शिक्षाशास्त्र

बौद्धकालीन शिक्षा के उद्देश्य | बौद्धकालीन शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ

बौद्धकालीन शिक्षा के उद्देश्य | बौद्धकालीन शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ

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बौद्धयुगीन शिक्षा के उद्देश्य (Aims of the Buddhist Education)

बौद्धयुगीन शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य निम्न प्रकार थे-

(1) मोक्ष प्राप्त करने के लिए प्रयास करना-

बौद्धयुगीन शिक्षा का उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करने के लिए प्रयास करना था। बौद्ध धर्म के अनुसार यह संसार दुःखमय है, दुःख का कारण तृष्णा है, इस दुःख का निवारण संभव है, और इस दुःख निवारण का उपाय है-‘अष्टांगिक मार्ग’।

महात्मा बुद्ध के अनुसार, “हे भिक्षुओं दुःख से बचाने वाला यह मध्यम मार्ग अवश्य ही जान लेना चाहिए। न तो सांसारिक भोग विलास में जीवन लगाना चाहिए तथा न शरीर को अधिक कष्ट देकर तपस्या करनी चाहिए ये दोनों मार्ग दुःखमय, अनार्थ और अनर्थकर हैं।” अष्टांगिक मार्ग के अन्तर्गत इच्छाओं एवं तृष्णाओं पर विजय प्राप्त करने हेतु आठ सत्यों का वर्णन किया गया है-सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक कर्मान्त, सम्यक वाक, सम्यक आजीव, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति तथा सम्यक समाधि ।

बौद्ध धर्म का उदय ही व्यक्तियों को सांसारिक दुःखों से छुटकारा दिलाने हेतु हुआ था।

(2) बौद्ध धर्म का प्रचार करना-

बौद्धयुगीन शिक्षा का अन्य महत्वपूर्ण उद्देश्य था बौद्ध धर्म का प्रचार करना । जिस तरह ब्रिटिशकालीन शिक्षा का उद्देश्य ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार करना था उसी तरह बौद्धयुगीन शिक्षा का उद्देश्य बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करना था। बौद्ध संघों में निवास करने वाले बौद्ध भिक्षु एवं भिक्षुणियों को बौद्ध धर्म का प्रचार करने हेतु उच्च शिक्षा प्रदान की जाती थी। ये बौद्ध भिक्षु एवं भिक्षुणियाँ उच्च शिक्षा प्राप्त करके देश एवं विदेश में बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे।

(3) का सर्वांगीण विकास करना-

बौद्धयुगीन शिक्षा व्यक्ति के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास पर बल देती थी। इसलिए इस युग की शिक्षा में शिक्षार्थियों का शारीरिक एवं मानसिक विकास करने हेतु अनेक साधन एकत्रित किये जाते थे । बौद्ध भिक्षुओं के ज्ञान का विकास करने के लिए बौद्ध मठों में समय-समय पर वाद-विवाद, भाषण एवं प्रश्नोत्तर जैसी क्रियाओं का आयोजन किया जाता था। इसके अतिरिक्त शिक्षार्थियों को कला-कौशल, ज्योतिष, भूगर्भशास्त्र, सैनिक शिक्षा आदि भी प्रदान की जाती थी। इनके द्वारा शिक्षार्थियों का सर्वांगीण विकास किया जाता था।

(4) शिक्षार्थियों को भावी जीवन हेतु तैयार करना-

शिक्षार्थियों को भावी जीवन हेतु तैयार करने के लिए बौद्ध काल में धार्मिक शिक्षा के अलावा व्यावसायिक, वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी की शिक्षा प्रदान की जाती थी। इन विषयों का ज्ञानार्जन कर शिक्षार्थी अपना जीविकोपार्जन सरलता से कर सकता था। कृषि, वाणिज्य, शिल्पकला तथा ललित कलाओं को सिखाने हेतु समुचित प्रबन्ध इस युग में किया जाता था। इसके अतिरिक्त बौद्धयुगीन शिक्षा शिक्षार्थियों में अनेक मानवीय गुणों का विकास करती थी, जिससे शिक्षार्थी भावी जीवन में पूर्णतः स्वावलम्बी एवं आत्मनिर्भर बन सकें न कि समाज पर भार बनकर जियें।

(5) चारित्रिक विकास करना-

शिक्षार्थियों के चरित्र का विकास करना बौद्धयुगीन शिक्षा का एक अन्य महत्वपूर्ण उद्देश्य था। बौद्ध मठों एवं संघों में भिक्षु-भिक्षुणियाँ एक स्थान पर नहीं रह सकते थे। सदाचार, अहिंसा, संयम इत्यादि पर पूर्ण ध्यान दिया जाता था। चूँकि बौद्ध भिक्षु सामान्य जनता को उपदेश देते है इसलिए उनसे धर्मानुयायियों को चरित्र निर्माण की सच्ची शिक्षा मिलती थी।

बौद्धकालीन शिक्षा की मुख्य विशेषताएँ (Main Characteristics of Buddhistic Education)

बौद्धकालीन शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-

1) प्रबज्जा अथवा पबज्जा-

वैदिक काल में जिस प्रकार प्रविष्ट होने के पूर्व उपनयन संस्कार आदि सम्पन्न होता था, उसी प्रकार बौद्ध संघ में प्रविष्ट होने के लिए भी एक प्रणाली प्रचलित थी इसको पबज्जा कहते हैं। पबज्जा (प्रबज्जा) का शाब्दिक अर्थ ‘बाहर जाना’ है तथा इस प्रथा के अनुसार भावी भिक्षु अपने परिवार से बाहर आकर बौद्ध संघ में प्रवेश करता था।

पबज्जा ग्रहण करने की अवस्था 8 वर्ष निर्धारित थी। संघ में प्रविष्ट होने पर 12 वर्ष तक शिक्षा ग्रहण करनी पड़ती थी। इस अवधि में नवीन भिक्षु, संघ के जीवन के अनुरूप अपर्ने को तैयार करता था। इसके उपरांत 20 वर्ष की अवस्था में वह ‘उपसम्पदा’ ग्रहण करता और संघ का पूर्ण सदस्य बनता था। पबज्जा के बाद नवीन भिक्षु ‘सामनेर’ कहलाते थे।

बालक को सिर मुंडा, पवित्रता धारण कर उपाध्याय के सम्मुख जाना पड़ता था व संघ में प्रवेश की अनुमति देने की प्रार्थना करनी थी। संघ में प्रविष्ट होने के पूर्व बालक को ‘शरणत्रयी’ लेनी पड़ती थी- (बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघ शरणं गच्छामि )

इस ‘शरणत्रयी’ के पश्चात बालक को संघ में प्रवेश प्राप्त हो जाता था और वह ‘श्रमण’ कहलाने लगता था। इस संस्कार का संपादन 8 वर्ष की उम्र में होता था। माता-पिता की अनुमति के बिना बालक का प्रवेश संघ में नहीं होता था।

संघ में उन लोगों का प्रवेश निषिद्ध था जिन्हें कोई छूत के रोग होते थे, अथवा अंगहीन होते थे। राज्य के कर्मचारियों, दासों, सैनिकों तथा अभियुक्तों का प्रवेश भी निषेध था। जाति भेद न होते हुए भी अशिष्ट, चरित्रहीन व भ्रष्ट लोगों को संघ में प्रविष्ट होने की अनुमति नहीं थी।

(2) उप-सम्पदा-

ब्राह्मणीय शिक्षा के समावर्तन संस्कार की भांति इसमें उप-सम्पदा’ संस्कार था । समावर्तन के पश्चात् ब्रह्मचारी गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता था पर उप-सम्पदा के बाद ‘श्रमण पूर्ण ‘भिक्षु’ हो जाता था। यह संस्कार 20 वर्ष की अवस्था में किया जाता था। सीधे उपसम्पदा ग्रहण कर संघ के स्थायी सदस्य बन जाते थे।

पबज्जा ग्रहण करते समय आठ वर्ष का नव भिक्षु गुरु के निकट जाकर हाथ जोड़कर कहता था कि-“आप मेरे उपाध्याय हैं।” और एक पक्षीय सम्बन्ध स्थापित हो जाता था किन्तु उपसम्पदा समस्त भिक्षुओं के सम्मुख एक उत्सव के रूप में होता था। इसके संपादन की प्रणाली पूर्व जनतंत्रवादी थी। बहुमत से इसका संपादन होता था। श्रमण भिक्षु धारण करके हाथ में कमंडल, एक कंधे पर चीवर लेकर अन्य भिक्षुओं को प्रणाम करके, हाथ जोड़कर बैठ जाता था। वहीं वह अपने उपाध्यान (उपाध्याय) को चुनता तथा इस प्रकार उपसम्पदा संस्कार समाप्त हो जाता। सम्पादन के समय कम से कम दस सदस्यों की उपस्थिति अनिवार्य थी पर छोटे संघों में पाँच सदस्य ही आवश्यक थे।

(3) गुरु की योग्यता व कर्त्तव्य को प्रधानता देना-

इस काल में वही भिक्षु शिक्षक हो सकता था जो कम से कम दस वर्ष तक स्वयं भिक्षुक रह चुका हो व साथ ही उसका शुद्ध आचरण, पवित्र विचार, विनम्रता आदि गुणों से विभूषित होना भी जरूरी था । मानसिक क्षमता भी शिष्य को धर्म व विनिमय की शिक्षा देने के लिए अनिवार्य थी।

बौद्ध काल में गुरु को उपाध्याय कहा जाता था। उनका कर्त्तव्य होता था शिष्य को स्नेहपूर्वक शिक्षा प्रदान करना तथा दैनिक कार्यों के अन्तर्गत किसी भी आवश्यक वस्तु की कमी होती तो उसका प्रबन्ध करता था। शिष्य के शारीरिक तथा मानसिक विकास का पूर्ण उत्तरदायित्व उसी पर था। शिष्य के बीमार पड़ने पर पूर्ण सेवा करता था।

(4) शिष्य की दिनचर्या का महत्व-  

बौद्ध शिक्षा प्रणाली में नियमित रूप से गुरु की सेवा करना छात्र के लिए अनिवार्य था और वास्तव में गुरु सेवा शिक्षा का ही एक अविच्छिन्न अंग था। गुरु के भिक्षाटन के लिए वस्त्र तथा पात्र आदि प्रस्तुत कर वह उनकी इच्छानुसार उनके साथ भिक्षाटन के लिए भी जाते थे, केवल भिक्षा ग्रहण कर लेने पर शिष्यों को ही पहले लौटना पड़ता था क्योंकि गुरु के हाथ-पैर धोने, वस्त्र परिवर्तन तथा विश्राम की व्यवस्था करना उनका ही कार्य था । शिष्य को गुरु की शारीरिक सेवा के अतिरिक्त उनके निवास स्थान को भी स्वच्छ रखना पड़ता था। उसकी दिनचर्या गुरु के आदेशों पर अवलम्बित थी। शिष्य, गुरु का पूर्ण अनुशासन मानता था।

(5) गुरु-शिष्य सम्बन्ध-

वैदिक शिक्षा के समान इस काल में गुरु-शिष्य सम्बन्ध में वही पवित्रता विद्यमान थी। उन दोनों का सम्बन्ध घनिष्ठ, स्नेहयुक्त तथा सम था। दोनों के पृथक्-पृथक् कर्त्तव्य निर्धारित थे। गुरु अत्यन्त सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करते व उनकी आवश्यकताएँ भी सीमित होती । ह्वेनसांग के लेखों से स्पष्ट होता है कि विहारों में रहने वाले गुरु अत्यन्त उद्भट विद्वान थे।

बौद्धकालीन शिक्षक न्यूनतम वेतन ही पाते थे। प्रख्यात शिक्षकों को साधारण विद्यार्थियों की अपेक्षा केवल तीन गुना ज्यादा व्यय करने को मिलता था।

बौद्ध शिक्षा-प्रणाली में विद्यार्थी के कर्तव्य निर्धारित थे। उसे ‘सिद्ध विदारक’ कहा जाता था। गुरु, शिष् को पुत्र की भाँति रखता, सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति करता तथा किसी भी प्रकार का कष्ट न होने देता। शिष्य आचार्य के मानसिक कष्टों से परिचित होने पर उनके निवारण की चेष्टा करता था तथा इसके लिये वह धार्मिक वार्तालाप तथा इसी प्रकार के अन्य उपायों द्वारा गुरु का मन बहलाव कर उनका मानसिक कष्ट दूर करने का प्रयास करता।

अध्ययन करते समय शिष्य विनयपूर्वक विद्या लाभ करता तथा गुरु प्रश्नोत्तर व्याख्यान व शिक्षा आदि विभिन्न पद्धतियों द्वारा शिष्य का मानस जगत उद्भाषित करते थे।

गुरु-शिष्य दोनों ही संघ के आश्रित थे। अत: बौद्धकालीन शिक्षा में संघ की सत्ता सर्वोपरि थी। शिष्य का कर्त्तव्य था गुरु का कोई भी कार्य संघ की मर्यादा के प्रतिकूल होने पर त्रुटियों को संघ के समक्ष उपस्थित कर उचित दण्ड की व्यवस्था कर गुरु के उचित प्रायश्चित के बाद उनके पुनः स्थापन के लिए अनुरोध करे। गुरु-शिष्य सम्बन्ध आदर्शपूर्ण क्षमता का सम्बन्ध था तथा दोनों ही एक-दूसरे से सुधार के लिए प्रयत्नशील थे।

(6) बौद्ध काल में छात्रों की संख्या, निवास स्थान, भोजन तथा रहन-सहन-

एक भिक्षु ही एक नवीन भिक्षु को शिक्षा दे सकता था। बुद्ध ने समर्थ शिक्षकों को ज्यादा शिष्यों को भी शिक्षा देने की स्वीकृति प्रदान की है। भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं को मठों व विहारों में रहने की आज्ञा प्रदान की थी। नालन्दा आदि विश्वविद्यालयों के भग्नावशेषों से ज्ञात होता है कि वहाँ हजारों विद्यार्थियों के रहने की व्यवस्था थी। इस प्रकार बौद्धकालीन शिक्षा प्रणाली रीढ़ प्रशस्त विहार या मठ थे जहाँ कि 1,000 भिक्षु रहते थे। कुछ विद्यार्थी मठों मे गुरु के पास न रहकर स्वयं अपने घर में रहते थे। बनारस के राजकुमार जुन्ह की कथा जातक ग्रन्थों में मिलती है।

बौद्ध भिक्षुओं का जीवन बहुत सात्विक था। सादा जीवन तथा उच्च विचार ही उनका उद्देश्य होने क कारण उनमें सात्विकता, विनम्रता, कर्त्तव्य-परायणता तथा परोपकारिता से ओत-प्रोत उनका जीवन अनुकरणीय था और अहिंसा व सत्य पालन उनकी सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषतायें थीं। कभी-कभी नागरिकों की ओर से गुरु व शिष्यों के भोजन का निमंत्रण भी मिलता था। सुगंधि, नृत्य और संगीत का उनके लिए निषेध था।

(7) व्यावहारिक विषयों की शिक्षा-

बौद्धकालीन शिक्षा पद्धति में व्यावहारिक विषयों की शिक्षा व्यावहारिक रूप से ही प्रदान की जाती थी। विद्यार्थीगण कुशल मिस्त्रियों के साथ रख दिये जाते थे। उनके साथ रहकर वे विभिन्न विषयों का व्यावहारिक ज्ञान पाते थे।

(8) स्त्री-शिक्षा-

बौद्ध काल में स्त्री-शिक्षा का भी प्रमुख स्थान था। उस समय साधारण स्त्रियों के लिए शिक्षा की व्यवस्था नहीं थी। केवल राजाओं, महाराजाओं व धनसम्पन्न लोगों के घरों की स्त्रियाँ ही शिक्षा प्राप्त कर सकती थीं।

(9) जनसामान्य की शिक्षा-

प्राचीन काल में सामान्य जनता की शिक्षा का सुव्यवस्थित प्रबन्ध कोई नहीं था। इस ओर बौद्ध आचार्यों ने ही सबसे पहले ध्यान दिया। इसी आधार पर यह कहा जाता है कि बौद्ध धर्म ने शिक्षा को जनतान्त्रिक बना दिया।

(10) व्यावसायिक या औद्योगिक शिक्षा-

मठ में भिक्षुकों को शिष्यों से सीखने की आज्ञा थी। महावाग में कातने, बुनने व सिलाई करने का साक्ष्य मिलता है । इस युग में आयुर्वेद व शल्य विज्ञान की पर्याप्त उन्नति हुई। जीविक कुमार मच्च उस युग का प्रसिद्ध चिकित्सक व शल्य विद्या विशेषज्ञ था। चिकित्सा शास्त्र के अध्ययन का केन्द्र तक्षशिला था। यहाँ राजगृह इत्यादि सुदूर स्थानों से विद्यार्थी शिक्षा पाने आते थे।

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Pankaja Singh

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