अर्थशास्त्र

ब्याज का अर्थ | ब्याज के निर्धारण की विधि | ब्याज के निर्धारण के तत्व | ब्याज दरों में भिन्नता के प्रमुख कारण | ब्याज के प्रमुख प्रकार | शुद्ध एवं सफल ब्याज में भेद

ब्याज का अर्थ | ब्याज के निर्धारण की विधि | ब्याज के निर्धारण के तत्व | ब्याज दरों में भिन्नता के प्रमुख कारण | ब्याज के प्रमुख प्रकार | शुद्ध एवं सफल ब्याज में भेद

ब्याज का अर्थ (ब्याज से आशय)

पूँजी या ऋण अथवा ऋण-योग्य कोषों के प्रयोग हेतु दिया जाने वाला पुरस्कार ही ब्याज कहलाता है। इस बात को अर्थशास्त्रियों ने विभिन्न प्रकार से व्यक्त किया है। मार्शल के अनुसार, “ब्याज किसी बाजार में पूँजी के प्रयोग की कीमत है।” मेयर्स के शब्दों में, “ब्याज वह कीमत है, जो ऋण-योग्य कोषों के प्रयोग हेतु दी जाती है।” केन्स के मतानुसार, “ब्याज एक मौद्रिक घटना है और त्याग का पुरस्कार है।”

सकल एवं शुद्ध ब्याज का अर्थ व इनमें अन्तर-

अर्थशास्त्र में ‘ब्याज’ शब्द का प्रयोग शुद्ध ब्याज के अर्थ में करते हैं, अर्थात शुद्ध ब्याज का वही अर्थ है, जो ऊपर ब्याज का बताया गया है। शुद्ध ब्याज पूँजी की सेवाओं के बदले प्राप्त आय को कहते हैं जबकि कुल ब्याज से तात्पर्य उस कुल राशि का है, जिसे ऋणी पूँजी की सेवा बदले और साथ ही उधार देने की जोखिम, असुविधा तथा कष्ट आदि की क्षतिपूर्ति के रूप में ऋणदाता को दे। इस प्रकार, जहाँ शुद्ध ब्याज केवल पूँजी के उपयोग का भुगतान है वहाँ कुल ब्याज इसके साथ-साथ अन्य असुविधाओं तथा जोखिम आदि का भुगतान है।

ब्याज के निर्धारण की विधि या तत्व-

कुल ब्याज में निम्न् तत्व शामिल होते हैं-

(अ) विशुद्ध ब्याज- यह राशि ऋणी केवल पूँजी के उपयोग अथवा सेवा के बदले में ऋणदाता को देता है।

(ब) जोखिम के लिए भुगतान या पुरस्कार-ऋणदाता अपने अनुभव से यह जानता है कि सब ऋणी रुपया नहीं चुका दिया करते, वरन कुछ नहीं भी चुकाते हैं। चूँकि कुछ रुपया उधार में मारा जाता है इसलिए ऋण देने से जोखिम उठाता है। उसे इन जोखिमों के लिए पुरस्कार मिलना चाहिए। मार्शल ने दो प्रकार के जोखिम गिनाये हैं-

(1) व्यापक जोखिम-व्यवसाय में जोखिम सन्निहित है। चूँकि उत्पादन माँग के पूर्वानुमान के आधार पर किया जाता है जो गलत भी हो सकता है, इसलिए व्यापार में घाटे की सम्भावना रहती है। घाटे की स्थिति में ऋणी-व्यवसायी ऋणदाता को उधार दी गयी रकम न चुका सकेगा। अत: व्यवसाय के साथ जोखिम होना स्वाभाविक है। जोखिम की मात्रा व्यवसाय के स्वभाव पर निर्भर होती है। सट्टा व्यवसाय में जोखिम सर्वाधिक होती है। जितनी अधिक जोखिम‌  हो, उतना ही अधिक पुरस्कार लिया जायेगा।

(2) व्यक्तिगत जोखिम- यह सम्भव है कि ऋणी बेईमान हो जाये, और रुपया लौटाने से इन्कार करे। ऐसी स्थिति में मूलधन, या ब्याज या दोनों के न मिलने की जोखिम रहती है। इसकी क्षतिपूर्ति के लिए ऋणदाता शुद्ध ब्याज के साथ-साथ कुछ अतिरिक्त राशि भी माँगता है।

(स) व्यवस्था का पुरस्कार-ऋणदाता को ऋण सम्बन्धी लेन-देन के सम्बन्ध में व्यवस्था पर कुछ व्यय करने पड़ते हैं, जैसे-प्रत्येक ऋणी का हिसाब-किताब रखना, ऋण वसूली के लिए तगादे करना या कराना, ऋण न मिलने पर कानूनी कार्यवाही करना, आदि। इस सब व्यवस्था के लिए भी ऋणदाता को भुगतान मिलना चाहिए।

(द) असुविधाओं के लिए भुगतान- ऋण देने में ऋणदाता को कुछ असुविधाओं का सामना करना पड़ता है, जैसे-स्वयं को रुपये की आवश्यकता होने के समय ऋण न लौट पाना, ऐसे समय पर ऋण का रुपया लौटकर आना, जबकि उसे किसी लाभप्रद कार्य में लगाना सम्भव न हो। इस प्रकार की असुविधाओं के लिए भी ऋणदाता पुरस्कार चाहेगा।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कुल ब्याज में चार तत्व होते हैं और शुद्ध ब्याज वास्तव में कुल ब्याज का ही एक अंग है।

ब्याज-दरों में भिन्नता के प्रमुख कारण –

प्रायः विभिन्न व्यक्तियों के लिए अथवा विभिन्न स्थानों व्यवसायों में ब्याज दरें पायी जाती हैं। यहाँ ब्याज का तात्पर्य ‘कुल ब्याज’ का है। इसकी दरों में भिन्नता होने के प्रमुख कारण अग्रांकित हैं-

(1) जोखिम में भिन्नता होना- एक अच्छी साख वाले व्यक्ति या व्यवसायी से पूँजीपति कम ब्याज लेगा, क्योंकि उन्हें ऋण देने में जोखिम की मात्रा कम है। परन्तु सटोरियों या कम साख वाले व्यक्तियों को ऋण देने में जोखिम की मात्रा अधिक होती है, इसलिए वह ब्याज ऊँची दर पर लेगा।

(2) ऋण की जमानत में अन्तर होना- यदि ऋण जमानत उचित और पर्याप्त दे सकता है, ब्याज नीची दर से ली जायेगी और यदि ऋणी के पास कोई उचित जमानत देने को नहीं है तो उससे ब्याज ऊँची दर पर लिया जायेगा।

(3) ऋणी की अवधि में अन्तर होना- अन्य बातें समान रहते हुए लम्बी अवधि के ऋणों पर ब्याज छोटी अवधि के ऋणों की तुलना में अधिक लिया जाता है, क्योंकि अवधि बड़ी होने पर ऋणों के साथ अनिश्चितता एवं जोखिम अधिक होती है।

(4)असुविधा में अन्तर- धनी व ईमानदार व्यक्तियों को ऋण देने में पूँजीपति को अधिक असुविधा नहीं होती, क्योंकि ऋण बिना किसी कठिनाई के वायदे के अनुसार, मिल जाता है। अत: इनसे ब्याज नीची दर से लिया जाता है। किन्तु एक निर्धन व्यक्ति के साथ यह बात नहीं है। प्रायः ऋण के भुगतान के लिए बार-बार तगादे भेजने पड़ते हैं, रुपया किश्तों में टूट-टूटकर प्राप्त होता है और समय पर भी नहीं मिल पाता। इसलिए मजदूरों, किसानों और छोटे व्यापारियों को ऋण ऊँची ब्याज दर मिलता है।

(5) प्रबन्ध व्यय अधिक या कम होना- छोटे व्यापारी, लघु कृषक एवं छोटे शिल्पकारों को ऋण प्रबन्ध पर अधिक व्यय करना होता है, क्योंकि ये लोग थोड़ी मात्रा में ऋण लेते हैं और किश्तों में भुगतान करते हैं। अत: उनसे पूँजीपति ब्याज की ऊँची दर लगाता है।

(6) ऋण के उद्देश्य में अन्तर- अनुत्पादक कार्यों (जैसे-शादी-विवाह, मृत्यु-संस्कार) के लिए ऋण प्रायः ऊँची दर पर दिया जाता है, क्योंकि इनमें जोखिम अधिक होती है। परन्तु उत्पादक कार्यों (जैसे-मशीन खरीदने) के लिए कम ब्याज दर पर ही ऋण दे दिया जाता है, क्योंकि इनमें जोखिम कम होती है।

(7) पूँजी की गतिशीलता में भिन्नता- उन्नत देशों में पूँजी अधिक गतिशील होती है अपेक्षाकृत पिछड़े हुए देशों के। इसलिए वहाँ स्थान और क्षेत्र-क्षेत्र में ब्याज दरों में कम भिन्नता होती है।

(8) पूँजी की उत्पादकता-जिन व्यवसायों में पूँजी के प्रयोग द्वारा उत्पादन और अधिक लाभार्जन सम्भव होता है, उनमें साहसी ऊँची ब्याज देने को सहर्ष तैयार हो जाते हैं। अन्य व्यवसायों में उत्पादकता कम रहने से साहसी कम ब्याज दर देते हैं।

(9)बैकिंग सुविधाओं की कमी- जिन क्षेत्रों या देशों में बैकिंग सुविधाओं का अभाव रहता है जैसा कि कुछ समय पहले तक भारत के देहाती क्षेत्रों में था, वहाँ ब्याज की दर उन क्षेत्रों या देशों की अपेक्षा जहाँ कि बैंकिंग सुविधाएँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं, ऊँची होती हैं।

(10) आर्थिक विकास का स्तर भिन्न होना- आर्थिक दृष्टि से विकसित देशों या क्षेत्रों में लोगों की आय अधिक होती है, जिससे अधिक बचत होती है और फलस्वरूप पूँजी की पूर्ति पर्याप्त होती है। अत: वहाँ ब्याज की दर कम होती है परन्तु पिछड़े हुए क्षेत्रों या देशों में आय बचत कम रहती है। फलस्वरूप पूँजी की कमी होने से वहाँ ब्याज की दर ऊँची होती है।

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Pankaja Singh

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