राजनीति विज्ञान

प्राचीन राजनीतिक दर्शन में स्थित दार्शनिक एवं सामाजिक विचार

प्राचीन राजनीतिक दर्शन में स्थित दार्शनिक एवं सामाजिक विचार | Philosophical and social ideas based in ancient political philosophy in Hindi

प्राचीन राजनीतिक दर्शन में स्थित दार्शनिक एवं सामाजिक विचारों की व्याख्या

प्राचीन राजनीतिक शास्त्र के सभी माननीय ग्रंथ चाहे वह किसी भी काल में लिखे गए हो समाज एवं राज्य के उसी एक रूप का वर्णन करते हैं जो त्रिकालदर्शी ऋषियों, मुनियों एवं विचार कौन द्वारा अनुभूत है कुछ लोगों की मान्यता है कि यहां पर धर्म शास्त्रों एवं अर्थ शास्त्रों की दो भिन्न परंपरा हैं। धर्मशास्त्र पारलौकिक जीवन को महत्व देते हुए धर्म के अनुसार राजनीति को चलाने का अनुरोध करते हैं जिन्हें हमराज़ धर्म के रूप में देखते हैं। अर्थशास्त्र की परंपरा अलौकिक है। अर्थात पश्चिमी विचार को के समान केवल सांसारिक बुद्धि से सांसारिक जीवन को ही प्रमुखता देते हुए राज्य पर विचार किया। इसमें नीति को प्रमुखता दिया गया है परंतु अर्थशास्त्र के प्रमुख ग्रंथों को देखने से यह भ्रम मिट जाता है क्योंकि अर्थशास्त्र ओं का भी अंतिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति हुई है। अर्थशास्त्र भी वर्णाश्रम व्यवस्था का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति ही बताते हैं। तथा धर्म शास्त्रों के सभी नियमों को मानकर चलते हैं।

  • सभी तत्वों की परमात्मा से उत्पत्ति

प्रत्येक राजनीतिक विचारों (तत्वों)का प्रारंभ परमात्मा से होता है जो इस समस्त जात में व्याप्त है। जगत की उत्पत्ति एवं विनाश हेतु विभिन्न सत्ताओं एवं संस्थाओं का निर्माण करता है वही इस संसार को प्रकाशित करता है। (विचार वान बनाता है)वह संसार का सृजन करता एवं पालन करता संघार करता है। वह ब्रह्मा के रूप में सृष्टि को बनाता है, विष्णु के रूप में से पालता है तथा अनीति, भय,आचरण होने पर वह शिव के रूप में संघार करता है। रुलाता है अतः राज्य की उत्पत्ति, स्थायित्व एवं ईश्वर कृपा एवं उसकी नियति पर आघृत है।

  • राजा के देवत्व गुणों का वर्णन-

समाज के रक्षण के लिए ईश्वर ने जिस सत्ता का निर्माण किया है उसे देवता, राजा, दंड आदि शब्दों से जाना जाता है। देवता को राजा कहने के पीछे पश्चिमी देवी सिद्धांत की भावना नहीं है क्योंकि जब तक राजा समाज का रक्षण ठीक प्रकार से करता है तब तक वह देवता है। परंतु यदि वह समाज को त्रास देता है, उनका भाषण करता है तो वह राक्षस है अतः राजाओं को देवत्व गुण धारण करना अनिवार्य था। राक्षसी राज्य का अंत करने का अधिकार प्रजा को या इसी से धर्म ग्रंथों में ईश्वर एवं राक्षसों का युद्ध वर्णित है और अंत में ईश्वर की विजय सुनिश्चित थी। अनैतिक, अधार्मिक आचरण राजा के लिए मान्य नहीं था।

  • जीवन का लक्ष्य मोक्ष

इस सृष्टि के रचयिता जो ब्रह्मा है मनुष्य उसी का अंश है। ईश्वर ही अंतिम सत्य है। सर्वतेजमय है, नश्वर है, निर्विकार है, सुक्ष्म है अतः उसकी प्राप्ति ही मनुष्य के जीवन का अंतिम लक्ष्य है। जगत-मिथ्या है अतः जगत एवं राज्य में प्रत्येक आचरण ऐसा होना चाहिए जो मनुष्य को ईश्वर से तादात्मक स्थापित करने में सहायक हो। आध्यात्मिक जीवन भारतीय संस्कृति का मूल है तथासंपूर्ण राजनीतिक विचारों का केंद्र बिंदु भी। राज्य को ऐसे नियम विज्ञान बनाना चाहिए जिसके अनुसार आचरण करके मनुष्य मानवीय दुर्बलता ओं पर विजय प्राप्त कर सके तथा उसमें ईश्वरत्त्व की उत्पत्ति हो अर्थात वह नैतिक एवं अनैतिक का भेद करने में सक्षम हो। धर्मपूर्ण आचरण करके ईश्वर के समीप पहुंच सके। संसार के लोभ से ऊपर उठकर जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो सके।

  • संसार की वास्तविकताओं का वर्णन-

यह ठीक है कि संसार बिना सकती है अतः मिथ्या है परंतु इस संसार में धर्म, सुख, दुख, हानि-लाभ, सत्य-असत्य, उचित-अनुचित का ज्ञान कराता है। संसार को मिथ्या समझकर इसका त्याग लाभप्रद नहीं है। बल्कि मानव सेवा में आत्मा को लीन रहना चाहिए। अपनी जातिगत एवं स्थानीय प्रथाओं का पालन करना चाहिए। समाज जो दायित्व सौपें उनका पालन मनुष्य को करना चाहिए इसी कारण भारतीय वर्ण व्यवस्था में व्यक्तियों को उनकी योग्यता अनुसार कार्य सौंपे गए। संसार का कर्म भूमि एवं धर्म धरा के रूप में साहित्य में वर्णन है।

  • अर्थ एवं काम के सांसारिक महत्वों का वर्णन-

जीवन का श्रेष्ठतम लक्ष्य मोक्ष है परंतु दूसरी ओर जो इन तक नहीं पहुंच सकते हैं उनके लिए सांसारिक लक्ष्य अर्थ और काम भी माने गए हैं। काम का अर्थ सिर्फ स्त्री-पुरुष संबंध ही नहीं माना गया है परंतु सभी प्रकार के सुखों एवं कामनाओं की अनुभूति है अर्थ के अंतर्गत सभी प्रकार की सत्ताएं आती है जो मनुष्य को श्रेष्ठता  प्रदान करती है जिसमें प्रमुख धन और राज्य है। मनुष्य को अस्थाई सुखों की प्राप्ति की ओर शास्त्रों में रवित किया है। उसे स्थाई सुखों की प्राप्ति से ही उसके मन से लालसा छूटती है। स्वार्थ नष्ट हो जाते हैं। सांसारिक कामना शेष नहीं रह जाती है। अतः कामना पूर्ण ना होने पर उसका मन दुखी नहीं होता और मनुष्य निरंतरसुख धारा पर संभव हो पाता है। अतः राजा को अर्थ एवं काम के सही नियोजन का परामर्श शास्त्रों में दिया है।

  • सामाजिक जीवन में धर्म के सर्वोपरिता का वर्णन-

भारतीय जीवन के मनुष्य के जीवन का चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम मोक्ष है। धर्म का अर्थ है- धारण करना अर्थात जो उचित है वही आचरण करें। धर्म का दूसरा स्वरूप है मर्यादा धर्म सांसारिक सुखों तथा स्वार्थों पर मर्यादा लगाते हुए अर्थ एवं काम का उपभोग मर्यादित ढंग से करने का निरवचन करता है (अतः मनुष्य धीरे-धीरे क्रमशः उन से विरक्त होता हुआ मोक्ष की ओर प्रवृत्त हो। इस कारण धर्म भारतीय व्यवस्था में उसके सभी अंग अर्थात सभी अवस्था चाहे साधारण काल हो अथवा आपातकाल। सभी व्यक्तियों चाहे वे ब्राम्हण हो, छत्रिय हो, वैश्य हो, शूद्र हो, राजा हो, मंत्री हो, व्यापारी हो या न्यायधीश हो मर्यादित रखता है।धर्म के कारण समाज में स्थापित व्यवस्था संघर्ष विहीन समन्वयात्मकतथा सुखी होता है। धर्म को राज्य से ऊपर माना गया है। इसी से कहा गया है कि धर्म छत्रिय का भी नियमता है अर्थात राज्य में सभी धर्म के अधीन हैं।

राज्य के लिए आवश्यक था कि वह धर्म के अनुसार चलें।समाज से धर्म का पालन कराए तथा समाज की व्यवस्था धर्म के अनुसार करे मनमानी ना करें

  • जीवन में अर्थ के महत्व का निरूपण

अर्थ का अर्थ धन है जिसके द्वारा मनुष्य सुख हो के साधन झुकाता है। अतः राज्य व्यक्तियों के सुखी जीवन में बाधा न आने दे तथा उसकी वृद्धि में आवश्यक सहायता करें। शांति फोर्ड में कहा गया है कि अर्थ से ही सब कार्यों का आरंभ होता है।जिस प्रकार जीवन देने वाले पानी के स्रोतों का उद्गम पर्वतों से होता है उसी प्रकार मनुष्य के सभी कार्य अर्थ से ही उत्पन्न होते हैं। अर्जुन अर्थ का महत्व बताते हुए महाभारत में कहते हैं अर्थ ही सभी कर्मों को योग्यता से करने में सहायक होता है। श्रुति के अनुसार धर्म और काम,अर्थ से ही संभव है। अर्थ की सिद्धि होने से उन दोनों की सिद्धि हो जाएगी। अर्थ के बिना न काम संभव है न धर्म। अर्थ का महत्व बताते हुए नकुल कहते हैं जो धर्मार्थ से युक्त है वह है आपके लिए (राजा) अमृत के समान होगा। सबसे पहले धर्म पूर्ण आचरण करें तब धर्म से युक्त अर्थ काय और फिर उसके पश्चात काम का सेवन करें। विदुर ने भी कहा। राजन धर्म ही श्रेष्ठ गुण है अर्थ माध्यम है तथा काम सबसे लघु ऐसा मनीषी लोग कहते हैं।

  • उन्नति त्रिगुण पर आधारित-

मनुष्य को धर्म पुरवा का अर्थ एवं काम का उपयोग करते हुए क्रमशः मोक्ष की ओर बढ़ना चाहिए। इस त्रिगुण को यदि मनुष्य पालन करता हैतो उसकी उन्नति होती है अन्यथा इसके विपरीत दिशा में जाने से अर्थात संसार के सुखों में लिप्त होने पर उसकी अवनति होती है।  त्रिगुणका पालन भारतीय धारणा के अनुसार उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है। मनुष्य की उन्नति एवं योग्यता का मापक त्रिगुण है। मोक्ष के लिए मनुष्य को तमोगुणी एवं रजोगुणी ही होना आवश्यक है।

  • पुनर्जन्म में विश्वास

साधारण तथा किसी जीव का इतनी जल्दी इतना उन्नति करना संभव नहीं है कि केवल एक ही जन्म के पुण्य से वह जगत के आवागमन से मुक्ति प्राप्त कर ली। इस कारण भारतीय दर्शन से यह माना गया है कि जीवन के अनेकों तथा विविध जन्म होते हैं। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है ‘मनुष्य में पूर्व जन्म के संस्कार पाए जाते हैं’ अर्थात मनुष्य अपने रूप, परिवार, कुल, जाति, संस्कार आदि अपने पूर्व जन्म के कर्म के अनुसार प्राप्त करता है।

छंदोंपनिषद के अनुसार जो जीव अच्छे आचरण करते हैं वह उत्तम योनि (मनुष्य) को प्राप्त होते हैं पूरे बयान जो बुरा आचरण करते हैं वह कुत्ते, सूअर, चांडाल योनि प्राप्त करते हैं। यह बात संपूर्ण भारतीय विचारधारा को मान्य है।

  • मनुष्य योनि जन्मगुण और कर्म पर आधारित-

पूर्वजन्म से कर्म फल का सिद्धांत जुड़ा है। मनुष्य के समस्त आचरण फल (हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश, सुख-दुख) परमात्मा द्वारा नियत है। यह सब उसके पूर्व-जन्मो का कर्म फल पर आधारित है कि ईश्वर उसे क्या देगा। मनुष्य को धर्म में आचरण करते हुए ईश्वर द्वारा प्रदत्त सुख- दुख को धैर्य पूर्वक प्रदर्शित करना चाहिए।

  • यज्ञदान उपवास एवं उपासना में आस्था

मनुष्य को उन्नति के मार्ग पर बढ़ने के लिए चित्र की शुद्धता, आवश्यक होती है। इसके साधन हैं देव पूजा, संध्या बंदना,जप, स्वध्याय, तीर्थ यात्रा, दान, तप, हवन, यज्ञ, उपवास, भजन आदि। दान का अर्थ है केवल धन या अन्य कोई वस्तु किसी को दे देना मात्र नहीं है। इसका अर्थ है उस व्यक्ति का निर्माण जिसके आधार पर व्यक्ति अपना स्वार्थ छोड़कर समाज को समर्पण करने के लिए प्रस्तुत रहता है। दान का अर्थ है विशेष रूप से उनकी मदद करना जो अपना पालन-पोषण करने में असमर्थ रहते हैं अथवा जो समाज के कल्याण के लिए अपना जीवन जी रहे हैं उनकी सहायता करना। राजा यदि धान में अंतर्निहित गुणों एवं भावों को धारण करेगा तो वह मैं स्वार्थी होगा तथा व्यक्तिगत सुखों की तुलना में समाज हित की चिंता करेगा। यज्ञ शुद्ध ‘यज’ धातु से बना है जिसका अर्थ है उन कार्यों को करना जिससे देवता प्रसन्न हो। स्मृतियों में राजाओं के पांच यज्ञ बताए गए हैं।

  • दुष्टों को दंड
  • सज्जन की पूजा
  • न्याय पूर्ण साधनों से कोष वृद्धि
  • न्याय मांगने वाले के प्रति पक्षपात रहित आचरण
  • राष्ट्र की रक्षा
  • समाज व्यवस्था

भारतीय समाजशास्त्रियोंके ऊपर युक्त वातावरण निर्माण करने वाली एक ऐसी समाज की रचना की और उसी से संलग्न राज्य व्यवस्था तैयार की जिसमें व्यक्ति की उन्नति भी हो सके तथा सामाजिक सुरक्षा भी रहे। समाज वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित था।

  • वर्णाश्रम व्यवस्था

वर्णाश्रमव्यवस्था द्वारा समाज में सभी वर्गों को नियंत्रित रखा गया था। वर्ण व्यवस्था में ब्राम्हण धर्म का प्रतीक था पूर्णविराम उन सब वर्गों से श्रेष्ठ स्थान देकर धर्म का अर्थ और काम के ऊपर नियंत्रण रखकर मनुष्य विभिन्न जन्मों में काम प्रधान शूद्र, अर्थ प्रधान,वैश्य, धर्म-अर्थ का समन्वय करने वाला क्षत्रिय तथा धर्म प्रधान ब्राम्हण इन विभिन्न श्रेणियों के माध्यम से बढ़ता जाता है। आश्रम व्यवस्था द्वारा व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक व्यक्ति अपनी उन्नति करता है।

व्यक्तिगत उन्नति करना ही नहीं सामाजिक उन्नति भी वर्णाश्रम व्यवस्था का उद्देश्य था। इस व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति की योग्यता के अनुसार कार्य विभाजन कर दिया गया था। प्रत्येक को अपने कार्य में पूर्णता प्राप्त करने का पूरा अधिकार था। सम- विभाजन का इतना पूर्ण और व्यवस्थित रूप नहीं और देखने को नहीं मिलता। इस सम-विभाजन को इतने व्यवस्थित रूप में रखा गया था कि परस्पर सहयोग द्वारा समाज में शांति-व्यवस्था तथा उन्नति के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके।

वर्ण शुद्ध का अर्थ- र्ण शुद्ध के अनेक अर्थ है। डॉक्टर भगवान दास ने वर्ण की व्याख्या करते हुए कहा ‘वृ’ धातु से बना है। जिसका अर्थ है अच्छा देना अर्थात जो वर्ण के योग्य हो। वर्ण का अर्थ है विभिन्न  कार्यों के लिए योग्यतानुसार चुनाव वर्ण शुद्ध रंग का भी पर्यायवाची है। इससे यह भी अर्थ निकलता है कि श्वेत आर्य जो बाहर से आए तथा देश के अंदर रहने वाले काले द्रविड़ आदि जातियों के विभाजन का बोध रखने वाली व्यवस्था। यह तो ठीक है कि वर्ण शुद्ध रंग का प्रतीक है तभी चारों वर्णों को श्वेत, रक्त, पीत, कृष्ण वर्ण का प्रतीक माना गया है। यह एक विचारणीय प्रश्न है कि वर्ण शुद्ध का प्रयोग पहले किस अर्थ में हुआ। रंग के रूप में या जातियों के अर्थ में। वर्ण धातु अर्थ में गुण से संबंधित है। अतः यही संभावना अधिक प्रतीत होती है कि इस शुद्ध का प्रयोग 4 जातियों के अर्थ में हुआ और फिर क्योंकि इन जातियों के गुणानुसार कुछ रंग भी आरोपित थे इस कारण बाद में इस शुद्ध का ‘रंग में आमंत्रित करना’ अर्थ में भी प्रयोग होने लगा।

ब्राम्हणसमाज व्यवस्था में सर्वश्रेष्ठ स्थान ब्राम्हण को प्राप्त था। संतोष, क्षमा, शांति, उदारता, संयम, अनुशासन, त्याग, उच्च चरित्र आदि सब गुणों के प्रतिमूर्ति के रूप में ब्राह्मण की कल्पना की गई तो उसे श्रेष्ठ स्थान समाज में मिलता ही था। शांति पर्व में कहा गया है कि जो वेदाध्ययन करता हुआ प्रतिदिन हवन, यज्ञ, और अतिथि सत्कार करता हो वही ब्राह्मण है। जो सदाचारी, सत्यव्रत, गुरु प्रिय और सत्य पारायण रहकर ब्रह्मणों को भोजन कराकर बचा हुआ अन्न खाता हो जो दया, कोमलता,, क्षमा और तपस्या में लगा रहता हैवही ब्राम्हण है। ग्रामीणों के गुणों का वर्णन भारत के अनेकों धार्मिक पुस्तकों में है।

कर्तव्यतीन लोक (समाज) तीन भेद तथा तीनों अग्नि (आचार) तेरा चाहे तो ब्राम्हण की सृष्टि हुई है। राम हर धर्म का अविनाशी शरीर है वह धर्म के लिए ही उत्पन्न हुआ है अतः पृथ्वी पर वह सबसे श्रेष्ठ माना गया है।

पवित्र जीवन ब्राह्मण के लिए अनिवार्य था कि वे सब कार्य जो समाज व्यवस्था को दूषित करने वाले वह ब्राह्मणों को करना वर्णित है। बुरे आचरण से लिप्त ब्राह्मणों को दान देना वर्जित किया गया है। जो सामाजिक जीवन की दृष्टि से आदर्श प्रस्तुत करने में असमर्थ हैं उनको ब्राह्मणों में स्थान देना वर्जित था।

जीविका के नियम ब्राह्मणों के लिए सुनिश्चित था। उन्हें धन से विरक्त रहने की शिक्षा दी जाती थी। उन्हें संतोष के साथ त्याग पूर्ण जीवन व्यतीत करना पड़ता था। ब्राह्मणों के जीविका के तीन साधन बताए गए हैं- पठन-पाठन यज्ञ करना तथा दान लेना। पढ़ाने के लिए निर्देश दिए गए हैं कि ब्राह्मण धर्म के लिए न पढ़ाएं दक्षिणा के लिए यज्ञ न कराएं तथा दान पाने के लिए श्राद्ध न कराएं। ब्राह्मणों को ही भावी संतति को शिक्षित करने में समर्थ माना गया है।वह मनुष्य को आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग पर बढ़ने की प्रेरणा देता है। ब्राह्मण को प्रायश्चित करने मार्गदर्शन करने तथा नीति न्याय का व्याख्याता का कार्य भी सौंपा गया है।

क्षत्रिय ब्राह्मणों के समान क्षत्रियों पर भी समाज का कुछ उत्तरदायित्व सौंपा गया है संविधान राज्य सत्ता के निर्वहन का भारतीय पर था। ब्राह्मणों के साथ क्षत्रियों को भी समाज के संरक्षण में धर्म को वे धारण कराते हैं। राजा और विद्वान, ब्राम्हण, नारद-पुराण का कथन-पृथ्वी क्षत्रियों के अधिकार में है उसकी आज्ञा में रहकर सब परम सुख को प्राप्त करते हैं।

क्षत्रिय शूद्र को नहीं सब का संरक्षण देने वाला क्षत्रिय को समाज का पालक तथा रक्षक माना गया है उसके तीन प्रमुख कर्तव्य बताए गए हैं- अध्ययन,दान और भजन। अध्ययन से उसे उचित अनुचित का ज्ञान प्राप्त होता है। दान द्वारा वह समाज का पोषण करता है। भजन के द्वारा वह समाज को सुसंस्कृत करता है कौन विराम शांति पर्व में कहा गया है कि यज्ञ करना, विद्या अर्जन करने, पावर उस में वृद्धि करने वाले कार्य संपत्ति एवं धन से संतुष्ट ना हो, दंड धारण करना, प्रजा पालन, वेद ज्ञान तथा दान देना क्षत्रियों के कर्तव्य है।

ब्राह्मण क्षत्रिय संबंध क्षत्रिय धर्म का ज्ञाता तो था परंतु समाज में ब्राम्हण को जो कार्य सौंपा गया था उस कारण से उसे क्षत्रिय की तुलना में श्रेष्ठ स्थान था। ब्राह्मणों के साथ अन्य वर्गों का भी महत्व था क्योंकि क्षत्रिय एवं वैश्य के अभाव में समाज का रक्षण एवं पूर्णतासंभव नहीं है। यदि राजसत्ता पर अंकुश रखने वाला वर्ग न हो तथा लोगों को अपने मर्यादा में रखने वाला वर्ग न हो तथा लोगों की सेवा करने वाला वर्ग न हो तो समाज की प्रगति नहीं हो सकती है। क्षत्रिय को प्रजा पीड़न से बचाने के लिए ब्राह्मणों का कर्तव्य है कि वह सभी वर्गों को उचित दिशा में ले जाएं।

वैश्य और अर्थव्यवस्था धर्म सत्ता एवं राज्य सत्ता के पश्चात अर्थ सत्ता का स्थान ब्राह्मण और क्षत्रिय के बाद आता है। समाज की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना वैश्य का काम था इसलिए उसके कार्यों में वार्ता को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया। शांति पर्व में कहा गया दान, अर्थ व्यवसाय, ईमानदारी से। धन का संचय करना पुत्र के समान पशुओं का पालन करना वैश्य का धर्म है। वैश्य का गुण शांति पर्व में बतलाया गया है कैकेय देश का राजा कहता है कि मेरे राज्य के वैश्य भी अपने कार्यों में लगे रहते हैं। वे छल कपट को छोड़कर खेती, गौ रक्षा और व्यापार से जीविका चलाते हैं प्रोग्राम प्रमोद में समय व्यतीत नहीं करते सदा कामों में लगे रहते हैं। उत्तम स्त्रोतों का पालन करते हैं सत्य भाषण करते हैं। इंद्रियों का संयम एवं पवित्रता नहीं छोड़ते हैं अर्थात वैश्यों को वृन्तिका, धितेंद्रिय, सावधान, क्रियाशील, सत्यवादी होना चाहिए।

  • वार्ता का महत्व

भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए प्राचीन ग्रंथों में वार्तानाम उल्लेखित है। इसके अंतर्गत कृषि, वाणिज्य तथा पशुपालन रखा गया है वन की व्यवस्था कृषि के अंतर्गत आ जाती है। खनिज पदार्थ वाणिज्य के अंतर्गत था।उत्पादन तथा वितरण भी वार्ता के अंतर्गत था। वार्ता का महत्व महाभारत तथा रामायण में वर्णित है दोनों में कहा गया है कि वार्ता पर आश्रित रहने से यह संसार सुख पाता है। कौटिल्य नेइसे उपकार करने वाली विद्या बतलाया है। इसका समाज के जीवन महत्व को समझा जा सकता है कि राजा को शिक्षा के पाठ्यक्रम में एक आवश्यक विषय बताया गया है क्योंकि समाज की योग्य व्यवस्था करने वाले राजा को यदि इसका ज्ञान नही है तो वह समाज का समुचित पालन नहीं किया जा सकता है।

शूद्रसमाज की तीन आवश्यकताओं ज्ञान,राजसत्ता और धर्म की व्यवस्था होने पर भी कुछ अन्य आवश्यक कर्म भी समाज में हैं। 3 वर्ग अपने अपने कार्य निश्चिंतापुर वर्क कर सके इस कारण शूद्र वर्ग का निर्माण किया गया जिसका कार्य तीनों वर्गों की सेवा करना। शूद्र वर्ग को तमो गुणों से युक्त होने के कारण सेवा कार्य सौंपा गया था। शूद्रों को भारतीय समाज व्यवस्था में निम्न स्थान अवश्य दिया गया था। फिर भी उसे समाज का आवश्यक वर्ग माना गया है। उसके प्रकृति जन्य-गुण (तमोगुण)के कारण उन्हें उत्तरदायित्व विहीन रखा गया। इन्हें व्यक्तिगत अनुशासन से मुक्त रखा गया है समाज गृहस्थ के लिए जो वैदिक आचार्य अनिवार्य बताए गए थे वह सुधारों के लिए आवश्यक नहीं थे। विवाह संस्कार के अलावा अन्य संस्कारों से भी उन्हें मुक्त रखा गया है।

  • जीवन रचना (आश्रम व्यवस्था)

जीव विमला जन्मो द्वारा अपनी उन्नति करते करते ब्राह्मण वर्ग तक पहुंचता है तब उसे पूर्णता (मोक्ष) मिलता है। आश्रम व्यवस्था के द्वारा मनुष्य उन्नति करता है व्यक्तिगत उन्नति के लिए ब्रम्हचर्य, गृहस्थ आश्रम,वानप्रस्थ आश्रम तथा संयास आश्रम इन चारों अवस्थाओं का पालन करना अनिवार्य था। प्रत्येक व्यक्ति तीन ऋण लेकर पैदा होता है। ऋषि ऋण, पृत ऋण और देवर एंड। तैतरीय संहिता मेंकहां गया है कि ब्रम्हचर्य में ऋषि ऋण पूर्ण होता है। गृहस्थ आश्रम में पृत ऋण और वानप्रस्थ में देव ऋण पूरा होता है तथा सन्यास द्वारा भ्रम हरण पूर्ण होता है।

यह आश्रम व्यवस्था विचार कौन है इसलिए श्रेष्ठ माना है क्योंकि इसके पालन से मोक्ष तक पहुंचना सिद्ध होता है।

सिर्फ आश्रम व्यवस्था ही समाज रचना का आधार नहीं होना चाहिए। उसका रक्षण व्यवस्था तथा विकास भी आवश्यक है। समाज में दुष्टों का अंत एवं सज्जनों की प्रगति की व्यवस्था भी होनी चाहिए। समाज की दुष्टों से रक्षा के निर्मित दंड चारी संस्था राज्य का भी निर्माण किया गया। जिसका मूर्त रूप राजा था जो दंड धारी था। उनका कर्तव्य समाज व्यवस्था को बनाए रखना तथा शांति, न्याय, विफल आदि को सुनिश्चित करना था।

राजनीति शास्त्र – महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: e-gyan-vigyan.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- vigyanegyan@gmail.com

 

About the author

Pankaja Singh

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!