इतिहास

जर्मन एकीकरण के विभिन्न चरण | Different stages of german unification in Hindi

जर्मन एकीकरण के विभिन्न चरण | Different stages of german unification in Hindi

जर्मन एकीकरण के विभिन्न चरण

जर्मन एकीकरण का प्रथम चरण-

श्लेस्विग और होल्सटीन समस्या

बिस्मार्क प्रशा को सैनिक दृष्टिकोण से मजबूत कर उसकी मारक शक्ति की आजमाईश करना चाहता था। वह प्रशा-आस्ट्रिया के संभावित युद्ध में आस्ट्रिया को किसी प्रकार का मौका नहीं देना चाहता था। इस ख्याल से वह अपनी सेना को पहले आस्ट्रिया के साथ नहीं बल्कि किसी दूसरे देश के साथ लड़ाकर उसकी शक्ति की जांच करना चाहता था। उसके इस कार्य में श्लेस्विग (Schleswig) और होलस्टीन (Holstein) के डचियों की समस्याएं काम आई।

वास्तव में, श्लेस्विग और होलस्टीन की दो डचियाँ डेनमार्क के राजा के प्रशासन में थीं, लेकिन वे डेनमार्क का अंग नहीं थीं। होलस्टीन में अधिकांश जर्मन रहते थे और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी यह जर्मन थी। इतना ही नहीं, यह 1815 ई० में निर्मित जर्मन परिसंघ (German confederation) की भी सद्स्य् थी। एलेस्विग में डेन् और जर्मन दोनों रहते थे। डेनमार्क के लोग इन दोनों डचियों को डेनमार्क में मिलाना चाहते थे, जबकि जर्मनी के लोग उन्हें जर्मन परिसंघ में शामिल करना चाहते थे। 1848 ई. में इन डचियों को डेनामार्क में शामिल करने की कोशिश की गई, लेकिन जर्मन राज्यों के विरोध के कारण इस योजना को त्यागना पड़ा। आगस्टनबर्ग का ड्यूक इन डचियों पर अपना दावा पेश कर रहा था। ऐसी स्थिति में युद्ध की संभावना बढ़ी जिसकी समाप्त करने के लिए 1852 ई० में लंदन में एक संधि हुई जिसके अनुसार डेनमार्क को इन डचियों को अपने में मिलाने की मनाही की गई। लंदन की संधि में इंगलैण्ड, फ्रांस, आस्ट्रिया, रूस और डेनमार्क ने भाग लिया। इस संधि ने यह भी तय किया कि डेनमार्क के राजा सप्तम् फ्रेडरिक की मृत्यु के बाद नवम क्रिश्चियन को डेनमार्क की गद्दी मिलेगी।

1863 ई. में फ्रेडरिक की मृत्यु हो गई और नवम क्रिश्चियन डेनमार्क की गद्दी पर बैठा। उसने गद्दी पर बैठते ही एक संविधान बनाकर श्लेस्विग को डेनमार्क में मिलाने और होलस्टीन को डेनमार्क के साथ बाँधने की चेष्टा की। क्रिश्चियन नवम का यह कार्य लंदन की संधि के विरुद्ध था। इस परिस्थिति में आगस्टनवर्ग के ड्यूक ने अपना दावा इन दोनों डचियों पर पुन: पेश किया। बिस्मार्क ने इस अवसर का लाभ जर्मनी के एकीकारण के लिए उठाना चाहा। इन दोनों डचियों को लेकर वह अपनी सेना की रण-कौशल की जाँच आस्ट्रिया के साथ युद्ध के बीज बोना तथा उनको अंत में जर्मनी में मिलाना चाहता था। इस ख्याल से उसने आस्ट्रिया से एक समझौता किया जिसके तहत आस्ट्रिया और प्रशा दोनों को एक साथ डेनमार्क के विरुर युद्ध करना था। बिस्मार्क इसी युद्ध के परिणाम में आस्ट्रिया के साथ युद्ध का भी बीज बोना चाहता था।

पूरी तैयारी करके बिस्मार्क ने डेनमार्क के राजा से मांग की कि वह जिस संविधान को लागू किया है उसे निरस्त कर दे। जब नवम क्रिश्चियन ने ऐसा करने से इंकार किया तो प्रशा और आस्ट्रिया ने डेनमार्क पर आक्रमण कर दिया। डेनमार्क की सेना प्रशा और आस्ट्रिया की सेना के समक्ष अधिक दिनों तक नहीं टिक सकी और 1864 ई० की वियना की संधि द्वारा इस युद्ध को समाप्त किया गया। नवम क्रिश्चियन ने श्लेस्विग और होलस्टीन को डचियों को भी आस्ट्रिया-प्रशा को दे दिया।

अब श्लेस्विग और होलस्टीन के बंटवारे का विवाद उठा। आस्ट्रिया ने प्रस्ताव किया कि इन दोनों इचियों को ऑगस्टनबर्ग केग ड्यूक को दे दिया जाए। लेकिन बिस्मार्क की इच्छा इनके प्रशा में विलय करने की थी, अतः उसने 1865 ई० में गैस्टाइन का समझौता (convention of Gnstein) किया और तय किया कि जब तुक कोई अंतिम निर्णय नहीं हो जाता तब तक आस्ट्रिया होलस्टीन पर अधिकार जमाएगा और शासन करेगा और प्रशा श्लेस्विग पर । वास्तव में गैस्टाइन का समझौता प्रशा के लिए एक कूटनीतिक विजय थी; क्योंकि इस समझौते द्वारा उसने जर्मनी के एकीकरण के दूसरे चरण का बीज बोया। वास्तव में होलस्टीन में शुद्ध जर्मन जाति के लोग अधिक थे और वह प्रशा से सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही नहीं, भौगोलिक दृष्टिकोण से भी सन्निकट था। ऐसी परिस्थिति में वह किसी भी समय होलस्टीन पर कब्जा कर सकता था। भविष्य में इन दोनों डचियों को लेकर आस्ट्रिया से युद्ध करने का कारण ढूँढ़ा जा सकता था। एक जे० पी० टेलर ने गैस्टाइन के समझोते को बिस्मार्क की कूटनीति का करिश्मा कहा है और इसका उद्देश्य आट्रिया को भयभीत करना बताया है।

जर्मन एकीकरण का द्वितीय चरण

तथा प्रशा और आस्ट्रिया का युद्ध (1866 ई०)

बिस्मार्क जर्मनी के एकीकरण के द्वितीय चरण में आस्ट्रिया से युद्ध करना आवश्यक समझता था। दरअसल उसका उद्देश्य जर्मनी से आस्ट्रिया का प्रभाव समाप्त कर और युद्ध के वातावरण में राष्ट्रीयता की भावना जगाकर राष्ट्रीय एकता के लिए लोगों को अपने राजाओं की इच्छा के विरुद्ध प्रशा में मिलाने के लिए प्रेरित करना था। विस्मार्क ने आस्ट्रिया से युद्ध के लिए श्लेस्विग-होलस्टीन समस्या का भरपूर उपयोग किया। लेकिन, आस्ट्रिया से युद्ध करने के पहले उसने आस्ट्रिया को कूटनीतिक दृष्टिकोण से एकाकी कर दिया।

आस्ट्रिया का कूटनीतिक एकीकण- युद्ध के पहले आस्ट्रिया को कूटनीतिक दृष्टिकोण से एकाकी करने के लिए बिस्मार्क ने अपने रूस में राजदूत के रूप में प्रवास काल का अनुभव और उस काल के रूसी अधिकारियों से मित्रता का भरपूर उपयोग किया। बिस्मार्क ने जार अलेक्जेंडर द्वितीय से मित्रता कर ली थी। क्रीमिया युद्ध के दौरान प्रशा की तटस्थातथा 1863 ई. के पोलों के विद्रोह के समय प्रशा की रूसी सरकार को सहायता रूसो मित्रता के लिए काफी था। वास्तव में बिस्मार्क नहीं चाहता था कि प्रशा की सीमा पर एक स्वतंत्र संगठित पोलैंड का जन्म हो जो भविष्य में प्रशा के लिए खतरनाक साबित हो। इसके अतिरिक्त जर्मन एकीकरण के लिए वह रूसी सहायता के लिए जार को अनुगृहित करना चाहता था। ऐसी हालत में उसके देश के उदारवादी विद्रोहियों के प्रति खुले समर्थन की घोषणा के बावजूद उसने पोलों के विरुद्ध रूस को मदद दी और जर्मनी के एकीकरण के लिए रूस की दोस्ती हासिल की।

बिस्मार्क ने फ्रांस को भी प्रशा का मित्र बनाया । जब वह पेरिस में प्रशा का राजदूत था तो उसने नेपोलियन तृतीय से गहरी दोस्ती थी। जर्मनी के एकीकरण के सिलसिले में पुरानी मित्रता से फायदा उठाकर विस्मार्क नेपोलियन तृतीय से 1865 ई० में वियारिज (Biarritz) में मिला। इस मुलाकात की बातों को गुप्त रखा गया। बिस्मार्क ने अस्पष्ट ढंग से कुछ ऐसे इलाकों को देकर नेपोलियन तृतीय को फ्रांसीसी तटस्था का मूल्य चुकाने का वादा किया जो वास्तव में प्रशा के नहीं थे। नेपोलियन तृतीय बिस्मार्क के भुलावे में आ गया और उसने आस्ट्रिया-प्रशा के युद्ध में फ्रांसीसी तटस्थता का वचन दे डाला। उसका विश्वास था कि उत्तरी जर्मनी के राज्यों के एकीकरण की हालत में आस्ट्रिया फ्रांस पर अपनी सुरक्षा के लिए निर्भर हो जाएगा। उसका यह भी विश्वास था कि संघर्ष में संभव था कि प्रशा पराजित हो जाए। ऐसी हालत में फ्रांस जर्मनी के छोटे-छोटे राज्यों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेगा। लेकिन, नेपोलियन तृतीय को यह समझोता महंगा पड़ा; क्याकि उसकी आशाओं के विपरीत प्रशा विजयी हुआ और कूटनीति चाल में बिस्मार्क ने फ्रांस को पराजित कर दिया।

बिस्मार्क ने प्रशा की सहायता के लिए इटली के आस्ट्रिया के प्रति रोष का भी उपयोग किया। वास्तव में इटली का एक भाग वेनेशिया अभी आस्ट्रिया के अधीन या और बिना विदेशी सहायता के उसे स्वतंत्र नहीं किया जा सकता था। विस्मार्क ने अप्रैल 1866 में इटली से एक संधि को जिसके अनुसार तय हुआ कि जब प्रशा आस्ट्रिया पर आक्रमण करेगा तो इटली वेनेशिया पर आक्रमण करेगा और प्रशा आस्ट्रिया से तभी संधी करेगा जब वह वेनेशिया को इटली को देने के लिए राजी होगा। वास्तव में युद्ध के समय बिस्मार्क आस्ट्रिया पर दोनों तरफ से आक्रमण करना चाहता था।

युद्ध के मुद्दे युद्ध और आस्ट्रिया की पराजय- कूटनीतिक रूप से आस्ट्रिया को अकेला कर बिस्मार्क आस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध का कारण दूंढ़ने लगा। गैस्टाइन के समझौता के अनुसार होलस्टीन को आस्ट्रीया के अधीन रखा गया था और श्लेस्विग को प्रशा के अधीन । होलस्टीन में आस्ट्रिया के शासन के विरुद्ध प्रशा में बहुत तीव्र आलोचना आरभ हो गई। फलतः, 1866 ई० की जनवरी में वियना सरकार के विरुद्ध आरंभ करने का निर्णय प्रशा ने लिया और दोनों डचियों को प्रशा में मिलाने का निश्चय किया।

इस बीच विलियम प्रथम, उसको पली अगस्टा और उसकी पतोहू, जो इंगलैण्ड की रानी विक्टोरिया की बेटी थी, युद्ध के विरुद्ध हो गए। इससे बिस्मार्क बहुत हतोत्साहित हुआ और एक बार तो ऐसा समय आया कि वह स्वयं और युद्धमंत्री रून त्यागपत्र देने के लिए तैयार हो गए। लेकिन, बिस्मार्क के तर्क से अंत में राजा प्रभावित हुआ और उसे विश्वास हो गया वियना को शत्रुतापूर्ण नीति प्रशा के लिए अंत में असुरक्षा का कारण बन सकती है। रानी के विरोध करने पर भी राजा स्वयं युद्ध करने के लिए तैयार हो गया।

इस बीच बिस्मार्क का जर्मनीकरण हो गया; क्योंकि वह आस्ट्रिया से अब केवल दोनों डचियों के लिए ही युद्ध नहीं करना चाहता था, बल्कि उत्तरी जर्मनी के सभी राज्यों को प्रशा के साथ मिलाना चाहता था। इस उद्देश्य से राज्यमंडल की संसद (डायट) के अधिवेशन में विस्मार्क ने यह घोषणा की कि भविष्य में जर्मन संसद का निर्वाचन सार्वभौम मताधिकार पर आधूत, होगा और सांविधानिक सुधार पर विचार-विमर्श वही संसद करेगी। यह घोषणा आश्चर्यजनक इसलिए थी कि रूढ़िवादी बिस्मार्क उदारता का परिचय दे रहा था। वास्तव में प्रशा के जुंकर परिवार के बिस्मा का जब कूटनीतिज्ञीकरण हो रहा था। इस घोषणा का परिणाम यह हुआ कि आस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध में उसे उदारवादियों का समर्थन भी मिल गया। उसका विचार था कि सार्वभौम मताधिकार से रूढ़िवादी प्रभाव कम होने के बदले बढ़ेगा; क्योंकि शहरों के उदारवादी मध्यमवर्ग के हितों का संतुलन राजभक्त किसानों के मतों के द्वारा हो जाएगा।

संसद के अधिवेशन में ही बिस्मार्क ने श्लेस्विग और होलस्टीन के प्रश्न को उठाया और इसी प्रश्न पर आस्ट्रिया के विरुद्ध प्रशा को युद्ध करने के लिए तैयार किया। इस बीच आस्टिया ने इटली को वेनेशिया देकर प्रशा से अलग करने की कोशिश की। उसने नेपोलियन तृतीय की भी प्रशा का साथ छोड़ने के लिए आग्रह किया और उसके प्रादेशिक लोभ की पूर्ति करने के लिए भी इशारा किया। थोयर्स भी प्रशा के प्रति नेपोलियन तृतीय की सहानुभूति का कटु आलोचक था। लेकिन, नेपोलियन के अनुसार आस्ट्रिया को प्रशा पर विजय फ्रांस के लिए खतरनाक थी, अतः वह प्रशा का. साथ देकर अंत में युद्ध में मध्यस्थता कर कुछ पाना चाहता था।

बढ़ते तनाव की हालत में प्रशा ने होलस्टीन में अपनी सेना भेज दी। इससे क्रुद्ध होकर आस्ट्रिया ने जर्मनी को कुछ छोटे-छोटे राज्यों और दक्षिणी राज्यों की सेना के साथ युद्ध शुरू कर दिया। प्रशा को प्रशिक्षित मजबूत सेना के सामने आस्ट्रिया की सेना अधिक दिनों तक नहीं ठहर सकी। इस बीच इटली ने भी वेनेशिया पर आक्रमण कर दिया। अंत में आस्ट्रिया की सेना सैडोवा (Sudova) की रणभूमि में पराजित हुई। आस्ट्रिया का सवोच्च शक्ति बनने का स्वप्न ध्वस्त हो गया। उधर नेपोलियन तृतीय के अनुमान के विपरीत प्रशा ने कम ही दिनों में आस्ट्रिया को पराजित कर दिया, जिसके कारण उसको मध्यस्थता करने का मौका नहीं मिला। फिर भी बिस्मार्क ने इंगलैण्ड और फ्रांस के हस्तक्षेप के भय के कारण आस्ट्रिया और दक्षिणी राज्यों के साथ एक समझौता किया, जिसे प्राग की संधि की शर्तों में रखकर प्राग (Prague) की संधि (अगस्त, 1866) की संज्ञा दी गई।

आस्ट्रिया-प्रशा युद्ध के परिणाम- सैडोवा के मैदान में पराजित होकर प्राग की संधि के तहत आस्ट्यिा ने जर्मनी से अपना प्रभाव समाप्त कर लिया। जर्मन संघ भंग कर दिया गया और उसके स्थान पर राइन नदी के उत्तर में स्थित सभी जर्मन राज्यों का एक उत्तर जर्मन् संघ गठित हुआ जिसमें आस्ट्रिया को शामिल नहीं किया गया। इस नवगठित संघ का नेतृत्व प्रशा को मिला। दक्षिण के राज्यों को स्वतंत्र छोड् दिया गया। राइन नदी से पोलैंड का सारा इलाका प्रशा के प्रभुत्व में आ गया। हैनोवर, श्लेस्विग, होलस्टीन, हैसेकासेल, नास्साउ आदि राज्य प्रशा में मिल गए।

बिस्मार्क ने आस्ट्रिया को पराजित करने पर भी उसे अपमानित नहीं किया और उसे काफी सम्मान दिया। यह ठीक है कि उसने इटली को वेनेशिया दिलवाया, लेकिन प्रशा के लिए उसने एक इंच भी भूमि नहीं ली। युद्ध के हर्जाने के रूप में भी एक मामूली रकम ली गई। दक्षिणी राज्यों-बैडेन, बेवेरिया और वूर्टमबर्ग-से भी आस्ट्रिया के साथ युद्ध में भाग लेने के कारण मामूली युद्ध हर्जाना वसूल किया गया, लेकिन उत्तरी राज्यों की तरह उनसे जबरदस्ती कोई भूमि नहीं ली गई। वास्तव में बिस्मार्क इस समय ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहता था जिससे नेपोलियन तृतीय से बिना उचित तैयारी के युद्ध की संभावना बढ़ जाए। दक्षिणी राज्यों को फिलहाल प्रशा में मिलाने से उन राज्यों को जनता बुरा मानती और ऐसी स्थिति में फ्रांस के हस्तक्षेप की संभावना बढ़ जाती। वास्तव में बिस्मार्क फ्रांस के साथ युद्ध करके राष्ट्रीयता की भावना जगाकर दक्षिण राज्यों को प्रशा में मिलाना चाहता था। इस युद्ध के लिए आवश्यक था कि आस्ट्रिया फ्रांस के साथ युद्ध में तटस्थ रहे। इसी उद्देश्य से उसने आस्ट्रिया के साथ पराजित होने पर भी नरमी बरती थी।

आस्ट्रिया-प्रशा के युद्ध से नेपोलियन तृतीय की साख देश में गिरी। अब फ्रांस में उसकी आलोचना होने लगी। अपनी गिरती प्रतिष्ठा को बचाने के लिए वह हाथ-पैर मारने लगा जिसके कारण वह बिस्मार्क के जाल में फंसा और 1870 ई० का प्रशा एवं फ्रांस का युद्ध हुआ।

जर्मनी एकीकरण का तृतीय चरण

और फ्रांस-प्रशा युद्ध (1870 ई०)

एक बार बिस्मार्क ने कहा था कि फ्रांस के साथ प्रशा का युद् इतिहास की तर्कसंगत परिणति है। राष्ट्रीयता की भावना के उफान में बिस्मार्क दक्षिणी राज्यों का विलय जर्मनी में चाहता था और यह फ्रांस से युद्ध के समय ही हो सकता था। बिस्मार्क ने फ्रांस को कूटनीतिक दृष्टिकोण से एकाकी कर दिया ताकि युद्ध की स्थिति में उसे आसानी से पराजित किया जा सके।

फ्रांस का कूटनीतिक एकाकीकरण- बिस्मार्क जिस देश से युद्ध करता था उसे कूटनीतिक दृष्टिकोण से एकाकी बना देता था, ताकि युद्ध के समय उसे कहीं से मदद नहीं मिल सके। इटली को नेपोलियन तृतीय ने 1859 ई० में युद्ध से हटकर धोखा दिया था तथा नीस और सेवाय लेकर उसे मध्य इटली के राज्यों को मिलाने के लिए अनुमति दी थी। इस वजह से इटली फ्रांस से नाराज था। इसके विपरीत इटली को प्रशा की कृपा से बिना कुछ दिए वेनशिया मिला था जिसके कारण वह प्रशा के प्रति अनुग्रहीत् था। बिस्मार्क ने इटली को दिलासा दिलाया कि जब प्रशा का युद्ध फ्रांस से शुरू होगा तो फ्रांस रोम में पोप की सुरक्षा के लिए रखी गई अपनी सेना को बुला लेगा और तब इटुली रोम पर कब्जा कर ले सकता है। इटली ने खुशी-खुशी इस प्रस्ताव को मान लिया और इस तरह बिस्मार्क ने इटली को प्रशा-फ्रांस युद्ध में तटस्थ कर दिया।

आस्ट्रिया को 1866 ई० में पराजित करने पर भी विस्मार्क ने प्रशा की सेना को वियना पर आक्रमण नहीं करने दिया और न उसकी भूमि ही ली। उसके साथ सम्मानजनक संधि की गई और मामूली सुख हर्जाना वसूल किया गया, जिससे आस्ट्रिया मशा से पराजित होने पर भी बदले की भावना से कुछ करना नहीं चाहता था। भास्टिया पहले ही फ्रांस में नाराज था। ऐसी हालत में फांस और प्रशा के युर में बिस्मार्क ने आस्ट्रिया को भी तटस्थ कर दिया।

बिस्मार्क ने रूस को क्रिमीया के युद्ध में फ्रांस की सक्रिय भूमिका की याद दिलाई और उसे यह भी बताया कि प्रशा ने उस युग में तटस्थ रहकर रूस की मदद की थी। उसने रूस को यह भी लालच दिया कि फ्रांस और प्रशा के युद्ध के समय वह 1856 ई. की पेरिस को संधि को अवहेलना कर काला सागर में अपनी नौ सेना रख सकता था। इसके अलावा पोल विद्रोह के समय विस्मार्क की रूस के प्रति दी गई सहायता अभी ताजी थी। इस तरह बिस्मार्क की रूस के साथ की मित्रता और उसकी कूटनीति ने फ्रांस-प्रशा युद्ध में रूस को तटस्थ कर दिया।

युद्ध के मुद्दे और युद्ध- नेपोलियन तृतीय आस्ट्रिया की 1866 ई० की पराजय को अपनी कूटनीतिक पराजय समझता था। इसके फलस्वरूप फ्रांस में उसकी तीखी आलोचना होने लगी थी। अपनी लोकप्रियता पर काबू पाने के लिए वाह प्रशा से प्रशा-आस्ट्रिया युद्ध में अपनी तटस्था की कीमत के रूप में प्रादेशिक लाभ लेने की कोशिश करने लगा। वह बार-बार बिस्मार्क से किसी क्षेत्र की मांग करता । वह कभी पैलेटिनेट की मांग करता, कभी बेल्जियम की मांग करता तो कभी लक्समबर्ग की मांग कर बैठता। बिस्मार्क नेपोलियन को इन मांगों को किसी-न-किसी तरह खोल देता था जिससे दक्षिणी राज्य नेपोलियन से रंज हो गए। बेल्जियम की मांग को बिस्मार्क ने उसके मित्र और उसकी तटस्थता के संरक्षक इंगलैण्ड को बताया जिससे इंगलैण्ड भो नेपोलियन से घृणा करने लगा।

फ्रांस-प्रशा युद्ध का तात्कालिक कारण स्पेन की राजगद्दी पर लियोपोल्ड के दावे से संवद्ध था । वास्तव में स्पेन में 1868 ई0 में विद्रोह हुआ था जिसमें वहाँ की रानी आइसाबेला द्वितीय ने गद्दी छोड़ दी थी। अब यह गद्दी होहेनजोलरेन वंश के लियोपोल्ड-जो प्रशा के राजा का संबंधी था-को दिए जाने का प्रस्ताव लाया जिसे अनिच्छा से लियोपोल्ड ने स्वीकार किया। लेकिन जैसे ही इसकी खबर नेपोलियन तृतीय को लगी तो उसने इसका कड़ा विरोध किया जिससे लियोपोल्ड ने भयभीत होकर स्पेन की गद्दी पर बैठने से इंकार कर दिया । यह नेपोलियन तृतीय को विजय थी। लेकिन वह इससे संतुष्ट नहीं था। परिणामतः उसने अपने राजदूत बेनडेटि (Bendeui) को प्रशा के राजा से एम्स (Elms) में मिलकर भविष्य में भी किसी जर्मन राजकुमार के स्पेन की गद्दी पर नहीं बैठने का आश्वासन मांगने के लिए कहा। राजा ने बेनडेटि को उचित आश्वासन दे दिया और इस बात की खबर उसने तार देकर बिस्मार्क को दी। बिस्मार्क रात्रि का भोजन अपने युद्धमंत्री रुन के साथ कर रहा था। जैसे ही यह तार बिस्मार्क को मिला, वह खुशी से नाच उठा और उसने तार की बातों को इस तरह संशोधित कर अखबारों को छपने के लिए दे दिया कि प्रशा के लोगों को लगा कि बेनडेटि ने राजा के साथ अभद्र व्यवहार किया है और फ्रांस के लोगों को लगा कि प्रशा के राजा ने उनके राजदूत के साथ अभद्र व्यवहार किया है। दोनों देशों में पहले से ही तनाव था। इस मुद्दे ने आग में घी का काम किया।

नेपोलियन तृतीय इस समय युद्ध के लिए तैयार नहीं था, परंतु फ्रांस की भावना प्रधान जनता का उफान रोकना मुश्किल था। मजबूरन नेपोलियन को स्वयं एक अनचाहा युद्ध मोल लेना पड़ा। फ्रांस मित्र विहीन था। उसकी सेना के पास पर्याप्त रसद और कपड़े तक नहीं थे। इसके विपरीत प्रशा युद्ध के लिए हर तरह की तैयारी किए हुए था। उसे उत्तरी राज्यों के संघ को संगठित शक्ति और दक्षिणी जर्मन राज्यों की सहानुभूति प्राप्त थी; क्योंकि नेपोलियन तृतीय के इरादे इन राज्यों पर जाहिर हो चुके थे। इस युद्ध में रुन और मोल्टके का नेतृत्व प्रशा की सेना को प्राप्त था।

इस माहौल में 1870 ई. का फ्रांस प्रशा युद्ध शुरू हुआ। युद्ध के शुरू से ही प्रशा का पलड़ा भारी था। फ्रांस की हर तरफ पराजय होने लगी और अंत में नेपोलियन तृतीय को स्वयं लाखों सैनिकों के साथ आत्मसमर्पण करना पड़ा।

1871 ई० की फ्रैंकफुर्ट की संधि-फ्रांस की 1870 ई० में सेडान के युद्ध में पराजय के बाद दोनों देशों के बीच 1871 ई० फ्रैंकफुर्ट (Frankurl) की संधि हुई जिससे युद्ध का अंत हुआ। इस संधि के अनुसार फ्रांस को एल्सास और लोरेन के प्रदेश प्रशा को देने पड़े। इसके अतिरिक्त फ्रांस ने प्रशा को पाँच हजार अरब फ्रेंक हर्जाना के रूप में देने के लिए वादा किया और यह भी तय हुआ कि जब तक हर्जाने की रकम वसूल नहीं हो जाती तब तक प्रशा की सेना फ्रांस में मौजूद रहेगी।

वास्तव में बिस्मार्क एल्सास-लोरेन से नहीं चाहता था, क्योंकि वह जानता था कि इससे मर्माहत फ्रांस यूरोप में मित्र ढूँढकर जर्मनी से युद्ध कर उन् प्रदेशों को प्राप्त करने की कोशिश करेगा। लेकिन सेनापतियों के दबाव में उसे एल्सास-लोरेन लेने पड़े और प्रशा के राजा को वर्साय के राजप्रासाद में सम्राट घोषित किया गया। युद्ध के समय दक्षिण राज्यों में राष्ट्रीयता की लहर आई जिसके परिणामस्वरूप युद्धोपरांत दक्षिणी राज्य भी जर्मन संघ में शामिल हुए और इस तरह जर्मनी का एकीकारण पूरा हुआ।

युद्ध के परिणाम- फ्रांस-प्रशा के 1870 ई. के युद्ध के कुछ महत्वपूर्ण परिणाम निकले। इस युद्ध ने जर्मनी की एकता को पूरा किया और जर्मन साम्राज्य की नींव रखी। इससे जर्मनी की महत्वाकांक्षा बढ़ गई, जिसका परिणाम एल्सास-लोरेन को फ्रांस से लेना और वर्साय के राजप्रासाद में प्रशा के राजा का जर्मनी के सम्राट के रूप में घोषित करना था। इससे फ्रांस के सम्मान को काफी धक्का लगा जिसका बदला चुकाने के लिए फ्रांस सतत् प्रयलशील रहने लगा।

इस युद्ध ने इटली के एकीकरण को भी पूरा किया। वास्तव में फ्रांस की सेना की एक टुकड़ी रोम में पोप की रक्षा के लिए रखी गई थी। फ्रांसु-प्रशा के युद्ध के समय फ्रांस ने वह सेना रोम से बुला ली और प्रशा के साथ किए समझौते के अनुसार इटली ने रोम पर कब्जा कर लिया और अपनी राजनीतिक एकता का पाँचवाँ चरण पूरा किया।

इस युद्ध के परिणामस्वरूप फ्रांस में द्वितीय साम्राज्य का अंत हुआ और तृतीय गणतंत्र की स्थापना हुई। इसके विपरीत जर्मनी में एक संगठित जर्मन साम्राज्य की स्थापना हुई जो राष्ट्रवाद और सैन्यवाद का पक्का समर्थक था। बर्लिन इस साम्राज्य की राजधानी बनी।

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Pankaja Singh

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