राज्य के शैक्षिक उत्तरदायित्व | राज्य के कार्य | राज्य का महत्व | लोकतन्त्रीय राज्य के शैक्षिक कार्य | Educational responsibilities of the state in Hindi | Functions of state in Hindi | Importance of state educational in Hindi | Functions of a democratic state in Hindi
राज्य के शैक्षिक उत्तरदायित्व, कार्य एवं महत्व
(Educational Responsibilities, Functions and Importance of State)
किसी राज्य के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह अपनी जनता (जनसंख्या) की शिक्षा की व्यवस्था करे ही। यह तो राज्य के शासनतन्त्र अर्थात् सरकार के प्रकार पर निर्भर करता है कि राज्य को शिक्षा का उत्तरदायित्व सम्भालना है अथवा नहीं और यदि समभालना है तो किस सीमा तक और किस रूप में। जो राज्य शिक्षा के उत्तरायित्व को सम्भालते हैं, चाहे पूर्ण रूप में और चाहे आंशिक रूप में उनके शैक्षिक कार्यों को हम निम्नलिखित चार शीर्षकों में अभिव्यक्त कर सकते हैं-
(1) शिक्षा की योजना बनाना।
(2) शिक्षा योजना को क्रियान्वित करना ।
(3) शिक्षा व्यवस्था पर नियन्त्रण करना।
(4) शिक्षा योजना में आवश्यक सुधार करना।
हमारा भारत राज्य एक लोकतन्त्रीय राज्य है अतः यहाँ हम लोकतन्त्रीय राज्यों के सन्दर्भ में राज्य के इन शौक्षिक कार्यों की विवेचना प्रस्तुत कर रहे हैं।
लोकतन्त्रीय राज्य के शैक्षिक कार्य
लोकतन्त्र प्रत्येक व्यक्ति के व्यष्टित्व का आदर करता है। वह स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व का हामी होता है। भारतीय लोकतन्त्र में न्याय, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को भी आधार भूत सिद्धान्त माना गया है। हमारा उद्देश्य प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के विकास के समान अवसर प्रदान करना है।
लोकतनीय राज्यों में शिक्षा पर राज्य का नियन्त्रण तो होता है परन्तु उसके स्वरूप निर्धारण, संचालन और मूल्यांकन में राज्य और जनता दोनों की भागीदारी होती है। लोकतन्त्र में शक्ति का विकेन्द्रीकरण होता है इसलिए शिक्षा की व्यवस्था की जिम्मेदारी भी बाँट दी जाती है। अब चाहे शिक्षा की भोजना बनाने का प्रश्न हो, चाहे योजना को क्रियान्वित करने का चाहे शिक्षा व्यवस्था पर नियंत्रण करने का और चाहे शिक्षा योजना के मूल्यांकन और सुधार का, इन सबमें राज्य और जनता दोनों की भागीदारी रहती है।
(1) शिक्षा की योजना बनाना
(1) शिक्षा योजना का सबसे पहला पद है शिक्षा की राष्ट्रीय नीति निश्चित करना । लोकतन्त्रीय राज्यों में इस नीति निर्धारण में जनता की राय ली जाती है। लोकतन्त्र की सफलता उसके नागरिकों पर निर्भर करती है अतः राज्य एक निश्चित आयु अथवा स्तर तक के बच्चों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवसथा करता है। राज्य को सबसे पहले इस अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की अवधि निश्चित करनी चाहिए और इसके बाद आय के स्रोत और व्यग की मद निश्चित करनी चाहिए।
(2) शिक्षा की योजना का दूसरा पद है शिक्षा के उद्देश्य और पाठ्यच निश्चित करना। प्रत्येक राज्य में अनेक समुदाय होते हैं और उनकी अपनी-अपनी सभ्यता एवं संस्कृति होती है। इन समुदायों के साथ-साथ राज्य के अपने भी कुछ उद्देश्य और आकांक्षाएँ होती है। लोकतन्त्रीय राज्य को इन सबके आधार पर ही शिक्षा के उद्देश्य और उसकी पाठ्यचर्या निश्चित करनी होती है।
(3) शिक्षा की योजना का तीसरा पद है शिक्षा के विभिन्न स्तर और उनके लिए पाठ्यचर्या निश्चित करना। हम मनुष्य को जो कुछ बनाना चाहते हैं, वह एक ही दिन में नहीं बना सकते, उसके लिए हमें उसका एक क्रम विशेष में विकास करना होता है। प्रत्येक राज्य को बच्चों की मनोवैज्ञानिक और समाजिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर शिक्षा के विभिन्न स्तरों, जैसे-पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च को निश्चित करना चाहिए और प्रत्येक सतर के लिए एक निश्चित पाठ्यचर्या का निर्माण करना चाहिए। एक लोकतन्त्रीय राज्य में शिक्षा की पाठ्यचर्या के निर्माण और विकास में बच्चों की रूचि रूझान और आवश्यकताओं का ध्यान रक्खा जाता है और पाठ्यचर्या विस्तृत, उपयोगी और लचीली होती है।
(4) शिक्षा की योजना का चौथा पद है विभिन्न स्तर के विद्यालयों के लिए न्यूनतम अधिगम उपलब्धि की सूची बनाना और तत्सम्बन्धी आवश्यक निर्देश एवं नियम बनाना। जब तक राज्य यह सब निश्चित नहीं करता तब तक विद्यालय अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं कर सकते। अतः लोकतन्त्रीय राज्यों में यह भी पहले ही निश्चित कर दिया जाता है।
(5) इस सबके साथ-साथ राज्य विभिन्न स्तर विद्यालयों में कार्य करने वाले शिक्षकों की न्यूनतम योग्यताएँ भी पहले से निश्चित कर देता है और उनकी नियुक्ति के लिए नियमावली भी तैयार कर देता है।
(2) शिक्षा योजना को क्रियान्वित करना
(1) शिक्षा की योजना को क्रियान्वित करने के लिए राज्य को सर्वप्रथम अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा के लिए पर्याप्त विद्यालय खोलने होते है और उनका उचित रूप से संचालन करना होता है।
(2) अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था के बाद राज्य को ऐच्छिक शिक्षा की व्यवस्था करनी होती है और इसके लिए भी विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों की स्थापना एवं उनका संचालन करना होता है।
(3) इन विद्यालयों, महविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में व्यावसायिक एवं औद्योगिक शिक्षा की व्यवस्था करनी होती है। इस प्रकार की शिक्षा के लिए राज्य को अलग से भी महविद्यालय और विश्वविद्यालय खोलने चाहिए। राज्य को अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए इस प्रकार की शिक्षा की परम आवश्यकता होती है।
(4) राज्य की सुरक्षा के लिए सैनिक शक्ति की आवश्यकता होती है। इसके लिए प्रत्येक राज्य को सैनिक शिक्षा का प्रबन्ध करना चाहिए। लड़ाई के सामान के उत्पादन में प्रशिक्षण भी आवश्यक है। राज्य को इसके लिए अलग से प्रबन्ध करना होता है।
(5) कोई भी शिक्षायोजना तब तक पूरी नहीं की जा सकती जब तक उसके लिए योग्य एवं
प्रशिक्षित शिक्षक प्राप्त नहीं होते। अतः राज्य को शिक्षक शिक्षा महाविद्यालयों का संचालन भी करना चाहिए।
(6) अच्छे शिक्षकों के साथ-साथ विद्यालयों के पास अच्छे भवन, पुस्तकालय, वाचनालय, प्रयोगशालाएँ, फर्नीचर, विभिन्न प्रकार के शिक्षण साधन और खेल का सामान आदि भी होना आवश्यक है। राज्य को इस सबकी व्यवस्था करनी होती है।
(7) इन सब साधनों में उत्तम पुस्तकों का निर्माण सबसे अधिक आवश्यक है। राज्य को शिक्षा के उद्देश्यों और बच्चों के हितों, दोनों को ध्यान में रखकर उत्तम पाठ्य पुस्तकों का निर्माण करना होता है।
(8) लोकतन्त्रीय राज्य में राज्य के अतिरिक्त विभिन्न सामाजिक समूह भी विभिन्न प्रकार के विद्यालय चलाते हैं। राज्य को इनकी आर्थिक सहायता करनी चाहिए और उसके बदले उनसे राज्य द्वारा निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए यथा पाठ्यचर्या को पूरा कराना चाहिए और यह देखना चाहिए कि वे राज्य के आदर्शानुकूल ही शिक्षा व्यवस्था करते हैं।
(9) लोकतन्त्रीय राज्य का यह कर्त्तव्य होता है कि वह अपने समाज की प्रतिभाओं के विकास में सहायता प्रदान करे। इसके लिए राज्य को प्रतिभाशाली छात्रों को छात्रवृत्तियाँ देनी होती है। इसके अतिरिक्त निर्धन छात्रों को शिक्षा के समान अवसर प्रदान करने के लिए उनकी आर्थिक सहायता करना आवश्यक होता है।
(10) नियोजित शिक्षा के अनेक सोपान होते हैं, प्रत्येक सोपान के अन्त में राज्य को परीक्षा की व्यवस्था करनी होती है। परीक्षाओं के परिणाम घोषित करना और उत्तीर्ण छात्रों को प्रामाणपत्र देना भी उनका अनिवार्य कार्य होता है। इसके अभाव में शिक्षा की योजना सुचारू रूप से क्रियान्वित नहीं की जा सकती।
(11) केवल बच्चों को शिक्षित करने से ही लोकतन्त्र नहीं चल सकता। उसकी सफलता के लिए अशिक्षित प्रौढ़ों भी शिक्षित करना होता है। प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम में राज्य से अधिक ऐच्छिक संस्थाएँ कार्य करती है। राज्य को इनकी आर्थिक सहायता करनी होती है।
(3) शिक्षा व्यवस्था पर नियन्त्रण करना
शिक्षा व्यवस्था पर नियन्त्रण करने के लिए राज्य को निम्नलिखित कार्य करने होते हैं-
(1) शिक्षा विभाग की स्थापना एवं उसमें अनेक विभाग तथा उपविभाग खोलना।
(2) विभाग द्वारा सरकारी तथा गैरसरकारी सभी प्रकार की शिक्षा संस्थाओं पर नियन्त्रण करना। इसके अन्तर्गत तीन कार्य आते हैं- (1) उनका निरीक्षण करना, (2) उन्हें राज्य की नीतियों से अवगत कराना और (3) उन्हें उचित परामर्श देना।
(3) यह देखना कि सरकार के द्वारा दिए गए अनुदान का पूरा-पूरा और सही ढंग से प्रयोग होता है।
(4) शिक्षा योजना में आवश्यक सुधार करना
शिक्षा एक गतिशील प्रक्रिया है। वह समाज की आवश्यकताओं के अनुकूल बदलती रहती है। जिस राज्य की शिक्षा में यह गुण नहीं होता वह राज्य कभी प्रगति नहीं कर सकता। समाज की आवश्यताओं को समझने और उसके अनुकूल शिक्षा में परिवर्तन करने के लिए एक लोकतन्त्रीय राज्य को निम्नलिखित कार्य करने होते हैं-
(1) समाज की आवश्यकताओं के प्रति सदैव सजग रहना।
(2) समय-समय पर शिक्षा व्यवस्था का मूल्यांकन करने एवं समाज के लिए उसे उपयोगी बनाने के लिए विभिन्न समितियों और शिक्षा आयोगों का गठन करना।
(3) इनकी सिफारिशों को लागू करना।
(4) शिक्षा में शोध कार्य को प्रोत्साहन देना। इसके लिए एक अलग से विभाग खोलना।
(5) विभिन्न समितियों एवं शिक्षा आयोगों के सुझावों एवं शोध कार्य के परिणामों को ध्यान में रखते हुए शिक्षा की योजना में आवश्यक परिवर्तन करना।
विशेष
प्रत्येक राज्य में शिक्षा मन्त्रालय होता है, यह मन्त्रालय शिक्षा विभाग की स्थापना करता है। इसके अधिकारियों का मुख्य कार्य शिक्षा की योजना बनाना एवं उसे क्रियान्वित करना होता है। इसके लिए वे देश के उच्च कोटि के विचारकों, शिक्षाशास्त्रियों एवं राजनैतिक नेताओं, सबका सहयोग प्राप्त करते हैं। बिना समाज के यह कार्य पूरा नहीं किया जा सकता। राज्य अपने शिक्षा सम्बन्धी कार्यों को तभी पूरा कर सकता है जब वह इसे प्रमुखता दे, इसके कर्मचारी कर्मनिष्ठ हों तथा समाज उसका सहयोग करे। हम सबकों अपने-अपने स्थान पर सचेत होना चाहिए और लोकतन्त्र में रीढ़ की हड्डी इस शिक्षा की व्यवस्था अच्छे ढंग से करनी चाहिए।
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