गणतंत्रों की राजतंत्रीय व्यवस्था | गणराज्यों का उदय | दस गणराज्य | गणराज्यों की विशेषताएँ | गणराज्यों की दुर्बलताएँ
गणतंत्रों की राजतंत्रीय व्यवस्था
गणराज्यों का उदय- छठी शताब्दी ई०पू० में जिन प्रमुख महाजनपदों का उल्लेख ऊपर किया गया है, उनके अतिरिक्त भी कुछ राज्य थे। इन राज्यों का प्रशासन गणतंत्रीय व्यवस्था पर आधारित था। पालि-साहित्य में दस गणतंत्रों एवं इनकी प्रशासनिक व्यवस्था का उल्लेख किया गया है। इस समय के गणराज्यों में कपिलवस्तु के शाक्य, रामग्राम के कोलिय, पावा एवं कुशीनारा के मल्ल, मिथिला के विदेह, पिप्पलीवन के मोरिय, सुसुमार के भग्ग, अल्लकप्प के बुलि, केसपुत्त के कालाम तथा वैशाली के लिच्छवियों का उल्लेख पालि- साहित्य में मिलता है। इनमें सबसे प्रमुख शाक्य और लिच्छवि थे। ये गणतंत्र सिंधु नदी के द्रोणी एवं हिमालय की तलहटी में स्थित थे। इनमें अधिकांश जगहों पर पहले राजतंत्र था, परंतु बाद में वहाँ गणतंत्र की स्थापना हुई। ऐसा संभवतः इसलिए हुआ कि इन राज्यों की जनता राजा के स्वेच्छाचारी शासन को पसंद नहीं करती थी या इन क्षेत्रों की जनता प्राचीन कबीलाई तत्वों से ज्यादा प्रभावित थी, जिसमें सबको समान अधिकार प्राप्त थे। गणतंत्रों में राजा जनता का निर्वाचित शासक समझा जाता था, दैवी शासक नहीं। एक विद्वान के अनुसार, “यह संभव है कि जब गंगाघाटी में ‘जन’ से ‘जनपद’ की प्रक्रिया चल रही थी तब कबाइली जीवन से प्रभावित लोग हिमालय के इन आपेक्षिक अगम्य प्रदेशों (हिमालय की तलहटी) में आकर बस गए हों।” सिंधुघाटी के गणतंत्र संभवतः वैदिक कबीलों के बचे हुए लोगों द्वारा स्थापित किए गए थे।
दस गणराज्य- उपर्युक्त वर्णित दस गणराज्यों में कपिलवस्तु (पिपरहवा, बस्ती जिला, उत्तर प्रदेश) शाक्यों की राजधानी थी, लुंबिनी शाक्यों की एक प्रमुख नगरी थी, जहाँ गौतमबुद्ध का जन्म हुआ था। यहाँ इक्ष्वाकु-वंशीय क्षत्रियों का शासन था। गौतमबुद्ध के पिता शुद्धोदन शाक्यों के गण के प्रधान थे। बाद में यह कोशल-राजतंत्र के अधीन हो गया। रामग्राम के कोलियों का राज्य शाक्यों के राज्य के पूर्व में स्थित था। शाक्यों और कोलियों के राज्यों के विभाजक रेखा के रूप में रोहिणी नदी थी। नदी के जल के बँटवारे के लिए इन दोनों राज्यों में संघर्ष होता रहता था। मल्ल वृज्जि या व्रजिका के पश्चिम और कोशल के पूर्व में स्थित ते। इनकी दो शाखाएँ थीं- कुशीनारा और पावा। कुशीनारा, गौतमबुद्ध के निर्वाणस्थल और पावा, जैन धर्म के संस्थापक महावीर के निर्वाणस्थल के रूप में विख्यात है। मिथिला, जो विदेह की राजधानी थी, अपनी संस्कृति के लिए विख्यात थी। मोरियों की राजधानी पिप्पलीवन नेपाल की ताई में ही स्थित थी। सुसुमार संभवतः मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश के निकट था, जहाँ भग्ग रहते थे। बुलि शाहाबाद और मुजफ्फरपुर के बीच में कहीं अवस्थित थे। यह अल्लकप्प-राज्य का भाग था। यह राज्य वेथदीप के निकट था। एक विद्वान के अनुसार वेथदीप की पहचान पश्चिमी चंपारण के बेतिया से की जा सकती है। कालाम भी एक छोटा गणराज्य था। गौतम बुद्ध के आरंभिक गुरु आलार कालाम इसी गणराज्य के थे। कालामों का प्रसिद्ध नगर केसपुत्त था। यह गोमती के तट पर बसा हुआ था। शाक्यों के बाद सबसे प्रमुख राज्य लिच्छवियों का था। इस राज्य की राजधानी वैशाली थी, जो अपने समय का प्रमुख व्यापारिक केंद्र था।
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गणराज्यों की प्रशासनिक व्यवस्था (Administration of the Republies)
गणराज्यों की प्रशासनिक व्यवस्था राजतंत्रों से अलग थी। दोनों में मुख्य विभेद यह था कि राजतंत्रों में शासन का प्रधान वंशानुगत राजा होता था, जो सिद्धांततः स्वेच्छाचारी ढंग से शासन करता था। सांविधानिक रूप से राजा पर किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं था। इसके ठीक विपरीत गणतंत्रीय व्यवस्था में निर्वाचित राजा कुलीनों के सहयोग से और उनके नियंत्रण में कार्य करता था। दोनों व्यवस्थाओं में कुछ अन्य अंतर भी दिखाए जा सकते हैं। राजतंत्र में राजस्व प्राप्त करने का अधिकार सिर्फ राजा को ही था, सेना भी वही रख सकता था। इन पर राजा का एकाधिकार था; परंतु गणतंत्रों में ऐसी बात नहीं थी। गण के प्रमुख व्यक्ति भी राजा की उपाधि धारण करते थे, राजस्व वसूल करते थे, अपना खजाना एवं अपनी सेना रखते थे। लिच्छिवियों के बीच यही परंपरा थी, जहाँ 7707 राजा, उप-राजा, सेनापति और कोषाध्यक्ष होते थे। इस प्रकार से प्राचीन भारतीय गणतंत्र वास्तविक अर्थ में कुलीनतंत्र थे, जहाँ जनता सीधे प्रशासन में भाग नहीं लेती थी, बल्कि कुलीनों का वर्ग ही प्रशासनिक व्यवस्था करता था। राजतंत्र में राजा के प्रमुख सलाहकार की हैसियत से पुरोहित तथा अन्य ब्राह्मण विशेष महत्व रखते थे। इन्हें अनेक सुविधाएं एवं विशेषाधिकार भी प्राप्त थे, परंतु गणतंत्रों में ब्राह्मणों की भूमिका गौण थी। इन विभेदों के बावजूद दोनों ही व्यवस्थाओं में प्रजा के हित का ध्यान रखना राज्य का कर्तव्य माना जाता था।
पालि-साहित्य से गणतंत्रों की शासकीय व्यवस्था की कुछ जानकारी मिलती है। जातक और अन्य ग्रंथों में शाक्यों और लिच्छवियों की प्रसासनिक व्यवस्था का उल्लेख मिलता है। अन्य गणतंत्रों के विषय में स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती। बहुत संभव है कि अन्य गणराज्यों की प्रशासनिक व्यवस्था भी शाक्यों या लिच्छवियों जैसी ही हो।
शाक्यगण- शाक्य-गणतंत्र में निर्वाचित राजा शासन का प्रधान होता था। राजकाज में उसको सलाह और सहायता देने के लिए एक परिषद होती थी। परिषद में सिर्फ कुलीनों को ही स्थान दिया गया था। संभवतः, यही परिषद राजा का भी चुनाव करती थी। राजा इस परिषद की सहमति लिए बिना राज्य से संबद्ध कोई भी महत्त्वपूर्ण निर्णय नहीं ले सकता था। ललितविस्तार से ज्ञात होता है कि शाक्यों की परिषद में 500 सदस्य थे। शाक्य सच्चरित्रता पर बल देते थे एवं स्त्रियों का सम्मान करते थे। उन्हें अपने रक्त की शुद्धता का भी गौरव था। इसकी रक्षा करने के लिए वे सदैव प्रयत्नशील रहते थे। इसलिए, शाक्यों ने बाहरी लोगों से वैवाहिक संबंध बनाने पर प्रतिबंध लगा दिया। शाक्यों और कोलियों में रोहिणी नदी के जल के बँटवारे को लेकर हमेशा संघर्ष होते रहते थे। एक बार स्वयं बुद्ध ने इस झगड़े का निबटारा किया। जब गौतम बुद्ध कपिलवस्तु गए तब परिपद ने उनका स्वागत किया।
लिच्छविगण- शाक्यों की प्रशासनिक व्यवस्था से अपेक्षाकृत अधिक जानकारी वैशाली के लिच्छवियों के विपय में प्राप्त है। लिच्छवियों ने विदेह और मल्ल के साथ एक संघ की स्थापना की थी, जो वज्जि या वृज्जिसंघ के नप से विख्यात था। इस संघ में 9 मल्लिका, 9 लिच्छवी तथा 18 काशी-कोशल के गणरा । सम्मिलित थे। इस संघ के सबसे महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली गण लिच्छवि ही थे जिनकी राजधानी वैशाली में थी। शाक्यों की ही तरह लिच्छवियों की भी एक राष्ट्रीय परिषद थी। इसके सदस्यं की संख्या 7707 थी। इन्हीं सदस्यों में से बारी-बारी से राजा, उप-राजा, सेनानी और भांडागारिक बहाल किए जाते थे। राष्ट्रीय परिषद का स्वरूप केंद्रीय व्यवस्थापिका के समान था। राज्य के चार प्रमुख पदाधिकारी कार्यकारिणी के प्रतिरूप थे। वास्तविक सत्ता केंद्रीय परिषद के हाथों में ही निहित थी। युद्ध एवं शांति के प्रश्न एवं अन्य महत्वपूर्ण विषयों पर परिषद में वाद-विवाद होते थे। बहुमत या सर्वसम्मत से निर्णय किए जाते थे। किसी प्रश्न पर मतभेद होने की स्थिति में मतसंग्रह भी करवाए जाते थे।
लिच्छवियों की न्यायिक व्यवस्था की प्रशंसा पालि-साहित्य में मुक्त कंठ से की गई है। इस न्याय व्यवस्था की विशेषता यह थी कि नागरिकों के अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता की सुरक्षा के पूर्ण उपाय किए गए थे। किसी भी व्यक्ति को तब तक अपराधी नहीं माना जा सकता था जब तक कि सभी न्यायालय उसे दोषी सिद्ध नहीं कर देते थे। अगर एक भी न्यायालय किसी व्यक्ति को निर्दोष करार देता था तो उसे दंडित नहीं किया जा सकता था। अपराधियों को सजा निश्चित कानून के अनुसार ही दी जा सकती थी, मनमाने ढंग से नहीं। लिच्छवियों के सात प्रमुख गुणों (बड़ों का सम्मान करना, एकता, वाद-विवाद करना, प्राचीन परंपराओं का पालन करना इत्यादि) का गौतम बुद्ध ने उल्लेख किया है। इन्हीं विशेषताओं के बल पर लिच्छवीगण लंबे अरसे तक अपनी सुदृढ़ स्थिति बनाए रख सका। लिच्छवियों की सबसे बड़ी कमजोरी यह थी कि उनमें समानता की भावना सीमा से अधिक थी। प्रत्येक लिच्छवि अपने-आपको राजा समझता था। इसके कारण विद्वेष की भावना बढ़ी। फलतः लिच्छवियों की एकता भंग हो गई और उन्हें अपनी स्वतंत्रता खोनी पड़ी।
अन्य गणराज्य- लिच्छवियों और शाक्यों के अतिरिक्त अन्य गणराज्यों की प्रशासनिक व्यवस्था के विषय में बहुत स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है। इन गणराज्यों की व्यवस्था बहुत कुछ लिच्छवियों और शाक्यों की तरह ही थी। शासन का प्रधान निर्वाचित राजा या राष्ट्रपति होता था। उसका निर्वाचन केंद्रीय सभा द्वारा होता था। राजा मंत्रिपरिषद की सलाह और सहायता से प्रशासन चलाता था। परिषद की संख्या गणों के आकार-प्रकार तथा उनकी स्थिति के अनुसार बदलती रहती थी। सामान्यतः इसमें राजा के अतिरिक्त उपराजा, सेनापति और कोषाध्यक्ष रहते थे।
गणराज्य की वास्तविक शक्ति उसकी केंद्रीय सभा या व्यवस्थापिका में ही निहित थी। इसकी सदस्य संख्या निश्चित नहीं थी। जहाँ लिच्छवियों की सभा में 7707 सदस्य थे, यौधेयों में 5,000 वहीं शाक्यों में सिर्फ 500। ये सदस्य कुलीन वर्ग या शासक-वर्ग से ही आते थे। सामान्य जनों को इसमें स्थान नहीं दिया गया था। सारे सदस्य संस्थागार (सभाभवन) में बैठकर, वाद-विवाद द्वारा महत्वपूर्ण विषयों का निर्णय करते थे। कार्यपालिका केंद्रीय सभा के निर्णय को कार्यान्वित करने के लिए बाध्य थी। अधिकांश निर्णय बहुमत या सर्वसम्मति से किए जाते थे। सभा की कार्यवाही को संचालित करने के लिए गणपूरक नामक पदाधिकारी होता था। मतों की गणना करने वाला अधिकारी शलाकाग्राहक के नाम से जाना जाता था।
यद्यपि गणराज्यों की न्यायिक व्यवस्था की प्रशंसा की गई है, तथापि शासन के अन्य विभागों यथा राजस्व, सैन्य-संगठन, पुलिस, नगर-व्यवस्था, ग्राम-प्रशासन इत्यादि के विषय में स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती। संभवतः स्थानीय प्रशासन में स्थानीय तत्वों की सहायता ली जाती थी। कोलियों के पास शांति-व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस की टुकड़ी थी।
गणराज्यों की विशेषताएँ (Characteristics of the Republic)
गणतंत्रीय शासन-व्यवस्था में अनेक गुण थे। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि गणों की जनता को यह आत्मगौरव था कि वह अपना राजा स्वयं चुनती थी। उसे यह संतोष भी था कि अगर निर्वाचित राजा प्रजा के हितों की सुरक्षा नहीं कर सकता है तो उसे बदला जा सकता है। इसलिए, जनता राजा को उचित आदर-सम्मान देती थी। विद्रोह की संभावना बहुत कम थी। जनता अनुशासनप्रिय थी। राजाज्ञा का पालन करना वह अपना धर्म समझती थी, क्योंकि प्रशासन उसी के हित में, उसके द्वारा निर्वाचित राजा ही करता था। इससे जनता में अपने गण के प्रति प्रेम और भक्ति की भावना बढ़ती थी। गणराज्यों में न्यायिक सुरक्षा एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता की व्यवस्था थी। कोई भी शासक इसकी अवहेलना नहीं करता था और न ही कोई अलोकप्रिय कार्य करता था। राज्य की समस्याओं को आपस में मिल-जुलकर वाद-विवाद द्वारा सुलझा लिया जाता था। गणवासियों का जीवन खुशहाल था, उनमें एकता और प्रेम की भावना बलवती थी।
गणतंत्रीय व्यवस्था की दुर्बलताएँ-
गणतांत्रिक व्यवस्था में कुछ दुर्बलताएँ भी थीं। गणतंत्रों की मुख्य दुर्बलता यह थी कि ये गणतंत्र सही अर्थों में गणतंत्र न होकर कुलीनतंत्र थे, जहाँ शासन में जनसाधारण का नहीं, बल्कि शासकवर्ग का ही बोलबाला था। जनता प्रत्यक्ष रूप से शासन में भाग नहीं लेती थी। अधिकांश गणराज्य छोटे थे, उनका क्षेत्र सीमित था। अतः उनके आर्थिक और सैनिक साधन अत्यंत ही सीमित थे। इसलिए, वे बड़ी शक्तियों का मुकाबला करने में असमर्थ थे। गणराज्यों में, उदाहरण के लिए लिच्छवियों में, वर्ग- विभाजन इतना गहरा था कि इसने राज्य की जनता को विभिन्न खेमों में बाँट दिया था। इसके कारण आंतरिक पड्यंत्र, विद्वेष, वैमनस्य और प्रतिस्पर्धा की भावना सदैव बनी रही। फलतः, विपत्ति पड़ने पर ये संगठित होकर शत्रु का मुकाबला नहीं कर सके और धीरे-धीरे साम्राज्यवादी शक्तियों के शिकार बन गए।
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