माँग प्रेरित मुद्रा प्रसार का वक्र | माँग प्रेरित स्फीति | लागत-वृद्धि | सिद्धान्त की आलोचना | लागत प्रेरित मुद्रा प्रसार
माँग प्रेरित मुद्रा प्रसार का वक्र
माँग प्रेरित मुद्रा प्रसार लोचदार माँग की दशा तक उत्पन्न नहीं होता है, लेकिन ज्यों ही पूर्ण रोजगार की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, और उत्पादन पूर्णतः बेलोचदार होता है तो माँग बढ़ने पर केवल कीमत वृद्धि ही होती है। इसका वक्र निम्न है-
व्याख्या- वक्र सं 07.1 के YOX अक्षांश में YO पर कीमत, OX अक्ष पर उत्पादन दिया गया है। किसी देश में SK पूर्ति लोचदार व KS1 पूर्णतः बेलोचदार पूर्ति है अर्थात् SS1 पूर्ति वक्र है। प्रारम्भिक दशा में D माँग होने पर E1 साम्य बिन्दु में कीमत OP होगी। यदि माँग D2 हो जाती है तो E2 साम्य बिन्दु में उत्पादन OQ2 व कीमत OP2 हो जायेगी। अर्थात् उत्पादन एवं कीमत दोनों में वृद्धि होगी, क्योंकि वस्तु का उत्पादन (पूर्ति) लोचदार है। किन्तु K बिन्दु के बाद यदि माँग D3 हो जाती है तो पूर्ण रोजगार की दशा एवं उत्पादन OQ3 होगा, जबकि कीमत OP3 होगी। लेकिन माँग D4 होने पर उत्पादन पूर्णतः बेलोचदार होने के कारण उत्पादन में कोई वृद्धि नहीं होगी अर्थात् उत्पादन OP3 ही रहेगा, जबकि केवल कीमतें बढ़कर OP4 हो जायेगी। इसलिए पूर्ण रोजगार के बाद माँग में बढ़ोत्तरी होने पर केवल कीमतें बढ़ती हैं। इस प्रकार मुद्रा प्रसार सृजित होती है।
लागत प्रेरित मुद्रा प्रसार-
लागत प्रेरित मुद्रा प्रसार से तात्पर्य है कि जब उत्पादन के साधनों की कीमत ऊँची हो जाती है, अर्थात् लगान मजदूरी, ब्याज एवं लाभ में बढ़ोत्तरी होती है तो वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि स्वाभाविक है। इस दशा को लागत प्रेरित प्रसार समझना चाहिए। अर्थशास्त्र में लागत प्रेरित स्फीति के अन्तर्गत श्रम की मजदूरी एवं साहसी के लाभ में जब वृद्धि होती है तो कीमतों में वृद्धि अपरिहार्य है, इसे लागत प्रेरित स्फीति कहते हैं। भारत में 1970 के दशक से लागत प्रेरित स्फीति में निरन्तर वृद्धि हो रही है क्योंकि आर्थिक विकास का दबाव बढ़ता जा रहा है। साधन महंगे हो रहे हैं, तो लागतों में बढ़ोत्तरी से कीमत निर्देशाक ऊपर उठ रहा है। इस प्रकार मुद्रा प्रसार का सृजन हो रहा है। अर्थविदों ने इसे नया मुद्रा प्रसार (New Inflation) कहा है। लागत प्रेरित मुद्रा प्रसार उत्पन्न होने के कारण निम्न हैं-
- मजदूरी में वृद्धि- लागत प्रेरित मुद्रा प्रसार का मुख्य कारण श्रमिकों की मजदूरी में वृद्धि होना है, क्योंकि श्रमिक संघों के मायम से जब श्रमिकों की मजदूरी में बढ़ोत्तरी होती है, जबकि उत्पादकता में अपेक्षित वृद्धि नहीं होती है तो वस्तुओं की उत्पादन लागत बढ़ जाती है, उत्पादन लागत बढ़ने पर उद्यमी वर्ग वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि कर देते हैं। फलस्वरूप एक ओर मजदूरी में वृद्धि तो दूसरी ओर लागतों में वृद्धि का चक्र अनवरत चलता रहता है। इस प्रकार लागत प्रेरित या मजदूरी प्रेरित मुद्रा प्रसार बढ़ता है।
- लाभ में वृद्धि- लाभ का सम्बन्ध उद्यमी अथवा एकाधिकारी फर्मों से होता है। जब लागत प्रेरित मुद्रा प्रसार में मजदूरी एवं लागतों में वृद्धि होती है तो एकाधिकारी वर्ग अथवा उद्यमी अपने लाभ की दरों में बढ़ोत्तरी के लिए वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि करने लगते हैं। फलस्वरूप बाजार में थोक मूल्य सूचकांक ऊँचा होने लगता है। यह स्थिति प्रायः अपूर्ण प्रतियोगिता में उत्पन्न होती है। इस प्रकार के मुद्रा प्रसार को विक्रेता मुद्रा प्रसार या कीमत प्रेरित प्रसार भी कहते हैं। परन्तु यहाँ पर यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि बाजार में सभी फर्मे अपनी वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि नहीं कर सकती हैं। क्योंकि कीमत वृद्धि की सीमायें हैं। यदि वस्तुओं की कीमतें पूर्व से ही बढ़ी हु हैं तो ऐसी वस्तुओं की कीमतें बढ़ती हैं। यह ET खड़ी रेखा द्वारा व्यक्त किया जा सकता है।
व्याख्या- YOX अक्षांश में YO पर कीमत स्तर व OX अक्ष पर उत्पादन दर्शाया गया है। इसमें पूर्ति वक्र S, S1, S2 है जो मजदूरी वृद्धि से लागतों में बढ़ोत्तरी से पूर्ति बायीं ओर ऊपर हो जाती है। इसमें DD माँग वक्र है। यदि S पूर्ति वक्र DD माँग वक्र को E बिन्दु पर काटता है, तो OQ उत्पादन में कीमत OP निर्धारित होती है, लेकिन लागतें बढ़ने पर पूर्ति वक्र S1 होता है, जो E1 साम्य बिन्दु के अन्तर्गत उत्पादन घटकर 0Q1 और कीमत बढ़कर OP1 हो जाती है तो S2 पूर्ति वक्र E2 साम्य बिन्दु उत्पादन घटकर OQ2 रह जाता है जबकि कीमत सबसे ऊँची OP2 हो जाती है।
इस प्रकार ET पूर्ण रोजगार एवं बेलोचदार पूर्ति है।
सिद्धान्त की आलोचना
माँग प्रेरित एवं लागत प्रेरित मुद्रा प्रसार की आलोचना निम्न हैं-
- माँग प्रेरित स्फीति पूर्ण रोजगार के बाद उत्पन्न होती है। जबकि अथर्वेद का कहना है कि किसी भी देश में पूर्ण रोजगार की दशा सम्भव ही नहीं है क्योंकि उत्पादक वर्ग जान बूझकर बेरोजगारी बनाये रखते हैं।
- जबकि लागत प्रेरित मुद्रा प्रसार का सिद्धान्त बेरोजगारी से सम्बद्ध है, क्योंकि मुद्रा प्रसार को नियंत्रित करने के लिए बेरोजगारी आवश्यक है ताकि मजदूरी में वृद्धि न हो सके।
- यदि सरकार समग्र माँग में वृद्धि चाहती है तो बेकारी की स्थिति में यह कैसे सम्भव है? तो इसका अर्थ यह है कि उत्पादन एवं रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए श्रम संघों के दबाव में मजदूरी वृद्धि करनी ही पड़ेगी। माँग प्रेरित एवं लागत प्रेरित मुद्रा प्रसार दोनों का आर्थिक विश्लेषण करने के बाद एक प्रश्न उठता है कि क्या मांग प्रेरित एवं लागत प्रेरित मुद्रा प्रसार दोनों में भेद हैं? इस परिप्रेक्ष्य में अर्थशास्त्रियों का कथन है कि वास्तव में दोनों एक दूसरे से इतने सम्बद्ध हैं, जिन्हें अलग-अलग करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। सेम्युलसन ने कहा है कि “माँग प्रेरित एवं लागत प्रेरित मुद्रा प्रसार का मापन करने हेतु कोई सामान्य मापदण्ड नहीं है, ऐसा कीमत स्तर भी नहीं है जो सर्वविदित हो।” इसलिए माँग व लागत प्रेरित मुद्रा प्रसार में सिर्फ यह समझना चाहिए कियदि कीमत वृद्धि हो तो मांग प्रेरित मुद्रा प्रसार है, और यदि मजबदूरी वृद्धि हो तो लागत प्रेरित मुद्रा प्रसार है। संक्षिप्त अन्तर निम्न है-
मुद्रा प्रसार बेरोजगारी में आता है।
(1) माँग प्रेरित मुद्रा प्रसार पूर्ण रोजगार के पश्चात् उत्पन्न होता है, लेकिन लागत प्रेरित मुद्रा प्रसार में मजदूरी में वृद्धि होती है।
(2) माँग प्रेरित मुद्रा प्रसार से माँग में वृद्धि व कीमत वृद्धि होती है, जबकि लागत प्रेरित मुद्रा प्रसार में मजदूरी में वृद्धि होती है।
(3) माँग प्रेरित मुद्रा प्रसार मुद्रा की मात्रा में वृद्धि के कारण उत्पन्न होता है, जबकि लागत प्रेरित मुद्रा प्रसार बाजार की अपूर्णताओं एवं उद्यमियों की लाभ-भावना का परिणाम है।
(4) माँग प्रेरित प्रसार पर नियंत्रण के लिए उत्पादन वृद्धि एकमात्र विकल्प है, जबकि लागत प्रेरित प्रसार के नियंत्रण हेतु मजदूरी दरों में नियंत्रण एवं पूर्ण बाजार आवश्यक हो जाता है।
निष्कर्षतः मुद्रा प्रसार के प्रकारों में माँग एवं लागत प्रेरित स्फीति का विस्तृत विवेचन बतलाता है कि मुद्रा प्रसार के लिए केवल उक्त दोनों तत्त्व ही नहीं होते हैं अपितु आर्थिक नीतियाँ भी उत्तरदायी होती हैं।
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