी। इस शासन ने जापान के साथ अच्छे मैत्री सम्बन्ध स्थापित कर लिये थे। प्रशासन में जापानी सलाहकारों का बहुत बड़ा हाथ था। नीति का निर्धारण मांचूकुओं में जापानी राजदूत की हैसियत से क्वातुंग के प्रधान सेनापति के निर्देश पर होता था।

नौसैनिक निःशस्त्रीकरण के प्रयत्नों में अवरोध- ब्रिटेन तथा अमेरिका के सम्बन्ध में मांचूकुओं की स्थापना के कारण जापान से तनावपूर्ण थे, लेकिन नौसैनिक युद्ध सामग्री में प्रतिस्पर्धा को रोकने के प्रयलों के विफल हो जाने से तनाव और बढ़ गया। लन्दन के 1930 के सम्मेलन की शर्तों को 1936 तक बढ़ा दिया गया जिसमें जगी जहाजों के निर्माण के सम्बन्ध में निर्णय लिये गये थे। लेकिन सम्मेलन में जापानियों को, जो स्पष्टतया गौण दर्जा दिया गया, उससे वे प्रसन्न न थे। इस सम्मेलन में ब्रिटेन, अमेरिका और जापान की प्रमुख नौसैनिक शक्तियों के जंगी जहाजों के निर्माण में, टन भार का अनुपात क्रमशः 5 : 5:3 नियत किया गया। यद्यपि इससे सुदूर-पूर्व में जापान की दृढ़ नौसैनिक स्थिति सुनिश्चित हो गई थी, लेकिन अन्य देशों की तुलना में उसकी नौसैनिक शक्ति में कमी किए जाने के कारण वह असन्तुष्ट था। इसलिए उसने समानता के सिद्धान्त को स्वीकार करने का आग्रह किया। 1934 में इन राष्ट्रों ने नौसैनिक समस्याओं पर बातचीत शुरू की, लेकिन इसका कोई सन्तोषजनक हल नहीं निकल सका। दिसम्बर, 1934 में जापान ने अन्य राष्ट्रों को सूचना दी कि 1922 में उसने जिन परिसीमाओं को स्वीकार किया था, 1936 के बाद वह उनका पालन करने के लिए वह बाध्य नहीं होगा। फलतः इन तीनों राष्ट्रों ने अपनी नौसैनिक शक्ति में वृद्धि करना आरम्भ कर दिया और इस प्रकार पारस्परिक प्रतिस्पर्धा के एक नये युग का आरम्भ हुआ।

जापान का चीन में उत्तरोत्तर विस्तार-

मांचूकुओं का निर्माण चीनी महाद्वीप पर जापान के बढ़ते हुए नियंत्रण की पूर्व सूचना थी। जापान के सैन्य अधिकारियों ने यह आवश्यक समझा कि भीतरी मंगोलिया के पूर्वी छोर पर स्थित् जेहोल प्रान्त को मिलाकर मांचूकुओं की विजय को पूर्ण कर लिया जाये। अत: 1933 में शस्त्रों का आश्रय लेकर उन्होंने यह कार्य भी पूरा किया। मई, 1933 में उसने चीन के साथ तागंकू-संधि पर हस्ताक्षर किये, जिसके अधीन चीन की दीवार के पूर्वी प्रदेश के साथ-साथ एक विसैन्यीकृत प्रदेश का निर्माण किया और इस प्रदेश में चीनी सेना का स्थान चीनी पुलिस ने ले लिया।

जापान चीन पर निरन्तर दबाव बनाए रहा। वहाँ उसने राष्ट्रवादी सरकार को उनके साथ आर्थिक सहयोग देने तथा चीन से साम्यवादियों को बाहर निकालने में उसका साथ देने का आग्रह किया। किन्तु चीन को भय था कि कहीं जापान के साथ सहयोग करने का परिणाम जापान की अधीनता स्वीकार करना न हो

जापान को क्षेत्र विस्तार की नीति ने चीनियों के मन में कट्टर विरोध की भावना पैदा कर दी। अत: चीन में जापानी व्यापार के बहिष्कार हेतु एक आन्दोलन आरम्भ हुआ। चीनियों की धारणा दृढ़ होती गई, कि अपने निकटवर्ती द्वीपवासियों द्वारा किये जाने वाले शोषण से बचने का एकमात्र हल जापान के साथ युद्ध है। सामान्य खतरे की आशंका को ध्यान में रखकर शीघ्र ही चीन का राजनीतिक एकीकरण कर दिया गया। 1936 के अन्त में जापान के खतरे का सामना करने के लिए नानकिंग में च्यांगकाईशेक के नेतृत्व में संगठित राष्ट्रवादी सरकार और चीनी साम्यवादियों के बीच का पारस्परिक विरोध भुला दिया गया। 1936 में जापान केवल चीनियों के लिए ही नहीं अपितु अन्य प्रशान्त क्षेत्र के राष्ट्रों के लिए भी खतरा बन गया था। कुछ अपवादों को छोड़कर जापान की राजनीति में सैन्यवादी दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक प्रबल होते जा रहे थे और वे जापान के सभी प्रशासनिक मामले अपने हाथ में लेते जा थे और उनकी नीति जापान के उन अतिराष्ट्रवादी वर्गों के विचारों का प्रतिनिधित्व करती थी जिन्होंने धीरे-धीरे देश को युद्ध की ओर प्रवृत्त किया।

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Pankaja Singh

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