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तौलिए एकाकी की व्याख्या | उपेन्द्र नाथ ‘अश्क’  की एकाकी तौलिए

तौलिए एकाकी की व्याख्या | उपेन्द्र नाथ अश्क’  की एकाकी तौलिए

तौलिए एकाकी की व्याख्या

भावनाओं की स्वतन्त्रता पर एकांकीकार ने प्रकाश डाला है।

  1. आदमी की आधारभूत भावनाओं पर नित्य नये दिन चढ़ते चले जाने वाले पदों का नाम ही तो संस्कृति है। सोसाइटी के एक वर्ग के लिए दूसरा वर्ग सदैव असम्भव और असंस्कृत रहेगा। फिर कहाँ तक आदमी सभ्यता और संस्कृति के पीछी भागे? और रही सुरुचि, तो यह भी अभिजात वर्ग की स्नॉबरी’ का दूसरा नाम है।

प्रसंग- ‘तौलिए’ एकांकी में अश्कजी ने संस्कार के विरुद्ध परिस्थितिजन्य मनोवैज्ञानिक संघर्ष को बड़ी ही सजीवता से हास्य-व्यग्य का पुट देकर प्रस्तुत किया है। बात-बात में संस्कृति, सुरुचि एवं शिष्टाचार की दुहाई देने वाली मधु अपने पति बसन्त के बनारस चले जाने पर अपने को बदलती है। उसकी सहेलियाँ-चिन्ती और सुरो- उसका यह परिवर्तन देखकर विस्मित रह जाती है, जब मधु बिस्तर पर ही चाय मँगा लेती है तो चिन्ती संस्कृति और सुरुचि के नाम पर उसके इस कार्य का औचित्य जानना चाहती है। मधु उसे बताती है कि संस्कृति मनुष्य की प्रकृति पर चढ़े हुए अप्राकृत पर्दे हैं और सुरुचि दूसरों को हीन समझाने की भावना।

प्रस्तुत अंश में बदली हुई मधु का संस्कृति और सुरुचि के सम्बन्ध यही बदला हुआ दृष्टिकोण व्यक्त हुआ है।

व्याख्या- मनुष्य कोई जड़ पदार्थ नहीं है। वह कुछ सहज प्राकृतिक भावनाओं से सम्पन्न होता है और इनकी स्वाभाविक अभिव्यक्ति चाहता है। जिसे हम संस्कृति कहते हैं, वह इन भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति को रोकती है। जैसे-जैसे मनुष्य इन भावनाओं को पर्त-दर-पर्त दबाता चला जाता है, हम उसे सुसंस्कृत मानते जाते हैं। सचमुच, संस्कृति केवल उन पदों का ही दूसरा नाम है जो नित्य मनुष्य की मूलभूत भावनाओं को दबाते जा रहे हैं। यह सत्य है कि समाज में हमेशा ही कुछ लोग अपनी मान्यताओं, विधि-निषेधों को सब कुछ मानते हुए दूसरों को गिरा हुआ मानेंगे। अतः समाज का एक वर्ग दूसरे वर्ग के लिए सदा असभ्य होगा, संस्कृति से विहीन होगा, बर्बर होगा। फिर ‘संस्कृति’ का क्या अर्थ ? संस्कृति, संस्कृति, संस्कति। आखिर मनुष्य अपनी प्राकृत भावनाओं को छोड़ कब-तक संस्कृति के लबादे को ओढ़े फिरे? हम बात-बात में संस्कृति के बन्धनों में तो बंधे नहीं रह सकते।

फिर बात आती है ‘सुरुचि’ की सो सुरूचि भी सच पूछा जाये तो समाज के विशिष्ट उच्च वर्ग की-दूसरों को हीन समझने की, छोटा, असभ्य, असंस्कृत समझने की भावना के अतिरिक्त और है ही क्या। हम ‘सुरुचि की दुहाई देकर अपने को सुरुचि सम्पन्न मानकर शेष मनुष्यों को सुरुचि से दूर होने के कारण अपने से छोटा और हेय सिद्ध करने की चेष्टा ही तो करते हैं। सचमुच, सुरुचि ‘स्नॉबेरी है, दूसरे को हीन समझने की भावना को दिया गया एक खूबसूरत सा नाम है।

विशेष- (1) मधु का बदला हुआ दृष्टिकोण देखा जा सकता है।

(2) सहज मनुष्यता का दम घोंटने वाली संस्कृति और सुरुचि के प्रति यह दृष्टिकोण वास्तव में मधु के पति का दृष्टिकोण है, जिसके लिए उसने अपने को बचाने का प्रयत्न किया है।

(3) जीवन विषयक यही दृष्टिकोण प्रतिपादित करना अश्कजी का भी अभीष्ट है।

(4) ‘सोसाइटी’ ‘स्नॉबेरी’ जैसे अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग भाषा की पात्रानुकूलता का प्रमाण देता है।

  1. मैंने तुमसे कितनी बार कहा है कि अपने भावों को छिपा लेना तुम्हारे बस की बात नहीं। तुम्हारी अपेक्षा तुम्हारा क्रोध, तुम्हारी समस्त भावनाएँ तुम्हारी आकृति पर प्रतिबिम्बित हो जाती हैं। तुम्हें मेरी आदतें बुरी लगती हैं, पर मैंने अँधेरे में नहीं रखा। अपने सम्बन्ध में अपने स्वभाव के सम्बन्ध में, सब कुछ बता दिया था। मैंने अपने सब पत्ते.………..।

सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘एकांकी-संग्रह’ में संकलित ‘तौलिये’ शीर्षक एकांकी से अवतरित किया गया है, जिसके लेखक सामाजिक समस्यावादी एकांकीकार ने प्रस्तुत एकांकी में सामाजिक एवं पारिवारिक समस्याओं को रेखांकित करने का सफल प्रयास किया है।

प्रसंग-अश्क‘ जी ने उच्च वर्ग की प्रतीक मधु तथा मध्यम वर्ग के प्रतीक बसन्त के बीच शिष्टाचार को लेकर चलने वाले संघर्ष को दिखाकर स्पष्ट किया है कि ‘अति हर चीज की बुरी होती है’ स्वच्छता अच्छी चीज है पर जब वह सीमा को लांघ जाये तब महत्वहीन हो जाती है और इसी को लेकर बसन्त मधु से कहता है।

व्याख्या- मधु तथा बसन्त में ‘तौलिये’ को लेकर होने वाले झगड़े को एकांकीकार बसन्त के माध्यम से समाज को जागरूक बनाने का प्रयत्न करता है। बसन्त मधु से कहता है- मधु हजामत के लिए मुझे एक तौलिया दे दो, तो वह व्यंग्य करती हुई कहती है कि चश्मा नहीं है तो आपको कहाँ दिखायी देगा, क्योंकि चश्में के होते हुए भी आपको कहाँ कुछ दिखायी देता है। इन्हीं बातों में मधु नाराज हो जाती है किन्तु वह व्यक्त नहीं होने देती है, तब बसन्त मधु से कहता है- मैंने तुमसे कितनी बार यह कहा होगा कि अपने भावों को तुम छिपा नहीं सकती, इसलिये तुम अपने भावों को छुपाया न करो। क्योंकि तुम अपने भावों को जब छिपाती हो तो वे भाव तुम्हारे चेहरे पर व्यक्त हो जाते हैं और तुम्हारा क्रोध मुझ पर प्रतिबिम्बित हो उठता है और मैं यह ही जानता हूँ कि तुम्हें मेरे कार्य पसंद नहीं हैं, किन्तु मैंने तुम्हें कभी अंधेरे में रखने का प्रयास नहीं किया है। अर्थात् मैंने अपनी रुचि, कार्य प्रणाली, शौक, सुख, दुख, हंसी-मौजमस्ती आदि सभी स्वभावों से तुम्हें मैंने परिचित करा दिया है, पुनः कहता हूँ कि मैंने अपने समस्त भावनाओं, इच्छाओं आदि के बारे में तुम्हें बता दिया है। मैंने तुम्हें कभी अंधेरे में रखने का प्रयास नहीं किया है।

  1. जो आदमी जी भर खा-पी.………..…कहीं अन्त भी है?

शब्दार्थ– मुसीबतों- आपत्तियों। जिन्दगी – जीवन। शिष्टाचार – दिखावा, प्रदर्शन। वर्जनाओं -निषेधों।

प्रसंग- उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ जीवन के सच्चे आलोचक हैं। घुटा-घुटा दूसरों से बात-बात में परहेज करने वाला जीवन भी कोई जीवन है। अपने को सभ्य सुसंस्कृत एवं सुरुचि सम्पन्न कहने वाले बहुत से लोग इन पर्दो से बाहर आकर स्वच्छन्द जीवन की प्राणदायक समीर का संस्पर्श प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं। अश्कजी के एकांकी तौलिए’ की मधु ऐसी ही है। उसके इस ‘सुरुचि’, संस्कृति’ और शिष्टाचार’ की चारदीवारी में कैद जीवन को उसका पति बसन्त सच्चा जीवन नहीं मानता।

प्रस्तुत अंश में अश्कजी ने बसन्त के माध्यम से अतिशय औपचारिकतापूर्ण जीवन पद्धति पर व्यंग्यात्मक करारा प्रहार किया है।

व्याख्या- सुरुचि और संस्कृति के नाम पर अपनी सफाई पसन्दगी की सनक का समर्थन मधु जैसे ही करती है, वैसे ही बसन्त उसे तर्क से खण्डन करता हुआ कहता है-

मनुष्य का जीवन स्वच्छन्दतापूर्वक व्यतीत करने के लिए है। यदि वह अपनी इच्छानुसार कार्य भी न कर सके, अपनी सहज स्वाभाविक अभिव्यक्ति न कर सके, तब वह मनुष्य ही कहाँ रह जायेगा? जो लोग स्वाभाविक ढंग से खा-पी भी नहीं सकते, जी भरकर हँस भी नहीं सकते, वे कितने अशक्त, असहाय और दीन हैं? चे जीवन में क्या करेंगे जो शिष्टाचार, संस्कृति आदि के नाम पर जीवन की सहजता ही गवा बैठे है? सोचो, मनुष्य के जीवन में पग-पग पर संकट है, संघर्ष है तथा नाना कष्ट हैं। हम इन्हीं में हर समय इतने जकड़े रहते हैं कि अपनी स्वच्छन्द सहज अभिव्यक्ति का अवकाश ही नही पाते। उस पर यदि और भी बन्धन हों- शिष्टाचार के तथाकथित सुरुचि और संस्कृति के तो हम कैसे जियेंगे? शिष्टाचार हमें खुलकर हंसने नहीं देता, सहज रूप में बोलने नहीं देता तब ऐसे शिष्टाचार की बेड़ियों में जकड़कर क्या हम जीवन को मारने का उपक्रम नहीं कर रहे हैं? तुम्हारा शिष्टाचार बात-बात पर टोकता है। कुछ करो कैसे ही बैठो, कैसे ही बोलो, उसमें शिष्टाचार की बन्दिश बीच में आ जाती है। निषेध ही निषेध। आखिर मनुष्य को किस सीमा तक उसकी स्वाभाविक अभिव्यक्ति से दूर ले जायेगा यह शिष्टाचार? नहीं, नहीं। इन सीमाविहीन अनन्त वर्जनाओं में जीवन को बांधना उसकी हत्या करना है। यह जीवन का सच्चा रूप नहीं कहा जा सकता।

  1. तुम मनुष्य की सहज भावनाओं.……………..पशु न बन जाऊँ।

शब्दार्थ- निमर्म वर्जनाएँ- कठोर निषेधात्मक आदेश- ऐसा न करो, वैसा न करो। रूह – आत्मा। विषाक्त विषभरी।

प्रसंग- दृष्टिकोणों का भेद कभी-कभी विग्रह उत्पन्न कर देता है। अश्क के एकांकी तौलिए’ में भी मधु और बसन्त के बीच तौलिए के प्रयोग से उठने वाला सामान्य विवाद इसीलिए कलह के रूप में बदल जाता है, क्योंकि इसके मूल में उन दोनों का दृष्टिकोणगत भेद काम कर रहा है। मधु ऊषी और निम्मो के मुक्त व्यवहार और स्वच्छन्छ हास की आलोचना करती है और अपने तथाकथित शिष्टाचार के नाम पर कहती है, जिसे बैठने, उठने, बोलने का सलीका नहीं, वह मनुष्य नहीं, पशु है। बसन्त इस पर बौखला जाता है। वह गरज पड़ता है कि मधु उसे पशु समझती है। तभी वह अपने दृष्टिकोण पर बल देते हुए मधु से कहता है कि मनुष्य का जीवन ऐसे अवरोधों के बीच नहीं चल सकता।

व्याख्या- बसन्त मधु से कहता है-

तुम स्वच्छन्द और उन्मुक्त व्यवहार करने वाले को पशु समझती हो, मुझे भी पशु समझती हो। तुम चाहती हो कि मनुष्य अपनी स्वाभाविक अभिव्यक्ति छोड़कर तुम्हारे शिष्टाचार के बोझ के नीचे दवा रहे। वह अपनी नैसर्गिक भावनाओं को कुचल दे, उन्हें ‘यह न करो, वह न करो’ जैसे कठोर निषेधों में जकड़ दे। इससे क्या मनुष्य की आत्मा मर न जाएगी? तुम्हारा बात-बात में सलीके की दुहाई देना क्या मनुष्य के सहज व्यवहार को विकृत करके उसे मार डालने का प्रयास नहीं है?

तुम जानती हो कि मुझे ये वर्जनाएँ, ये बन्धन, पग-पग परा हँसने, बोलने, उठने, बैठने में यह रोक टोक कतई स्वीकार नहीं है और यही कारण है कि तुम मुझसे घृणा करती हो। तुम्हारे लिये तो वही मनुष्य है जो सलीके के नाम पर अपनी भावनाओं के सहज उच्छलन को रोककर उनका गला घोंट दें। यह तुम्हारी व्यंग्यात्मक हँसी! ओह, कितना विष भरा है इसमें, कितनी घृणा छिपी है। मैं सब जानता हूँ । पर बताये देता हूँ मधु कि तुम जो मुझे पशु समझती हो, तो बहुत सम्भव है, तुम्हारी यह विषैली हँसी, तुम्हारी यह घृणा मुझे सचमुच किसी दिन पशु न बना दे। कहीं ऐसा न हो कि इस घृणा का गला घोंट देने के लिए मैं बर्बर हो उठूं।

  1. मुझे गंदगी से घृणा नहीं, किन्तु मैं गन्दगी पसन्द नहीं करता- बड़ा सूक्ष सा अन्तर है। यदि हमें जीवन का सामना करना है तो रोज गंदगी से दो-चार होना पड़ेगा। फिर इससे घृणा कैसी? जिन गरीबों को तुम अपने बरामदे के फर्श पर भी पाँव न रखने दो, मैं उनके पास घंटो बैठ सकता हूँ।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।

व्याख्या- अति सफाई के कारण बसन्त तथा मधु के बीच के तनाव को एकांकीकार ने व्यक्त किया है- बसन्त मधु से स्वच्छता तथा गन्दगी के महत्व को स्पष्ट करता हुआ कहता है कि मधु मुझे गन्दगी से घृणा नहीं है, किन्तु मैं गन्दगी को पसन्द भी नहीं करता है, इन दोनों के बीच बहुत थोड़ा सूक्ष्म सा अन्तर है। कहने का अर्थ यह है कि यदि मुझे गन्दगी में रहने के लिए कह दिया जाये तो भी मैं रह सकता हूँ मुझे कोई अत्यधिक परेशानी नहीं होगी। क्योंकि यदि हमें जीवन को सफलतापूर्वक, सुगमता से गुजारना है तो हमें जीवन के विविध पहलुओं से गुजरना पड़ेगा। अर्थात् अच्छे-बुरे दोनों प्रकार के व्यक्तियों से मिलना-जुलना पड़ेगा, बैठना पड़ेगा। फिर इन व्यक्तियों से, वस्तुओं से कैसी घृणा। जिन गरीब व्यक्तियों को तुम अपने घर के बरामदे की फर्श पर भी पैर नहीं रखने देती हो, मैं उन व्यक्तियों के पास घण्टों बैठ-उठ सकता हूँ अर्थात् जाति-पाति का हमें कोई भेद नहीं करना चाहिए।

  1. पशु! तो तुम मुझे पशु समझती हो? तुम मनुष्य को सहज भावनाओं को निर्मम वर्जनाओं की बेड़ियों में बँधकर रखना चाहती हो कि उसकी रूह ही मर जाये। मुझे यह सब पसन्द नहीं और इसलिए तुम मुझसे घृणा करती हो। तुम्हारी इस विषाक्त हँसी में, मैं जानता हूँ कितनी घृणा छिपी है और मुझे डर है कि किसी दिन मैं सचमुच पशु न बन जाऊँ।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।

प्रसंग- बसन्त तथा मधु में वार्तालाप हो रहा था इसी बातचीत में बसन्त मधु की सहेली ऊषा का नाम ले लेता है जिससे मधु चिढ़ जाती है और वह ऊषा को उठने-बैठने का ढंग न पता होने को बताकर उसे पशु कहती है।

व्याख्या- मधु उसी को पशु कहती है क्योंकि उसको उठने-बैठने, बोलने का ढंग नहीं हैं, इसी बात पर बसन्त झल्लाकर कहता है कि तो तुम मुझे पशु समझती हो क्योंकि मैं बहुत सफाई तथा तुम्हारी बातों के अनुसार कार्य नहीं करता हूँ। लेकिन मनुष्य की सहज भावनाओं को तुम अनावश्यक रूप से बांधकर रखना चाहती हो, चाहे फिर उसकी आत्मा की भावनायें उसी में घुट-घुट कर मर ही जाये। लेकिन भावनाओं को वर्जिस लगाना मुझे कतई पसन्द नहीं।

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Pankaja Singh

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