हड़प्पा सभ्यता के पश्चात् की भारत के भीतरी भागों में पायी गयी | ताम्रपाषाणकालीन सभ्यता | लोहयुक्त सभ्यता | हड़प्पा-सभ्यता के पश्चात् की भारत के भीतरी भागों में पायी गयी ताम्रपाषाणकालीन तथा लोहयुक्त बस्तियाँ या ग्राम-सभ्यताएँ
हड़प्पा सभ्यता के पश्चात् की भारत के भीतरी भागों में पायी गयी
हडप्पा सभ्यता नगर-सभ्यता थी। उसके नष्ट हो जाने के पश्चात् भी भारत के विभिन्न भागों में मानव का अस्तित्व रहा और विभिन्न स्थानों पर गाँव-संस्कृति पनपी। इनमें से अधिकांशतया उत्तर-ताम्रपाषाणकालीन सभ्यताओं में स्थान रखती हैं क्योंकि वहाँ पर पत्थर के साथ-साथ ताँबे का प्रयोग किया जाता था और उनमें से कुछ ऐसी भी थीं जहाँ के निवासियों को बाद के समय में लोहे का ज्ञान हो गया। हड़प्पा सभ्यता के स्थलों में कुछ ऐसे अवशेष प्राप्त हुए हैं जहाँ ये ग्राम-सभ्यताएँ पनपीं। जैसे सिन्ध, पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और गुजरात में भी विभिन्न स्थलों पर ग्राम-सभ्यताओं के अवशेष प्राप्त हुए हैं। उनकी पहचान का मुख्य साधन वहाँ प्राप्त हुए विभिन्न प्रकार के मिट्टी के बर्तन हैं। परन्तु यह पता नहीं लगता है कि हड़प्पा-सभ्यता से इनका सम्पर्क था या नहीं, और यदि था तो किस प्रकार का ? परन्तु यहाँ से कहीं बड़ी मात्रा में दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, मध्य-भारत, दक्षिण-भारत, पूर्वी भारत, गंगा-घाटी और गंगा-यमुना-दोआब के विभिन्न क्षेत्रों में ग्राम- सभ्यताएँ पनपीं, इसके प्रमाण प्राप्त हुए हैं।
राजस्थान में विभिन्न स्थलों पर ताम्रपाषाणाणयुगीन सभ्यताओं के अवशेष प्राप्त हुए हैं। उनमें से आधुनिक उदयपुर के निकट अहाड़ तथा गुलुंद नामक स्थलों पर अधिकतम खुदाई की गयी है और वहाँ विभिन्न अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहाँ की संस्कृति प्रायः 2000 ई०पू० की मानी गयी है। यहाँ ताँबे का प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया जाता था। ताँबे की अंगूठियाँ, चूड़ियाँ, चाकू और कुल्हाड़ियाँ यहाँ प्राप्त हुई हैं। यहाँ के निवासी चावल और सम्भवतया, बाजरे की खेती करते थे। पशु-पालन भी उनका एक मुख्य व्यवसाय था। मछली, कछुआ, मुर्गा, गाय, भैंस, बकरी, भेड़, हिरण और सुअर की अस्थियाँ यहाँ से प्राप्त हुई हैं। अहाड़ में मकानों की नींवों में पत्थर का प्रयोग किया गया था और गारा तथा बाँस के डण्डों का प्रयोग भी वहाँ के निवासी मकान बनाने के लिए करते थे। फर्श काली मिट्टी और पीली गाद के बनाये जाते थे। गुलुंद में मकान बनाने के लिए पकी ईंटों का प्रयोग किया गया था। वहाँ के निवासी कई मुँह वाले तन्दूर भी बनाते थे। कुछ उपकरण पत्थर के भी बनाये जाते थे। मिट्टी के बर्तन विभिन्न प्रकार के बनाये जाते थे। अधिकांश मिट्टी के बर्तन काले और लाल रंगों के थे जिन पर सफेद रंग की बिन्दियाँ भी डाल दी जाती थीं। अहाड़ में प्राप्त हुए अवशेषों के आधार पर उस स्थान को अहाड़-सभ्यता के नाम से पुकारा गया है।
मध्य-भारत में ताम्रपाषाणयुगीन सभ्यता के अवशेष अनेक स्थलों से प्राप्त हुए हैं जिनमें से कायथ और नवदातोली को अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। यहाँ प्राप्त सभ्यता के पहले चरण का आरम्भ प्रायः 2200 से 2000 ई०पू० के मध्य का माना गया है। पहले चरण की सभ्यता को कायथ- सभ्यता के नाम से पुकारा गया। इस काल के मुख्य नमूने चाक से बने हुए मिट्टी के तीन बर्तन,ताँबे की चूड़ियाँ और कुल्हाड़ियाँ, गोमेद पत्थर और सेलखडी के मनके हैं। इसके दूसरे चरण के अवशेष अहाड़-सभ्यता (राजस्थान की) से मिलते-जुलते हैं और इसके तीसरे चरण की स्थिति को ‘मावला-ताम्रपाषाण-सभ्यता’ के नाम से पुकारा गया है। इसके तीसरे चरण का समय 1600 ई०पू० से 1300 ई०पू० के मध्य का माना गया है। इस चरण में यहाँ के निवासियों ने पर्याप्त प्रगति कर ली थी। उसके अवशेष मुख्यतया नवदातोली नामक स्थल से प्राप्त हुए हैं। यहाँ से ताँबे की चपटी कुल्हाड़ियाँ, चूड़ियाँ, अंगूठियाँ, छेनियाँ, मछली पकड़ने के काँटे आदि प्राप्त हुए हैं। यहाँ के मकान मिट्टी, बाँस और फूस से बनाये जाते थे। घर पास- पास बनाये जाते थे परन्तु उनके बीच में रास्ता छोड़ा जाता था। मिट्टी के बर्तन लाल और काले रंग के थे तथा छोटे और बड़े सभी आकारों के बनाये जाते थे। यहां के निवासी गेहूँ, मसूर, चना, अलसी और मटर की खेती करते थे। चावल का प्रयोग बाद के समय में आरम्भ हुआ और वह भी सीमित मात्रा में। नवदातोली को भारत में प्राप्त ताम्रपाषाणयुगीन ग्राम- सभ्यता का सबसे विस्तृत क्षेत्र माना गया है।
महाराष्ट्र में ताम्रपाषाणयुगीन-सभ्यता के अवशेष मुख्यतया नासिक, नेवासा, दायमाबाद, सोनेगाँव, इनामगाँव, चंदोली और जोरवे नामक स्थानों से प्राप्त हुए हैं। यहाँ पर भी इस सभ्यता की प्रगति के विभिन्न चरण रहे। प्रारम्भिक चरण में सम्भवतया इस सभ्यता पर हड़प्पा सभ्यता का प्रभाव रहा; इसके दूसरे चरण की सभ्यता राजस्थान की अहाड़-सभ्यता से मिलती-जुलती थी; इसके तीसरे चरण की सभ्यता मध्य-भारत की ‘मालवा-सभ्यता’ कही जाने वाली सभ्यता से मिलती-जुलती थी; और इसके चौथे चरण की सभ्यता को ‘जोरवे-सभ्यता’ पुकारा गया तथा उसे पूर्णतया महाराष्ट्रीय माना गया। इसका समय साधारणतया 1400 से 1000 ई०पू० माना गया यद्यपि कुछ स्थलों जैसे इनामगाँव में यह 700 ई०पू० तक भी विद्यमान रही। यहाँ घर मिट्टी, गारा और लकड़ी के डण्डों से बनाये जाते थे और छतों को फूस से ढककर गारे से लेप दिया जाता था। मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए चाक का प्रयोग होता था और वे लाल और काले रंग के बनाये जाते थे। यहाँ के बर्तनों में प्राप्त एक विशेष बर्तन टोटींदार बर्तन है।
यहाँ के निवासी गेहूँ, जौ, मसूर, मटर और कहीं-कहीं चावल की खेती करते थे। नेवासा नामक स्थान पर पटसन भी प्राप्त हुआ है। वे गाय, बैल, भैंस, बकरी, भेड़ और सुअर पालते थे। मातृ-देवी की पूजा किये जाने के भी कुछ प्रमाण यहाँ प्राप्त हुए हैं। यहाँ के उपकरण पत्थर और ताँबे से बनाये जाते थे। ताँबे से बनी चूड़ियाँ, छेनियाँ, सलाइयाँ, कुल्हाड़ियाँ, छुरे और छोटे-छोटे बर्तन यहाँ से प्राप्त हुए हैं। दायमाबाद में ताँबे की चार ठोस वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं जिनका वजन भी कई किलो का है। एक रथ चलाते हुए एक मनुष्य की आकृति, दूसरी साँड़ की, तीसरी गेंडे की और चौथी हाथी की आकृति है। परन्तु इनको खुदाई में प्राप्त वस्तुएँ नहीं माना जा रहा है और न उनके निर्माण के समय के बारे में एकमत हुआ गया है। दक्षिण-भारत में कर्नाटक, तमिलनाडु और रायचूर-दोआब के विभिन्न स्थलों पर खुदाई किये जाने पर वहाँ पर ताम्रपाषाणयुगीन सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहाँ प्राप्त सभ्यता के समय को 2300 से 900 ई० पू० का माना गया है। यहाँ की सभ्यता की प्रगति के भी विभिन्न चरण रहे।
आरम्भ के समय में यहाँ के निवासियों को ताँबे का ज्ञान नहीं था और उनके मिट्टी के बर्तन भी हाथ से बनाये गये थे। परन्तु इस सभ्यता की प्रगति के दूसरे चरण में ही यहाँ के निवासियों को ताँबे और कुम्हार के चाक का ज्ञान हो गया था। वहाँ मकान लकड़ी के डण्डों, बाँस के पर्दो और मिट्टी से बनाये जाते थे, छतें फूस से बनायी गयी थीं और फर्शों पर चूने का लेप किया जाता था। यहाँ के निवासी बाजरा और चना की खेती करते थे तथा भेड़-बकरी तथा कुछ अन्य पशुओं को पालते थे। उड़ीसा में कुछ स्थानों पर नवपाषाणयुगीन और ताम्रपाषाणयुगीन सभ्यताओं के अवशेष प्राप्त हुए हैं परन्तु उनकी संख्या कम है और उनके समय का निर्धारण नहीं किया जा सका है। परन्तु यह निश्चित है कि भारत के इस क्षेत्र में ताम्रपाषाणयुगीन बस्तियाँ थीं।
बंगाल में विभिन्न स्थलों, जैसे वीरभूम, बर्दवान, मिदनापुर, बाँकुरा, पाण्डु, राजरठीबी आदि से ताम्रपाषाणयुगीन अवशेष प्राप्त हुए हैं और यह विश्वास किया जाता है कि वहाँ एक विस्तृत भू-प्रदेश में चावल की कृषि पर आधारित ग्राम-सभ्यता प्रायः 1500 ई०पू० विद्यमान थी।
बिहार में विभिन्न स्थलों से ताम्रपाषाणयुगीन सभ्यता की उपस्थिति के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। उनमें से प्रमुख स्थल चिरंद और सोनपुर हैं। यहाँ के निवासी चावल, मूंग आदि की खेती करते थे, लाल और काले रंग के मिट्टी के बर्तन बनाते थे और सरकंडों व गारे से अपने घर बनाते थे।
गंगा-घाटी और गंगा-यमुना-दो आब में सभ्यता की उपस्थिति के चिह्न 3000 ई०पू० तक प्राप्त हुए हैं। अपनी प्राचीनतम स्थिति में यहाँ की सभ्यता हड़प्पा सभ्यता की समकालीन थी। उसे ‘गोरुवर्णी-मृद-भाँड-सभ्यता’ के नाम से पुकारा गया है। इसकी उपस्थिति के मुख्य प्रमाण हस्तिनापुर और अंतरजीखेड़ा में प्राप्त हुए हैं। यहाँ चावल की खेती की जाती थी और व्यक्तियों को ताँबे का ज्ञान था, ऐसे प्रमाण प्राप्त हुए बाद के समय के लाल और काले रंग के मिट्टी के बर्तन भी अतरंजीखेड़ा से प्राप्त हुए हैं।
उपरोक्त विभिन्न स्थानों पर प्राप्त हुए प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि ताम्रपाषाण-युग के समाप्त होने तक भारत के प्रायः सभी भागों में भारतीयों ने ग्राम-सभ्यता का निर्माण कर लिया था। इसके अतिरिक्त भारतीयों ने लोहे का ज्ञान भी स्वयं प्राप्त किया, यह भी कुछ स्थानों पर लौहयुक्त सभ्यताओं की उपस्थिति से प्रमाणित होता है।
ऊपरी गंगा-घाटी के विभिन्न स्थलों जैसे आलमगीरपुर, अल्लाहपुर, हस्तिनापुर, अतरंजीखेड़ा, मथुरा, रोपड़, श्रावस्ती, जरवेड़ा आदि स्थलों से ऐसे अवशषेष प्राप्त हुए हैं जो यह प्रमाणित करते हैं कि यहाँ के निवासियों को लोहे का ज्ञान हो गया था। उदाहरणार्थ, जरवेड़ा से लोहे की वस्तुओं में भाले, तीर, काँटे, कुल्हाड़ियाँ और कुदाल प्राप्त हुए हैं तथा अंतरंजीखेड़ा से दराँतियाँ, चाकू, सरिया और चिमटे प्राप्त हुए हैं। यहाँ के निवासी काले और लाल रंग के मिट्टी के बर्तन चाक से बनाते थे, गेहूँ, जौ और थोड़ी मात्रा में चावल की खेती करते थे यथा भेड़, भैंस और सूअर पालते थे। हस्तिनापुर में घोड़े की अस्थियाँ भी मिली हैं।
मध्य-भारत में नागदा और एरण नामक स्थानों से लोहे की वस्तुएं प्राप्त हुई हैं। नागदा में छुरी, चम्मच, कुल्हाड़ी, अंगूठी, कील, चाकू, भाले का सिरा और दराती प्राप्त हुए हैं।
राजस्थान में अहाड़-सभ्यता के निवासियों क भी बाद में लोहे का ज्ञान हो गया था, ऐसे प्रमाण प्राप्त हुए हैं। गंगा-घाटी के निचले भाग (पूर्वी भारत) में भी कुछ स्थलों से लोहे के करण प्राप्त हुए हैं। दक्षिण-भारत में हल्लूर नामक स्थान पर तथा कुछ अन्य स्थलों पर भी लोहे के प्रयोग के प्रमाण प्राप्त हुए हैं।
इस प्रकार, यह सिद्ध हो गया है कि ताम्रपाषाण-सभ्यता के बाद के समय में भारत के विभिन्न भागों में यहाँ के निवासियों को लोहे का ज्ञान हो गया था तथा उन्होंने ताँबे के साथ- साथ लोहे का प्रयोग आरम्भ कर दिया था। जहाँ तक लोहे के ज्ञान के समय का प्रश्न है उसके विषय में विद्वानों में मतभेद है। विभिन्न स्थानों पर विभिन्न विद्वानों ने लोहे के ज्ञान का समय अलग-अलग दिया है। साधारणतया, उसका समय 1100 से 800 ई०पू० तक का बताया गया है। इस कारण, यह सम्भव है कि कुछेक स्थानों पर इसका ज्ञान कुछ समय पहले हो गया हो और अन्य स्थानों पर कुछ समय पश्चात् । इसी कारण कुछ विद्वानों ने यह विचार भी प्रकट किया है कि भारत में लोहे का ज्ञान आर्यों के भारत के आन्तरिक भागों में प्रवेश करने से पहले ही हो गया था।
उपर्युक्त मतभेदों के होते हुए भी यह तथ्य तो स्वीकार करना ही पड़ता है कि हड़प्पा- सभ्यता के नष्ट हो जाने से भारतीय सभ्यता नष्ट नहीं हो गयी थी अपितु आर्यों के भारत में प्रवेश करने से पहले भारत के विभिन्न क्षेत्रों में ग्रामीण-सभ्यताएँ विद्यमान थीं।
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